सामूहिक-प्रार्थना

November 1945

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(महात्मा गाँधी)

मैं बिना खाना खाए कई दिन तक रह सकता हूँ लेकिन प्रार्थना के बगैर तो मैं एक दिन भी नहीं रह सकता। व्यक्तिगत रूप से जहाँ-तहाँ प्रार्थना हो रही है, लेकिन सामूहिक प्रार्थना में हमें संकोच क्यों होता है? मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यदि नर-नारी मिलकर खा सकते हैं, मिल कर खेल सकते हैं और मिल कर काम कर सकते हैं तो फिर वे मिल कर प्रार्थना क्यों नहीं कर सकते?

50 वर्षों से मेरा विश्वास सम्मिलित प्रार्थना में रहा है। दक्षिणी अफ्रीका से ही मेरी प्रार्थनाओं में हिंदू, मुसलमान, ईसाई और पारसी सम्मिलित हुआ करते थे। भारत में भी हजारों नर-नारी मेरी प्रार्थना में सम्मिलित होते आए हैं। मुझे कहा गया है कि वे प्रार्थना करने के लिए नहीं, बल्कि मेरे दर्शन करने के लिए आते हैं। यदि इसे भी मान लिया जाय तो भी वे प्रार्थना पर विश्वास करने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के साथ सम्मिलित होने के लिए आते हैं। मैं जानता हूँ कि मैं अभी ईश्वर के निकट नहीं पहुँचा। मेरी सत्य व अहिंसा की अनुभूति भी अभी तक पूरी नहीं हुई। यदि ऐसा हो जाता तो मुझे भाषण की आवश्यकता न होती। लोग मेरे चेहरे को देख कर ही अहिंसा के महत्व को समझ जाते। मैं कई मर्तबा कह चुका हूँ कि यदि एक व्यक्ति की अहिंसा एकदम पूर्ण हो जाय तो यह समूचे विश्व के लिए पर्याप्त है। सत्य और अहिंसा की अनुभूति में मुझे जो सफलता प्राप्त हुई है, वह एकमात्र प्रार्थना का फल है।

मानसिक उन्नति के लिए ही प्रार्थना की जाती है। यदि किसी व्यक्ति को प्रार्थना भार प्रतीत हो तो उसे प्रार्थना नहीं करनी चाहिए। ईश्वर किसी व्यक्ति की प्रार्थना व प्रशंसा का भूखा नहीं। वह सब कुछ सहन करता है, क्योंकि वह प्रेममय है।


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