संसार की बाह्य परिस्थितियों पर हम तब तक विजय प्राप्त नहीं कर सकते जब तक कि अपने ऊपर काबू न कर लें। दिन-रात क्लेश, विपत्ति, गरीबी, बीमारी, मृत्यु, चिंता और पीड़ा का चिन्तन करते-करते मनुष्य उन्हीं में तन्मय हो जाता है। दूसरी कोई वस्तु उसके सोचने में नहीं आती, फलस्वरूप अपने आराध्य पदार्थों के अतिरिक्त और कुछ मिलता भी नहीं है।
कितने आश्चर्य और दुख की बात है कि जो सत् है वह असत् में डूबा रहे, जो चित है वह मूढ़ता और जड़ता में पड़ा है, जो आनन्द स्वरूप है वह दुख दारिद्रय की कीचड़ में से बाहर न निकल सके। इस संसार में कितनी ही आत्माएं अपनी वास्तविक स्वरूप से बहुत दूर हट कर जड़ता के अंधकार में भटक रही हैं, जीवन को एक प्रकार का भार अनुभव कर रही हैं। सृष्टि का एक-एक कण चैतन्य आत्मा के आनन्द के लिए परमात्मा ने बनाया है। पर दुर्भावनाओं के कारण हम इस को विषम परिवर्तित कर देते हैं। खटाई पड़ने से अमृतोपम दूध, फटकर छार-छार हो जाता है, इसी प्रकार विपरीत दृष्टिकोण रखने के कारण यह आनन्द से परिपूर्ण जीवन एक कष्टदायक भार बन जाता है।
हमें अपने ऊपर विजय प्राप्त करनी चाहिए, अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना चाहिए, अपनी विचारधारा में संशोधन करना चाहिए। जो ऐसा कर लेता है उसकी सारी बाह्य परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाती हैं और हर एक वस्तु तथा परिस्थिति में आनन्द की झाँकी होने लगती है।