“पुरोहित” के जागरण की आवश्यकता।

November 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य में दो तंत्र प्रधान हैं, एक विवेक, दूसरा ‘बल’। बल अनेक प्रकार के हैं, शरीर बल, चातुर्य बल, धन बल, संघ बल आदि। इन बलों द्वारा शासन, उत्पादन और निर्माण कार्य होता है, इन्हीं के द्वारा सम्पत्ति एवं ऐश आराम के साधन उपलब्ध होते हैं। विवेक द्वारा इन सब बलों को सम्पादन करने की प्रेरणा मिलती है, उपाय का अवलम्बन मिलता है एवं बल द्वारा प्राप्त सामग्री के उपयोग तथा सुरक्षा की व्यवस्था होती है।

मस्तिष्क बल और विचार बल में थोड़ा अन्तर है, उसे भी हमें समझ लेना चाहिये। मस्तिष्क बल का शरीर बल से संबंध है। विद्याध्ययन, व्यापारिक कुशलता, किसी कार्य व्यवस्था को निर्धारित प्रणाली के अनुसार चलाना, यह सब मस्तिष्क बल का काम है। वकील, डॉक्टर, व्यापारी, कारीगर, कलाकार आदि का काम इसी के आधार पर चलता है। यह बल शरीर की आवश्यकता और इच्छा की पूर्ति के कारण उत्पन्न होता और बढ़ता है। परन्तु विवेक बल आत्मा से संबंधित है, आध्यात्मिक आवश्यकता, इच्छा और प्रेरणा के अनुसार विवेक जागृत होता है। उचित-अनुचित का भेदभाव यह विवेक ही करता है।

मस्तिष्क बल शरीर जन्य होने के कारण उसकी नीति शारीरिक हित साधन की होती है। इन्द्रिय सुखों को प्रधानता देता हुआ वह शरीर को समृद्ध एवं ऐश्वर्यवान बनाने का प्रयत्न करता है। अपने इस दृष्टिकोण के आगे वह उचित-अनुचित का भेद भाव करने में बहुत दूर तक नहीं जाता। जैसे भी हो वैसे भोग ऐश्वर्य इकट्ठा करने की धुन में प्रायः लोग कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ध्यान भूल जाते हैं, अनुचित रीति से भी स्वार्थ साधन करते हैं।

विवेक इससे सर्वथा भिन्न है। देखने में ‘विवेक’ भी मस्तिष्क बल की ही श्रेणी का प्रतीत होता है पर वस्तुतः वह उसके सर्वथा भिन्न है। विवेक आत्मा की पुकार है, आत्मिक स्वार्थ का वह पोषक है। अन्तःकरण में से सत्य, प्रेम, न्याय, त्याग, उदारता, सेवा, एवं परमार्थ की जो भावनाएं उठती हैं उनका वह पोषण करता है। सत तत्वों के रमण में उसे आनन्द आता है। जैसे शरीर की भूख बुझाना मस्तिष्क बल का प्रयोजन होता है वैसे ही आत्मा की भूख बुझाने में ‘विवेक’ प्रवृत्त रहता है। काम और अहंकार की पूर्ति में बलशाली लोग सुख अनुभव करते हैं पर उससे अनेकों गुना आनन्द-परमानन्द-विवेकवान को प्राप्त होता है।

बल द्वारा संपत्ति और भोग सामग्री उपार्जित होती है, परन्तु इस उपार्जन कर तरीका इतना संकुचित और स्वार्थमय होता है कि उसकी धुन में मनुष्य धर्म अधर्म की परवाह नहीं करता। इसलिए केवल बल द्वारा उत्पन्न की हुई संपत्ति कलह और क्लेश उत्पन्न करने वाली, दुखदायक एवं परिणाम में विष के समान होती है। ऐसी संपत्ति का उपार्जन संसार में अशाँति, युद्ध, शोषण, उत्पीड़न एवं प्रतिहिंसा की नारकीय अग्नि को प्रज्वलित करने में घृत का काम करता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए विवेक बल का शरीर बल और मस्तिष्क बल पर नियंत्रण कायम रहना पड़ता है।

बल के ऊपर विवेक का नियन्त्रण अत्यन्त आवश्यक है, बिना इसके संसार में सुख शान्ति कायम नहीं रह सकती। बल अंधा है और विवेक पंगु है। केवल बल की प्रधानता रहे तो उससे अनर्थ, अत्याचार एवं पाप की उत्पत्ति होगी, बल के अभिमान में मनुष्य अंधा हो जाता है। विवेक नेत्र स्वरूप है वह सत्पथ का प्रदर्शन करता है किन्तु अकेला विवेक क्रिया रहित हो जाता है, अनेकों एकाँतवासी विवेकशील विद्वान एक कोने में पड़े अपनी निरुपयोगिता सिद्ध करते हैं। जब विवेक और बल दोनों का सामंजस्य हो जाता है तो उसी प्रकार सब व्यवस्था ठीक हो जाती है जैसे एक बार अंधे की पीठ पर पंगु आदमी बैठ गया था और वे दोनों आपसी सहयोग के कारण जलते हुए गाँव में से बचकर बाहर निकल गये थे। यदि दोनों आपसी सहयोग न करते तो दोनों का ही जल मरना निश्चित था।

धर्मशास्त्रों ने बल के ऊपर विवेक का शासन स्थापित किया है। भौतिक जगत में भी यही प्रथा और परिपाटी कायम की गई है। कला कौशल-बल, धन बल और शरीर बल इन तीनों बलों के प्रतिनिधि स्वरूप शूद्र, वैश्य एवं क्षत्रिय पर विवेक के प्रतिनिधि ब्राह्मण का शासन कायम किया गया है। हम प्राचीन इतिहास में देखते हैं कि हर एक राजा की शासन प्रणाली राजगुरु के आदेशानुसार चलती थी। तीनों वर्णों का पथ प्रदर्शन ब्राह्मण करते थे।

ऐतरेय ब्राह्मण 7-4-8 में एक श्रुति आती है- “अर्थात्मोहवा एथ क्षत्रियस्य यत्पुरोहितः।” अर्थात्- क्षत्रिय की आधी आत्मा पुरोहित है। हम देखते हैं कि जनता के आन्दोलनों का समुचित लाभ प्राप्त होना नेताओं की सुयोग्यता पर निर्भर है। विवेकशील सुयोग्य नेताओं के नेतृत्व में अल्प जन बल से भी महत्वपूर्ण सफलता मिल जाती है। नेपोलियन के पास थोड़े से सिपाही थे, पर वह अपने बुद्धि कौशल द्वारा इस थोड़ी सी शक्ति से ही महान सफलताएं प्राप्त करने में समर्थ हुआ।

जो विवेकवान व्यक्ति पथ-प्रदर्शन एवं नेतृत्व कर सकने योग्य क्षमता रखते हैं उन पुरोहितों का उत्तर दायित्व महान है। ऐतरेय ब्राह्मण के 8-5-2 में ऐसे पुरोहितों को ‘राष्ट्र गोप’ अर्थात् राष्ट्र की रक्षा करने वाला कहा है। यदि देश समाज एवं व्यक्तियों का बल अनुचित दिशा में प्रवृत्त होता था तो उसका दोष पुरोहितों पर पड़ता था। ताण्ड्य ब्राह्मण के 13-3-12 में एक कथा आती है कि इच्छवाकुवंशीय अरुण नामक एक राजा की अहंकारिता और उद्दण्डता सीमा से बाहर बढ़ गई। एक बार उस राजा के लापरवाही से रथ चलाने के कारण एक व्यक्ति को चोट लग गई। वह व्यक्ति अरुण के पुरोहित ‘वृश’ के पास गया और उनकी भर्त्सना करते हुए कहा- आपने राजा को उचित शिक्षा नहीं दी है। आपने अपने गौरवास्पद पुरोहित पद के कर्त्तव्य का भली भाँति पालन नहीं किया है। यदि किया होता तो राजा इस प्रकार का आचरण न करता उस व्यक्ति के यह वचन सुनकर ‘वृश’ बहुत लज्जित हुए। उनसे कुछ कहते न बन पड़ा। उन्होंने उस व्यक्ति को अपने आश्रम में रखा और जब तक उसकी चोट अच्छी न हो गई तब तक उसकी चिकित्सा की।

उपरोक्त कथा इस सत्य को प्रदर्शित करती है कि राज्य के प्रति पुरोहित का कितना उत्तरदायित्व है। बल को उचित दिशा में प्रयोजित करने की ‘विवेक’ की कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। आज पुरोहित तत्व और राज्य तत्व दो पृथक दिशाओं में चल रहे हैं। एक ने दूसरे का सहयोग कम कर दिया है। फलस्वरूप हमारी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक सुव्यवस्था नष्ट हो रही है। जब तक पुरोहित तत्व अपने उचित स्थान को ग्रहण करेगा तब तक हमारे बाह्य और भीतरी जीवन में शान्ति स्थापित भी न होगी। विवेक का, विवेक प्रतिनिधियों का- शरीर राष्ट्र और समाज राष्ट्र के ऊपर समुचित शासक होना चाहिए।

जनता को अज्ञानाँधकार से छुड़ाकर ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर करना, पुरोहित का कार्य है। जो व्यक्ति ज्ञानवान हैं, जागृत हैं, पथ प्रदर्शन करने की क्षमता रखते हैं उन पुरोहितों का कर्त्तव्य है कि जनता को जागृत करते रहें। सामाजिक राष्ट्रीय शारीरिक एवं आर्थिक खतरों से सजग रखना और कठिनाइयों का हल करने का मार्ग प्रदर्शित करना पुरोहित का प्रधान कर्त्तव्य है। अन्तःकरण में रहने वाले पुरोहित का कर्त्तव्य है कि वह विवेक द्वारा शक्तियों पर नियन्त्रण करे और उन्हें कुमार्ग से बचाकर सन्मार्ग पर लगावें।

हे पुरोहित! जाग! राष्ट्र के बारे में जागरुक रह। वेद पुरुष कहता है- “वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः।” पूरोहित राष्ट्र के सम्बन्ध में जागते रहें-सोवें नहीं। हमारे अन्तःकरण में बैठे हुए हे विवेक पुरोहित! जागता रह! ताकि हमारा बल “क्षत्रिय” अनुचित दिशा में प्रवृत्त न हो। हमारे देश और जाति का नेतृत्व कर सकने की क्षमता रखने वाले हे सच्चे पुरोहितो! जागते रहो, ताकि हमारी राष्ट्रीय और सामाजिक शक्तियों का अनुचित आधार पर अपव्यय न हो। हे पुरोहित! जाग, हमारे बल पर शासन कर, ताकि हम पुनः अपने अतीत गौरव की झाँकी कर सकें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118