मिट्टी की सनी राशि को जब उस चक्र-भ्रमण में मिला प्रलय; तब कुँभकार के कुशल करो से भू पर मेरा हुआ उदय।
अपने स्वजातियों से हटकर मैं एक कृषक गृह में आया; मुझमें कपास वर्तिका पड़ी; मैं गया स्नेह से नहलाया!
मैं दीपक था, मेरे प्राणों में सहज एक उमड़ी ज्वाला; मेरी पीड़ा की लपटों से वह जगमग हुई कृषक-शाला।
मेरा मन उसकी ज्योति-किरण से कन-कन के घर में बिखरा; उस दिन से मेरी लहरों में कितनों का जीवन-मरु निखरा।
मैं भंगुर छोटे जीवन को आया अनंत पथ में रखने; मैं रज का कण, बैठा न रहा, बढ़ चला मृत्यु से यों लड़ने।
क्या हर्ज, मुझे लखकर अंबर के ये जलते तारे न हँसे! बस, वही बहुत, कुछ भोले मुख हैं मुझे देख बढ़ते विहँसे।
उस थके, पुराने गर्द भरे पथ पर चलना न मुझे भाया! मैं रज-नंदन, भू में न रहा, इस ऊर्ध्व लोक तक चढ़ आया।
मैं हिल-डुल कर हूँ हुआ जीर्ण, पर धन्य आज वर्तिका जली; तारों से मैंने रची होड़ मेरी यह आशा अमर पली।
छोटा जीवन, मैं था अलीक, थी अरमानों की मची घूम; उस श्याम बदन के भीतर कितने स्वप्न रहे थे मधुर झूम।
मैं उन सपनों के लिए चला, उपहार अन्त में अपनाया; फिर कौन देश का वासी मैं? है किधर चली मेरी काया!
था सका आँक कोई ज्ञानी इतना अनुपम विकास मेरा? है खला न किसके हृदय बीच ज्वाला से यह विलास मेरा?
जग देखे आँखें खोल-खोल, यह प्रलय-जन्म, यह प्रलय-हास; मैं उस असीम घर में आया, जिसमें था मेरा मधु-विकास।
-किशोर
-किशोर
*समाप्त*