दीपक का आत्म निवेदन

November 1945

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मिट्टी की सनी राशि को जब उस चक्र-भ्रमण में मिला प्रलय; तब कुँभकार के कुशल करो से भू पर मेरा हुआ उदय।

अपने स्वजातियों से हटकर मैं एक कृषक गृह में आया; मुझमें कपास वर्तिका पड़ी; मैं गया स्नेह से नहलाया!

मैं दीपक था, मेरे प्राणों में सहज एक उमड़ी ज्वाला; मेरी पीड़ा की लपटों से वह जगमग हुई कृषक-शाला।

मेरा मन उसकी ज्योति-किरण से कन-कन के घर में बिखरा; उस दिन से मेरी लहरों में कितनों का जीवन-मरु निखरा।

मैं भंगुर छोटे जीवन को आया अनंत पथ में रखने; मैं रज का कण, बैठा न रहा, बढ़ चला मृत्यु से यों लड़ने।

क्या हर्ज, मुझे लखकर अंबर के ये जलते तारे न हँसे! बस, वही बहुत, कुछ भोले मुख हैं मुझे देख बढ़ते विहँसे।

उस थके, पुराने गर्द भरे पथ पर चलना न मुझे भाया! मैं रज-नंदन, भू में न रहा, इस ऊर्ध्व लोक तक चढ़ आया।

मैं हिल-डुल कर हूँ हुआ जीर्ण, पर धन्य आज वर्तिका जली; तारों से मैंने रची होड़ मेरी यह आशा अमर पली।

छोटा जीवन, मैं था अलीक, थी अरमानों की मची घूम; उस श्याम बदन के भीतर कितने स्वप्न रहे थे मधुर झूम।

मैं उन सपनों के लिए चला, उपहार अन्त में अपनाया; फिर कौन देश का वासी मैं? है किधर चली मेरी काया!

था सका आँक कोई ज्ञानी इतना अनुपम विकास मेरा? है खला न किसके हृदय बीच ज्वाला से यह विलास मेरा?

जग देखे आँखें खोल-खोल, यह प्रलय-जन्म, यह प्रलय-हास; मैं उस असीम घर में आया, जिसमें था मेरा मधु-विकास।

-किशोर

-किशोर

*समाप्त*


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