पतिव्रत योग की सिद्धि और साधिका

November 1945

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(राजकुमारी रत्नेश कुमारी “नीराँजना”)

गत अंक में मेरे लघु लेख पर बहुत से महानुभावों की दृष्टि पड़ी होगी। यह भी उसी से सम्बंधित है। इसमें मैंने यह विचारने का प्रयत्न किया है कि पतिव्रत योग की सिद्धि और साधिका की योग्यता कम से कम क्या होनी चाहिये? यदि पाठक-पाठिकाओं ने उक्त लेख को मनन पूर्वक पढ़ा होगा तो वे यह बिना बतलाये ही समझ गये होंगे कि इस योग की सिद्धि तो यही है जो और सब योगों की अर्थात् आत्मा का परमात्मा से अविच्छिन्न सम्बन्ध का ज्ञान तथा उसका अन्तरतम से निरन्तर सहज भाव से अनुभव। अब साधिका की योग्यता पर विचार करें। वैसे तो गीता में कथित दैवी सम्पत्ति के जितने ही अधिक गुण साधिका उपार्जित कर सके इस पथ में सहायक ही होंगे पर मैं तो उन्हीं गुणों की गणना करूंगी जो कि साधिका के हेतु अनिवार्य अथवा अत्यावश्यक हैं।

आर्य धर्म के मूल तत्वों पर विश्वास, (ईश्वर का सर्व व्यापकत्व, उसकी न्यायशीलता, आत्मा की अमरता आदि) उक्त पथ पर जो देवियाँ चली हैं उन पर श्रद्धा तथा उनके चरित्र का अनुशीलन, मनन, उनके असाधारण, दिव्य कार्यों पर विश्वास और ये विश्वास कि जब आत्मा का परमात्मा से योग हो जाता है तब कोई भी उसके हेतु कार्य असम्भव अथवा असाध्य नहीं रहता, इस पथ के महत्व को समझना तथा इसके हेतु बड़े से बड़ा स्वार्थ त्याग करने को सर्वदा प्रस्तुत रहना, पति को ईश्वर की प्रति-मूर्ति मान कर श्रद्धा रखना, उसके कुविचारों को हटाने का तन मन से पूर्ण प्रयत्न करना, पर श्रद्धा तथा इस भावना को न्यून न होने देना, विवाहकाल की प्रतिज्ञाओं को जानना, उन पर मनन तथा उनकी पूर्ति का पूर्ण प्रयत्न करना। इस विषय में महाकवि हरिऔधजी की निम्न पंक्तियाँ कम महत्वपूर्ण अथवा कम विचारणीय नहीं हैं-

भरी बात में हो बड़ी ही मिठाई,

लगी किन्तु होवे कलेजे में काई।

अगर स्वार्थ बू प्यार में हो समाई,

दुई की झलक हो दृगों रंग लाई।

भला है न तो ब्याह मण्डप में आना,

भरे लोग में नेह गाँठें लगाना।


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