तमोगुण से विपत्ति

November 1945

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(योगी अरविन्द)

जिस साधक में तमोगुण की प्रधानता रहती है उसे दो प्रकार कि विपत्ति में फँसने की सम्भावना रहती है। सबसे पहले साधक के हृदय में उठता है कि-मैं दुर्बल, पापी, घृणित, अज्ञानी, अकर्मण्य हूँ। जिस किसी को मैं देखता हूँ सभी मुझसे ऊँचे दिखाई देते हैं। मैं सबसे नीच हूँ, भगवान को हमारी आवश्यकता नहीं। भगवान मुझे अपनी शरण में लेकर क्या करेंगे? मानों ईश्वर की शक्ति परिमित है और अवस्था विशेष के ऊपर निर्भर करती है और वह उक्ति मिथ्या है कि वह गूँगे को बोलने की शक्ति प्रदान कर सकता है और लूले को चलने की शक्ति दे सकता है।

दूसरे यदि साधक को थोड़ी बहुत शान्ति मिल गई तब उसी का आनन्द उपभोग कर वह मन में सोचने लगता है कि चलो सारा प्रपंच दूर हुआ, मुझे शान्ति मिल गई। इस प्रकार कह कर सब प्रकार के कर्मों से मुँह मोड़ कर आनन्द करने लग जाता है। साधक को सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वह भी परब्रह्म का अंश है और आदि शक्ति उसके हृदय में अब स्थान करके उसका संचालन करती है। सर्व शक्तिमान भगवान की लीला तरह-तरह की होती है। किसी एक लीला के परवश होकर साधक को उदासीन होकर बैठ रहना सदा अनुचित है। वह जो कुछ करता है सब उसकी आनन्द लीला है। उसे उत्पात या और कुछ समझना सर्वथा भूल है। पर जब तक किसी तरह का अहंकार विद्यमान रहता है तब तक इस तरह की धारणा का उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। कर्म बन्धन के काटे जाने पर भी हमें तो कर्म करना ही होगा।


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