सहज योग

November 1945

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गत अंक में “सहज योग” की कुछ चर्चा की जा चुकी है। “सादा जीवन-उच्च विचार” का मंत्र सहज सोग की जड़ है। कमलपत्रवत, निर्लिप्त, अनासक्त, स्थित प्रज्ञ, आत्मस्थित की अवस्था भी यही है। अपना दृष्टिकोण भौतिक न रखकर आध्यात्मिक बना लेना और हर बात के ऊपर आध्यात्मिक दृष्टि से सोचना, विचारना और तदनुकूल कार्य करना, यही सहज योगी की स्थिति है। सदैव जागरुक रहना, अपने स्वभाव, विचार, इच्छा, आकाँक्षा एवं कार्यप्रणाली को बारीक दृष्टि से देखते रहना कि नियत दृष्टिकोण के विरुद्ध कुछ गड़बड़ी तो नहीं हो रही है। यही सहज योग का अनुष्ठान है। अपने भीतरी शत्रुओं से, कुवासनाओं से निरन्तर हर घड़ी लड़ना और सद्भाव, सद्विचार, सत्कार्यों का आश्रय लेना यही सहज योगी की साधना होती है।

“सहजयोग” इस दृष्टि से सहज है कि उसमें उलटे लटकने या धूनी रमाने या घरबार छोड़ कर विचित्र वेश बनाने या भिक्षाटन करने का झंझट नहीं है। साधारण व्यक्ति की तरह व्यवसाय, रहन-सहन एवं आहार-विहार रखता हुआ हर कोई इसे हर अवस्था में साध सकता है। पर उस दृष्टि से कठिन है कि हर घड़ी जागरुक रहना पड़ता है। दिन में आधा या एक घंटा कोई अभ्यास कर लेने मात्र से इसमें सफलता नहीं मिलती वरन् थोड़ी-थोड़ी देर बाद आत्म स्थित होकर यह देखना पड़ता है कि कार्य प्रणाली एवं विचारधारा उचित दिशा में चल रही है या नहीं। जब सेनाओं में युद्ध होता है तो सेनापति के सहायक अफसर-पर्यवेक्षक-किसी ऊँचे स्थान पर बैठे हुए दूरबीन लगाकर यह देखते रहते हैं कि हमारी सेना की और दुश्मन की सेना की प्रगति किस प्रकार हो रही है। यह पर्यवेक्षक सेनापति ही सारी हलचलों की सूचना देते रहते हैं तदनुसार सेनापति अपनी सेना को आगे बढ़ाने तथा दुश्मन को परास्त करने के यथोचित प्रोग्राम बनाता रहता है। इसी प्रकार सहज योग के साधक की बुद्धि, सूक्ष्मदर्शी पर्यवेक्षक की भाँति पूरी जागरुकता और सावधानी के साथ यह देखती रहती है कि अपने अन्दर सात्विकी और तामसी वृत्तियों के सेनाओं का कार्य किस प्रकार हो रहा है। इसकी सूचना वह अन्तःकरण रूपी सेनापति को देती है और सेनापति तदनुसार इस साधना समर में विजय प्राप्त करने की स्थिति को देख-कर आयोजन करता रहता है और अन्त में अभीष्ट सफलता प्राप्त कर लेता है।

यह कार्य उतावली का, जल्दबाजी का या हथेली पर सरसों जमा लेने का नहीं है। कर्म का परिपाक होने में समय लगता है। बोया हुआ बीज समयानुसार उगता और फल देता है। आवे में लगाये हुए घड़े उचित अग्नि पाकर नियति अवधि पर पकते हैं। विद्यार्थी बहुत समय तक शिक्षाभ्यास करने के उपरान्त स्नातक बनते हैं, बहुत समय तक कसरत करने के उपरान्त ही पहलवान का पद मिलता है। कार्य आरंभ होने से लेकर उसके पूरा होने तक अनेकों बार नाना प्रकार के विघ्न आते हैं। अनेकों बार दुर्दिन देखना पड़ता है और निराशाजनक स्थिति का मुँह देखना पड़ता है, परन्तु धैर्य पूर्वक सतत् प्रयत्न करते रहने से समयानुसार आवश्यक सफलता प्राप्त हो जाती है।

आरम्भ में ऐसा होता है कि ‘सहज योग’ का साधक अपने विचार और कार्यों को सात्विक, उच्च, पवित्र एवं परमार्थ पूर्ण बनाने का प्रयत्न करता है पर कोई झोंके ऐसे आते हैं कि उसका किया कराया सब गुड़ गोबर हो जाता है। कभी-कभी अपना चिर संचित दुःस्वभाव ही उबल पड़ता है और लालच के कारण नियत कार्यक्रम से स्खलित हो जाता है। कोई प्रलोभन या अवसर आने पर सोचता है, जरा सा एक बार थोड़ा सा रसास्वादन कर लें, फिर आगे न करेंगे। सामने आये हुए प्रलोभन को देखकर, परसी हुई थाली आगे रखी देखकर मुँह में पानी भर आता है, चिर अभ्यस्त स्वभाव का बवंडर एक बार पूरे प्रबल वेग से उठ खड़ा होता है। उस तूफान में साधना की विधि व्यवस्थायें शिथिल पड़ जाती हैं और साधक पथ भ्रष्ट हो जाता है। लोभ के अतिरिक्त क्रोध से भी ऐसे ही तूफान खड़े होते हैं। साधक सोचता है सब से विनम्र व्यवहार करेंगे, पर कभी कोई व्यक्ति बहुत ही दुष्टतापूर्ण अकारण करके क्रोध का आवेश जगा देता है, उस आवेश में लड़ पड़ने या शठ के प्रति शठता करने को उतारू हो जाना पड़ता है। इन लोभ या क्रोध के आवेशों में उतर जाने के पश्चात् साधक सोचता है मुझसे भूल हुई। वह दुखी होता है, अपनी निर्बलता का अनुभव करता है और सोचता है कि मेरे जैसे दुर्बल मन वाले का इस साधना में सफल होना कठिन है। इस निराशाजनक स्थिति में खिन्न होकर वह अपने प्रयत्नों को छोड़ बैठता है।

कठिनाई या असफलताओं के संबंध में डर साधक को भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि उनका पूर्ण निवारण साधना आरम्भ करते ही नहीं हो सकता। जन्म जन्मान्तरों की बीमारी को एक दिन में दूर नहीं किया जा सकता है। वह क्रमशः और धीरे-धीरे ठीक होती है। साइकिल की सवारी करने वाले जानते हैं कि चढ़ना सीखते समय कई बार उन्हें पटक खानी पड़ती है। तैरने वाले जानते हैं कि पानी में पैर देते ही वे नहीं सीखने लगे थे, वरन् अनेक गोते खाने के उपरान्त वे तैराक बने हैं, पढ़ने वाले जानते हैं कि हर दिन उन्हें भूल के कारण अध्यापक की लताड़ सहनी पड़ती है। पर क्या कोई विद्यार्थी यह सोच कर पढ़ना छोड़ देता है कि मुझसे नित्य भूलें होती हैं, नित्य अध्यापक के सम्मुख दोषी ठहरता है। भूलें करते हुए भी विद्यार्थी निरन्तर अपना अध्ययन जारी रखता है। भूलों को भुला देता है और सफलताओं को स्मरण रखता है। परीक्षा में छात्र को जब 80 प्रतिशत नम्बर प्राप्त होते हैं तो वह फूला नहीं समाता, सब लोग उसकी प्रशंसा करते हैं। इस छात्र ने यद्यपि भूल भी की हैं, 20 प्रतिशत प्रश्न उसने बिल्कुल गलत किये हैं, जितने सवाल उसने गलत किये हैं, उतने अंश में वह भोंदू, मूर्ख, बेवकूफ, लापरवाह, नालायक, दोषी या अपराधी है। पर इस दोषों की मात्रा के होते हुए भी न तो विद्यार्थी स्वयं निराश होता है और न कोई उसकी निन्दा करता है। भूल की अपेक्षा सावधानी का उसने अधिक परिचय दिया। असफलता से सफलता का पलड़ा भारी रहा, इतना होना, ऐसा होना, सर्वथा प्रशंसनीय है। इसलिए आधे से अधिक नम्बर लाने वाला, पास समझा जाता है, उसकी पीठ ठोकी जाती है और प्रशंसा की जाती है।

साधकों को इन विद्यार्थियों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। जब छोटे बालक, असफलताओं से नहीं डरते, उनको देखकर पस्त हिम्मत, परास्त, निराश, भयभीत, अस्थिर नहीं होते वरन् इस त्रुटियों की परवाह न करके अपना कार्यक्रम बराबर जारी रखते हैं, तब क्या साधक ऐसा नहीं कर सकते? हर भूल से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए और हर बार अधिक सावधानी से कदम उठाना चाहिए। जब गिर पड़ो तो उठ बैठो, धूल झाड़ कर खड़े हो जाओ और फिर अपना कार्य आरम्भ कर दो। गिरना लज्जा की बात नहीं है, हर चढ़ने वाले को गिरना पड़ता है। लज्जा की बात यह है कि गिरने से डरकर पुनः प्रयत्न न कि जाय, पुरुषार्थ को छोड़ बैठा जाय। यह संभव है कि अध्यात्म पथ के यात्री को नित्य कुविचारों का सामना करना पड़े और उसके कार्यों में दोष रह जाय। शत्रु संस्कार घड़ी-घड़ी पर आक्रमण करते हैं उसे एक चुनौती समझकर उनको जरा मूल से उखाड़ डालने का स्थिर संकल्प करना चाहिए। संकल्प की स्थिरता, गंभीरता, सच्चाई जितनी मजबूत होगी उतनी ही सफलता प्राप्त होगी। “(1) इन समस्त कुसंस्कारों को जड़ मूल से नाश करके छोड़ूंगा।” “(2) सात्विकता की वृद्धि करते-करते उसकी पूर्णता तक जा पहुँचूँगा।” यह दो निश्चय, अडिग, अटूट होने चाहिए। इन दोनों लक्ष्यों में पूरी आस्था, निष्ठा, श्रद्धा, दृढ़ता और सत्यता होनी चाहिए। इस निष्ठा को यदि शिथिल न होने दिया जाय तो नित्य प्रति की भूलों को सुधारता हुआ, नित्य प्रति की असफलताओं को परास्त करता हुआ साधक अपने अभीष्ट ध्येय तक पहुँच कर रहेगा। उसे एक दिन पूर्णता, सिद्धावस्था प्राप्त होकर रहेगी।

जीवन का आदि से अन्त तक पवित्रता में ओत-प्रोत करने का दृढ़ निश्चय अन्तरात्मा में होना चाहिए। “मैं सत् हूँ, जीवन को असत्य से छुड़ाकर सत्य से परिपूर्ण बनाऊँगा। मैं चित् हूँ जीवन को आलस्य और प्रमाद से बचाकर चैतन्य, जागरुक क्रियाशील बनाऊँगा। मैं आनन्द हूँ, जीवन में दुःख क्लेश और पीड़ाओं को हटाकर निर्भयता, निश्चिंतता एवं सुख शान्ति से ओत-प्रोत करूंगा।” इस प्रकार का विश्वास अन्तःकरण में गहराई के साथ जमाना चाहिए। आत्मा को अपने आप में स्थित होने देना चाहिए। राजा तभी तक राजा है जब तक कि वह अपने राज्य सिंहासन पर है जब वह सिंहासन च्युत हो गया तो उसका सारा गौरव नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा जब अपने आत्मभाव में स्थित है तब मनुष्य संत, महात्मा, महापुरुष, नेता, गुरु, पथ-प्रदर्शक, जीवन मुक्त, योगी, अवतार, ऋषि, तत्वदर्शी, सिद्ध और महान है। जब वह इस स्थान से गिरकर शरीर भाव में स्थित हो जाता है, अपने को शरीर समझता हुआ, शरीर भाव से कार्य करता है तब वह कुटिल खल, कामी, नीच, मायाबद्ध, भव पीड़ित, स्वार्थी, पापी, घृणित, तुच्छ है, इस स्थिति में थोड़ी और बढ़ोतरी हो जाती है तो जीवन की स्थिति और भी भयंकर हो जाती है, तब वह चाण्डाल, पिशाच, राक्षस एवं असुर हो जाता है।

सुर और असुरों में, देवता और राक्षसों में प्रकृति की एक सी ही वृत्तियाँ काम करती हैं। सभी स्वार्थ साधना करते हैं। स्वार्थ सम्पादन सभी को अभीष्ट है। आत्मभाव में स्थित जीवन अपने को आत्मा समझता हुआ आत्म कल्याण के लिए सात्विक विचार कार्यों द्वारा अभीष्ट सिद्ध होते देखकर शुभ कर्मों में तत्पर हो जाता है। शरीर सुख की परवाह न करते हुए, आत्मसुख को प्रधानता देता हुआ, त्याग, तप, दान, परमार्थ, संयम, स्वाध्याय, दया, प्रेम, विनय, उदारता, सेवा, पवित्रता आदि से परिपूर्ण कार्य प्रणाली को अपनाता है और देवता कहलाता है। इसके विपरीत जो जीव अपने को शरीर समझता है वह इन्द्रिय सुख, मनोरंजन और शारीरिक लालसाओं का सुख भोगने की इच्छा से भौतिक संपदाएं एकत्रित करने का उद्योग करता है। उसकी अधिकाधिक शक्तियाँ शरीर को प्रसन्नता देने वाले भौतिक साधनों के जुटाने में लगी रहती हैं। ऐसी स्थिति में श्रम, संचय, भोग और तृष्णा ही उसके प्रधान कार्य रह जाते हैं। वह शारीरिक एवं साँसारिक सुखों की अखण्ड प्राप्ति चाहता है पर यह चाहना किसी की भी आज तक पूरी नहीं हुई। असंभव चाहना के लिए प्रयत्न करना एक भूल है, उस भूल को ही भ्रम या माया कहा है। शरीर स्वार्थ की दृष्टि को ही सर्वोपरी समझने वालों को मायाबद्ध जीवन कहते हैं। यह माया जब प्रबल हो उठती है। शारीरिक वासनाओं की अति उत्कृष्ट इच्छा से अंधा होकर जब धर्म मर्यादा की परवाह न करता हुआ मनुष्य भोगों का भण्डार जमा करने पर कमर कसता है तो उसके कार्य शोषण, अपहरण, छल, दंभ, प्रपंच, असत्य, चोरी, हिंसा, बलात्कार, व्यभिचार, अहंकार, क्रूरता निष्ठुरता से सराबोर हो जाते हैं। यह मनुष्य नर पिशाच कहे जाते हैं।

देवता, मायाबद्ध मनुष्य और नर पिशाच, तीनों के अन्तःकरण में एक ही वृत्ति काम कर रही है- स्वार्थ साधना। सभी को अपने सुख की अपने कल्याण की, अपनी उन्नति की अभिलाषा है। तीनों के कार्य एक ही प्रेरणा से प्रेरित होकर हो रहे हैं। भेद केवल आत्म स्थिति और शरीर स्थिति है। जो आत्मभाव में स्थिति है उसका स्वार्थ- ‘परमार्थ’ कह कर प्रशंसित किया जाता है। जो मायाबद्ध जीव हैं उनका स्वार्थ-’स्वार्थ’ कह कर तिरष्कृत किया जाता है। जो नर पिशाच हैं उनका स्वार्थ-’अनर्थ’ है, उसके लिए घोर घृणा प्रकट की जाती है। जन समाज द्वारा विरोध एवं विनाश किया जाता है। परमार्थी परमानंद का अनुभव करते हैं, जीवन लालसा और वासना में बेचैन रहते हैं और पिशाच, चिन्ता, अशान्ति एवं नाना प्रकार की पीड़ाओं में जलते रहते हैं।

निश्चय ही आत्म स्थिति में आनन्द है और शरीर भाव की स्थिति में दुख है। इसलिए सच्चे सुख का, सच्चे स्वार्थ का सम्पादन करने के लिए आत्मभाव में स्थित होने का प्रयत्न करना चाहिए, यही प्रयत्न ‘सहज योग’ कहा जाता है। बार-बार कठिनाई और असफलता का सामना करते हुए भी इस महान साधना को जारी रखना चाहिए। दृढ़ निश्चयी देर या सवेर में एक दिन अभीष्ट स्थान पर पहुँच ही जाता है।

=कोटेशन============================

जिस समाज या जाति में चरित्रता की ओर ध्यान नहीं दिया जाता, वह समाज व जाति प्रतिदिन अवनति के मार्ग पर अग्रसर होती चली जायगी। चरित्र हीनता उसको जर्जर व अशक्त करके छोड़ेगी।

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