सम्भाषण कार्य में सबसे बड़ा अवगुण, पर-निन्दा करना है। परनिन्दक मनुष्यों की दशा ठीक उस पागल मनुष्य की तरह होती है जिसके हाथ में एक तलवार दे दी जाती है और जो किसी भी मनुष्य को मारने में नहीं हिचकता। निन्दा करने वाले प्रत्येक मनुष्य में कुछ भी नैतिक साहस नहीं रहता, वह प्रत्यक्ष में कुछ कहने की हिम्मत नहीं रखता। वह उस कायर शत्रु के समान है जो छिपकर वार करना जानता है।
सिवाय इसके दूसरों की निन्दा करने में यह भी एक नुकसान है कि वह मनुष्य, जिसकी निन्दा की जाती है अपना दुश्मन बन बैठता है।
जो मनुष्य यह समझते हैं कि हम दूसरों की जब निन्दा किया करते हैं तब वह बात उसके कानों तक नहीं पहुँचती, वे बड़े मूर्ख हैं। ऐसा होना असम्भव है दूसरों की तुम हजार तारीफ करो, परन्तु यह बात उसके कानों तक नहीं पहुँचेगी, जब तुमने किसी की निन्दा की तब याद रखो यह बात उसे हवा के द्वारा मालूम हो जायगी।
इस तरह से जिन-जिन मनुष्यों की निन्दा की जाती है वे सब दुश्मन बन जाते हैं और अन्त में निन्दा करने वाले मनुष्य की दशा ठीक वैसी ही हो जाती है जैसी कि किसी फुटबाल की जो कि एक जगह से लात खाकर दूसरी और दूसरी से तीसरी जगह चली जाती है।
इसलिए आध्यात्मिक व्यक्तियों को पर-अवगुण अन्वेषण करते रहने और दूसरों को तीर के समान तीखी बातों के मारने से चुप रहना अच्छा है। जहाँ तक हो सके मुंह की अपेक्षा आँखों से काम लेना चाहिए।