वाणी विज्ञान

October 1943

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(श्री द्वारिका प्रसाद भट्ट, चयियानी)

अधिकाँश व्यक्ति यही आशा करते है कि मेरी बातों को सभी बिना तर्क के स्वीकार कर लें और ऐसा न होने पर या तो वह दुराग्रह पर उतर आते है अथवा संताप करके मौन धारण कर लेते हैं और द्वेष भाव को पोषित करके बदले या अप्रतिष्ठा की ताड़ में रहते हैं। परन्तु जो सत्यनिष्ठ हैं, वे एकान्त में विचार कर पवित्र भावों को स्थान देते है और ऐसों की ही आत्मा मुक्त पथ की अनुगामिनी हो सकती है। बहुत से व्यक्ति कलह के भय से तर्क करना नापसन्द करते हैं, सम्भवतः यही उक्ति झूठे को प्रोत्साहित करके समाज के अन्दर निन्दित घटनाओं का कर्ता बना देती है।

‘मूकता’ एक प्रकार से विरोधी को स्वीकृति देना है, कहा भी हैः- “खामोशी नीम रजास्त” यह वाणी का संयम नहीं, इसे तो मूर्खता छिपाने का एक गुण कहा जाता है। वास्तव में आवश्यकता इस बात की है कि हम जो कुछ कहें उसे तात्कालिक क्रिया द्वारा सोचते भी जाएं कि यह शब्द काव्यमय के अतिरिक्त कर्तव्यमय भी हों। जब तक सक्रियता का आभास न होगा तब तक वाणी का प्रभाव निरर्थक रहेगा।

कुछ लोग औरों से न बोलने में ही अपनी शान समझते हैं परन्तु मन ही मन इस फिक्र में लगे रहते हैं कि कोई हम से बोले, गो कि ऐसे लोग मुँह, आँख, हाथ आदि के इशारों से काम अधिक लेते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि मानसिक शक्तियों को अधिक उत्तेजित रहना पड़ता है और शरीर पर विषाक्त प्रभाव पड़ने से स्वास्थ्य क्षीण होता रहता है। ऐसे व्यक्ति हंसमुख नहीं होते और यदि हंसते भी हैं तो झूठी हंसी। फलतः क्रूर स्वभाव हो जाता है। इस दशा में वाणी और दृष्टि का संतुलन चलता रहता है कि उसे वैज्ञानिक दृष्टि में एक ही वस्तु या एक ही उद्गम स्वीकार किया जा सकता है। प्रेम, भय, घृणा क्रोधादि का प्रभाव शीघ्र प्रकट हो जाता है। परन्तु इन सब आदि का प्रतिघात केवल एक अस्त्र से किया जा सकता है। वह है “वाणी का संयम।” वास्तव में यदि मनुष्य एक आदर्श पुरुष बनने चले तो प्रथम अपने शब्दों को इतना वश में कर ले कि किसी को रोष प्रकट करने का मौका ही न मिले और शब्दों का प्रकाशन किसी व्यक्ति पर तभी करे जब वह शान्त और एकान्त हो।

सभा समाज में भाषण करने का उद्देश्य श्रोता का ज्ञान लाभ करना, उनका पथ प्रदर्शन करना हो सकता है। इसमें वे ही लोग सफल हो सकते हैं, जिन में निस्वार्थता का अंश अधिक है, जो निष्कपट और चरित्रवान हैं। किसी सिद्धांत पर चलने के लिए दूसरों से उसी का कहना ठीक है जो खुद उस पर चलता है, जिसके कार्य और भाषण में अन्तर हो, उसका दूसरों पर कहने लायक प्रभाव नहीं हो सकता।

कुछ व्यक्ति मजाक पसन्द होते हैं और अकाल इसे प्रयोग करके उपहासास्पद भी बन जाते हैं। इसमें यदि संयम से काम लिया जाए तो यह स्वास्थ्य वर्धक अवश्य है, परन्तु मजाक का एक पर्यायवाची शब्द आलोचना है। यदि इसके परे कटु आलोचना है तो संघर्ष भी है। चाहे जो कुछ हो प्रयोक्ता की वाणी का वैज्ञानिक असर तब पड़ता है जब वह स्वयं चरित्र का जादू रखता हो और सामयिक प्रयोग कर सकता हो।


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