दुःखों का स्वागत कीजिये।

October 1943

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(श्री प्रेमनारायण जी पाण्डेय, ‘प्रेम’ कानपुर)

दुःख से लोग बहुत डरते हैं और चाहते है कि वह न आवे, फिर भी न चाहते हुए भी वह आ ही जाता है, इसमें महान ईश्वरीय प्रयोजन है। मनुष्य के अहंकार और दुर्भावों का शमन शोधन करने के लिए दुःख का आगमन ऐसी रामबाण औषधि की तरह साबित होता है जो पीने में कड़वी होते हुए भी व्याधि का नाश कर डालती है। जब नाना प्रकार की यंत्रणाएं, घोर दुःख, संकटों का अपार समूह उमड़ता चला आता है और बाहुबल कुछ काम नहीं करता, शक्तियाँ असमर्थ हो जाती हैं, तब मनुष्य सोचता है कि मुझसे भी ऊँची कोई शक्ति मौजूद है और उस शक्ति का विधान इतना प्रबल है जिसे मैं तोड़ नहीं सकता।

नास्तिकता से आस्तिकता की ओर, अधर्म से धर्म की ओर, अहंकार से नम्रता की ओर ले चलने की क्षमता दुःखों में है। जो मनुष्य हजार उपदेशों से भी कुपथ पर चलने से बाज नहीं आते थे वे विपत्ति की एक करारी ठोकर खाकर तिलमिला गये और ठीक रास्ते पर आ गये। विपत्ति में ईश्वर का स्मरण आता है और अधर्म के दुखद परिणामों को देखकर सुपथ पर चलने की इच्छा होती है। कष्टों की खराद पर घिसे जाने के उपरान्त मनुष्य की बुद्धि, सावधानी, क्रियाशीलता सभी तेज हो जाती हैं। संसार में जितने महापुरुष हुए हैं, वे विपत्तियों की खराद पर खूब रगड़-रगड़ कर घिसे गये हैं तब उनका उज्ज्वल स्वरूप दुनिया को दिखाई पड़ा हैं।

विपत्ति से डरने की कोई बात नहीं है, कष्टों में ऐसा कोई तथ्य नहीं है जो अन्ततः हानिकर सिद्ध हो। एक पहुँचे हुए ईश्वर भक्त का कहना है कि “ईश्वर जिसे अपनी शरण में लेना चाहते हैं उसके पास दुख भेजते हैं ताकि वह मोह को छोड़कर प्रेम के, भक्ति के मार्ग पर पदार्पण करे।”


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