विषयों में रमणीयता नहीं है।

October 1943

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(श्री रामकरणसिंह जी वैद्य, जफरापुर)

विषयों की ओर चित्त वृत्तियों के आकर्षित होने में सबसे पहला कारण उनमें रमणीयता का बोध है। विषयों में रमणीयता का भास बुद्धि के विपर्यय में होता है। बुद्धि के विपर्यय में अज्ञान सम्भूत अविद्या प्रधान कारण है। इस अविज्ञा से ही हमें असुन्दर में सुन्दर बुद्धि, अनित्य में नित्य बुद्धि, दुःख में सुख बुद्धि, अपवित्र में पवित्र बुद्धि, प्रेम हीनता में प्रेम बुद्धि और असत में सत बुद्धि हो रही है। उल्लू की भाँति रात में दिवस और दिवस में रात्रि, इस अविद्या से ही दीखता है। इसी से हमें अस्थि चर्मसार शरीर और तत्सम्बन्धीय तुच्छ पदार्थों में रमणीय बुद्धि हो रही है। मनुष्य जिस विषय का निरंतर चिन्तन करता है उसी में उसकी समीचीन बुद्धि हो जाती है। यह समीचीनता ही रमणीयता के रूप में परिवर्तित होकर हमारे मन को आकर्षित करती रहती है। अब विचारना चाहिए कि विषयों में वास्तव में रमणीयता है या नहीं और यदि नहीं है तो रमणीयता क्यों भासती है?

विचार किया जाए तो वास्तव में विषयों में रमणीयता बिल्कुल नहीं है। जो शरीर हमें सबसे अधिक सुन्दर प्रतीत होता है, उसमें क्या है, वह किन पदार्थों से बना है। रस, रक्त, माँस, मेद, हड्डी, मज्जा, चर्म, कफ, विष्ठा, मूत्र आदि पदार्थों से भरे इस ढांचे में कौन सी वस्तु रमणीय और आकर्षक है। अलग-अलग देखने पर सभी चीजें घृणास्पद प्रतीत होती हैं। यही हाल और सब वस्तुओं का है। वास्तव में रमणीयता, किसी (वस्तु) चीज में नहीं होती, वह कल्पना में रहती है। कल्पना ही रूढ़ी बनकर तदनुसार धारणा कराने में प्रधान कारण होती है।

हम लोगों को जहाँ गौर वर्ण अपनी ओर आकर्षित करता है, वहाँ हब्शियों को काली सूरत ही रमणीय प्रतीत होती है, चीन में कुछ समय पूर्व स्त्रियों के छोटे पैरों में लोगों की रमणीय बुद्धि थी। वहाँ लड़कियों को बचपन से ही लोहे की जूतियाँ पहना दी जाती थीं, जिससे उनके पैर बढ़ने नहीं पाते थे। यद्यपि इससे उन्हें चलने में बड़ी तकलीफ होती थी, परन्तु रमणीय बुद्धि से बाध्य होकर वे प्रसन्नतापूर्वक ऐसा करती थीं। मारवाड़ी स्त्रियाँ विचित्र गहने-कपड़ों के भारी बोझ से कष्ट सहन करने पर भी उन्हें पहनकर अपने को सुन्दर समझती हैं, पर गुजरात की सादी पोशाक धारण करने वाली स्त्रियाँ उसे देखकर हँसती है। ठीक इससे विपरीत मनोवृत्ति मारवाड़ी बहनों की गुजराती बहनों की वेशभूषा के प्रति होती है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि रमणीयता किसी विषय में नहीं है, बल्कि हमारे मन की कल्पना में है। हमने ही विषयों की सुन्दरता की कल्पना कर ली है।

नश्वर पदार्थों और इन्द्रिय-भोगों में रमणीयता नहीं हैं। हमने उनमें काल्पनिक रुचि उत्पन्न कर ली है जो क्षण-क्षण पर टूटती और असत्य सिद्ध होती रहती है। वास्तविक सौंदर्य तो शाश्वत और सत्य में है। आत्मा में परमात्मा में ही वास्तविक सुख है और विवेक द्वारा कर्म साधना से उसे प्राप्त किया जा सकता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि विषयों में रमणीयता नहीं वरन् आत्मा में है। जो वस्तु जहाँ है वह वहीं से प्राप्त हो सकती है।


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