साकार, निराकार और उसकी उपासना

October 1943

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(श्री रतनचंद जैन, गोटे गाँव)

जिसे हम साकार कहते हैं वह केवल निराकार का प्रतिबिम्ब है। यहाँ भौतिक दृष्टि से लीजिए, जब एक कुम्हार घड़ा बनाता है, तब इसके पहले वह अपने मस्तिष्क में उसकी सुन्दरता का रूप खींच लेता है। बिना मानसिक जगत में मकान का नक्शा खींच कदापि मकान खड़ा नहीं किया जा सकता। ऐसी हालत में किसी भी कार्य का रूप होता है, वह रूप, वह कल्पना, निराकार स्वरूप कहलाता है। सृष्टि की उत्पत्ति में प्रथम ब्रह्मा का विष्णु का अवतार इसके पश्चात् साकार होना और फिर ब्रह्मा पर राक्षसों का प्रहार होने पर विष्णु का साकार प्रगट होना यही अर्थ होता है कि वह निराकार विष्णु उस महान शक्ति की कल्पना ही रही होगी क्योंकि आखिरकार सृष्टि उत्पन्न के पहले विष्णु का अवतार किसका पालन करने को हुआ था? इसी तरह इस्लाम मजहब कहता है कि खुदा ने फरिश्ता भेजकर आदम, और पीछे हव्वा को पैदा किया। अब सोचिये कि यह फरिश्ता कौन था। मेरी समझ के मुताबिक कल्पना ही हो सकती है, वेद भी कहता है कि जब उस आद्य बीज शक्ति ने अथवा यूँ कहिये ब्रह्म ने इच्छा की कि, “एकोहं बहुस्याम” एक से अनेक होऊँ तब उसने यह सृष्टि बनाई, इनका निराकार ब्रह्मा इच्छा ही को सूचित कराता है, चूँकि मेरा जैन धर्म इसे प्रकृति की रचना कहता है तब भी यह प्रश्न आवेगा कि प्रकृति नामक तत्व कहाँ से आया? अन्त में वहाँ भी हम इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि कोई इच्छा करने वाला भी होगा। ईसा धर्म भी फरिश्ता का आधार बताते हैं, तब यहाँ बहुमत से यह साबित होता है कि संसार की बनावट की सृष्टि की उत्पत्ति की कल्पना पहले ऐसी ही बनी होगी जैसा रूप हमें आज दृष्टिगोचर हो रहा है।

परलोक में मनुष्य कर मरने के बाद क्या होता है, इस विषय पर नजर डालने से मालूम होता है कि मनुष्य अपना सूक्ष्म शरीर साथ ले जाता है और स्वयं अपनी इच्छानुसार सूक्ष्म शरीर को लेकर जन्म ग्रहण कर लेता है। आप यह न सोच बैठना कि मरने के समय अच्छी कल्पना कर ली जावे तो उत्तम जन्म धारण होगा, यह गलत है क्योंकि हमारी इच्छा का सम्बन्ध कर्मों से बना है और कर्म के फल के मूजब ही इच्छा प्रबल होती है, इसलिये तो यह धर्म, शास्त्र, मन्दिर, मूर्ति स्थापित कर दिये हैं और साकार रूप दे दिया है और ठीक भी है क्योंकि बालक जब स्कूल जाता है तब उसे वर्णमाला का बोध कराने के लिये उसकी मूर्ति बताना जरूरी है, किन्तु जब वह उसे मस्तिष्क में उतार लेता है तब उसे चित्र मूर्ति के परिचय की जरूरत नहीं रह जाती। इसी तरह ये मन्दिर स्कूल हैं, जहाँ हम साकार मूर्ति द्वारा उस निराकार की ओर खिंचते हैं। यह हो सकता है कि मनुष्य जीवन भर वर्णमाला की मूर्ति देखे और उसको हृदयंगम न करे तो यह गलती खुद की है। यदि आप यह सोचें कि हजारों वर्षों में भी संसार निराकार को ग्रहण न कर सका तो मूर्ति की सार्थकता रही कहाँ? तो इसका उत्तर यही हो सकता है कि स्कूल में नये विद्यार्थी भी तो आते रहते हैं, उन्हें तो है। तब यह स्पष्ट सा हो जाता है कि साकार, निराकार यह दोनों वस्तु विशेष की अवस्थायें हैं। आप अपने को लीजिये। जब आप धूप में चलते है तो आपकी छाया आपके साथ रहती है। आप जब शीशे में देखते है तो आपकी छाया अन्दर दीखने लगती है। आखिर सोचिये कि साकार की यह निराकार छाया नहीं तो क्या है। जिस तरह उत्थान से पतन, स्वाभाविक क्रिया है। गेंद उछालने पर वापिस ही लौटती है उसी तरह आत्मा निराकार से साकार हुआ है साकार से निराकार होता है।

जिस काम शक्ति से प्रेम आलिंगन करते हैं, उससे प्रभु का स्पर्श भी होता है। जिस क्रोध से हम अपनी शारीरिक शक्ति का नाश करते हैं, उस शक्ति से दुर्बुद्धि का नाश भी कर सकते हैं। जिस अहंकार से हम पतन को पहुँचते हैं, वह अहंकार हमको लक्ष्य तक पहुँचाने में भी सहायक हो सकता है। जिस लोभ संवरण से हम स्वार्थ में अंधे बनकर मनमानी करते हैं, उसी लोभ-शक्ति से हम विवेक रूपी भण्डार भी भर सकते हैं, अतएव इन सब शक्तियों को सत्कार्य में लगा दीजिये, यही साकार रूप है और यही साकार उपासना है।

निराकार हमारा वह स्वरूप है, जो चेतन, शुद्ध बुद्ध, निर्विकल्प रूप आत्मा है, जो तमाम संकल्प विकल्पों से परे है, यही उसका यथार्थ रूप भी है। कहा भी है, अहं ब्रह्मास्मि। पर वह रूप यथार्थ बन जाने का है। केवल मौखिक सिद्धान्तों का नहीं। इसीलिये इसका निरूपण ज्यादा न करके मैं उस ठोस कार्य को लेता हूँ जिसके बिना सब ज्ञान-विज्ञान अधूरा रह जाता है। केवल बहस मुबाहिसे करते-करते खूब समय हुआ, अब कुछ व्यवहार में लीजिये। चरित्र के बिना ज्ञानी का ज्ञान फिजूल है। कर्मों की श्रृंखला इतनी मजबूत है जिसे काटने की शक्ति कर्म ही रखते हैं। जिस तरह गरम लोहे को ठंडा लोहा काटता है उसी तरह तामस वृत्तियाँ सात्विक वृत्ति से मिटाई जा सकती हैं।

कहना पड़ता है कि चरित्र मुख्य है जिसे हम व्यवहार रूप कहते हैं संभव है। उक्त लेख में यह भ्रम पड़ गया हो कि पूजन या श्रद्धा साकार की की जावे या निराकार की? तो मैं अपनी व्यक्तिगत राय के मुताबिक कहूँगा कि हम मूर्तिवान हैं, हमारा रूप साकार है, प्रत्येक पदार्थ जब अपनी समान शक्ति को ग्रहण किये है तब आप भी साकार प्रतिबिम्ब की पूजा, उपासना, योग समाधि अपनी श्रद्धा के माफिक करते जाइये, यही साकार भक्ति हमें ज्ञान, विवेक, दर्शन, चरित्र बल स्वयं देती चली जायेगी।


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