अविचल हो मानव पथ तेरा

December 1943

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(श्री दिनकर प्रसाद शुक्ल विशारद् गोहद)

(1)

क्या ग्रीष्म और बरसात तुझे।

क्या हिम का प्रबल प्रपात तुझे॥

तू निश्चल तेरी गति निश्चल-

क्या तम या उल्कापात तुझे॥

अवसान कहाँ, आरम्भ सदा-

इति कहाँ निरन्तर अथ तेरा!

निर्भय है मानव पथ तेरा॥

(2)

गिरि श्रृंग समुन्नत, वन महान।

सर सरि दह निर्जन या श्मशान॥

कर समाक्रान्त निर्भय नितान्त-

अर्णव विशाल या आसमान॥

हो आत्म ज्योति से ज्योतित तू-

जग मग हो सुयश अकथ तेरा।

निश्चित है मानव पथ तेरा॥

(3)

दृढ़ता रख कोई भूल न हो।

साहस रख प्रभु प्रतिकूल न हो॥

शूलों की क्या चिन्ता? पर पद-

के नीचे कोई फूल न हो॥

दुःख जाये करुण हृदय न कहीं-

मन्तव्य रहे निर्भय तेरा।

अविचल है मानव पथ तेरा॥


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