(श्री दिनकर प्रसाद शुक्ल विशारद् गोहद)
(1)
क्या ग्रीष्म और बरसात तुझे।
क्या हिम का प्रबल प्रपात तुझे॥
तू निश्चल तेरी गति निश्चल-
क्या तम या उल्कापात तुझे॥
अवसान कहाँ, आरम्भ सदा-
इति कहाँ निरन्तर अथ तेरा!
निर्भय है मानव पथ तेरा॥
(2)
गिरि श्रृंग समुन्नत, वन महान।
सर सरि दह निर्जन या श्मशान॥
कर समाक्रान्त निर्भय नितान्त-
अर्णव विशाल या आसमान॥
हो आत्म ज्योति से ज्योतित तू-
जग मग हो सुयश अकथ तेरा।
निश्चित है मानव पथ तेरा॥
(3)
दृढ़ता रख कोई भूल न हो।
साहस रख प्रभु प्रतिकूल न हो॥
शूलों की क्या चिन्ता? पर पद-
के नीचे कोई फूल न हो॥
दुःख जाये करुण हृदय न कहीं-
मन्तव्य रहे निर्भय तेरा।
अविचल है मानव पथ तेरा॥