नियमित अभ्यास

December 1943

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(श्री शेल्डन लेविट एम.डी.)

मुझे असंख्य ऐसे मनुष्यों से मिलने का अवसर प्राप्त होता है जो कहते हैं कि हमारा सारा समय अपने व्यावसायिक और निजी जीवन में खर्च हो जाता है और इतनी फुरसत नहीं रहती कि आध्यात्मिक साधना के लिए कुछ समय निकाल सकें। परन्तु मैं देखता हूँ कि यह उसकी बहानेबाजी है।

मैंने अब से बीस वर्ष पूर्व शरीर और मन को उन्नतिशील बनाने के सम्बन्ध में कुछ लेख लिखने आरम्भ किये थे। उन लेखों से दूसरों को कितना लाभ हुआ यह मुझे मालूम नहीं पर मुझे स्वयं इससे बहुत लाभ हुआ। उन दिनों मेरे अस्पताल में रोगियों की भीड़ लगी रहती थी। फाड़ चीड़ का काम इतना बढ़ गया था कि रात को बारह बजे तक जुटा रहना पड़ता था। किन्तु चाहे जितनी देर हो जाये, मैं अपना रात का अभ्यास न छोड़ता। बहुत रात व्यतीत हो जाने पर भी मैंने सदैव अपनी रात्रिकालीन साधना को जारी रखा। आज जो कुछ प्रतिभा मेरे अन्दर है उसका कारण वही नियमित साधना तो है। यदि मैं निष्ठापूर्वक उपासना न करता तो मैं आज वह न हुआ होता जैसा कि इस समय हूँ।

कई विद्वान और सम्माननीय व्यक्ति भी समय की पाबंदी में हिला हवाली करते हैं फिर उन ढ़िल-मिल स्वभाव के लोगों के लिए तो कहा ही क्या जाए जो जरा सी कठिनाई आने पर अनियमित हो जाते हैं और तनिक सा बहाना मिलने पर हाथ-पाँव फुलाकर बैठ जाते हैं। फलस्वरूप उनका पिछला प्रयत्न भी बेकार चला जाता है।

मेरे शिष्यों में से जब कोई मुझे लिखता है कि बहुत दिन तक आपकी बताई हुई शिक्षा पर अमल करने से भी कुछ लाभ नहीं हुआ, तब मैं समझता हूँ कि उसने नियमित रूप से और मन लगाकर अभ्यास नहीं किया है। सच बात यह है कि किसी अभ्यास को नियमित रूप से करते रहने से वह जीवन का एक अंग बन जाता है। जिस प्रकार खाया हुआ अन्न शरीर का एक भाग बन जाता है, ठीक उसी प्रकार निष्ठा और नियम के साथ किये हुये अभ्यास हमारे जीवन के सूक्ष्म तत्वों के साथ पूरी तरह घुल-मिल जाते हैं। भले-बुरे अन्नों का शरीर पर प्रभाव पड़ता है, वैसे ही भले-बुरे साधनों का भी मन पर असर पड़ता है और वह आन्तरिक चेतना का एक अंग बन जाते हैं।

चाहे कोई भी साधन क्यों न हो, उसे करने से पूर्व इस बात का दृढ़ निश्चय कर लो कि मैं इसकी निश्चित विधि के साथ ठीक समय पर और नियमित रूप से करूंगा! विश्वास के साथ किये हुये छोटे-छोटे साधन बड़े अनुष्ठानों से अधिक फलदायक होते हैं। यदि तुम नियमितता को सहचर न बना सको तो क्या फायदा कि अपना समय बिगाड़ो और किसी उत्तम अभ्यास को बदनाम करो।

साँसारिक कार्यों में दिन-रात जुटे रहकर मनुष्य अपनी शक्तियों को व्यय किया करता है। एक गौ का सारा दूध यदि ग्वाला दुहे ले तो वह बेचारी अपने बछड़े को कुछ न पिला सकेगी। जीवन के विकट संघर्ष में हमारा सारा सत्व व्यय हो जाता है और आध्यात्मिक चेतना का पोषण करने के लिए कुछ नहीं बचता। तद्नुसार आत्म-शक्ति क्षीण होती जाती है। फल यह होता है कि मृत-प्रायः आत्मशक्ति के ऊपर अनेक भौतिक विकारों का आधिपत्य हो जाता है और मनुष्य उन सद्गुणों से वंचित रह जाता है जो ईश्वरीय उपहार की तरह उसे प्राप्त होते हैं।

जैसे भोजन करना और पानी पीना आवश्यक है वैसे ही भजन, प्रार्थना और आत्म-चिन्तन द्वारा मानसिक खुराक लेनी चाहिए। नियमितता के साथ अभ्यास करने से उसका ठीक फल मिलता है। मेरा इतना पुराना अनुभव इस बात का साक्षी है कि एक भी निष्ठावान व्यक्ति का परिश्रम व्यर्थ नहीं जाता।


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