“यज्ञं ये विश्वतोधारं सुविद्वाँसा वितेनिरे”
यजुर्वेद अध्याय 30
अर्थ- जो विश्व के आधार रूप सत्कर्म को फैलाते हैं, वे ही उत्तम विद्वान हैं।
पढ़े-लिखे लोगों की कमी नहीं, स्कूल कालेजों की शिक्षा समाप्त करने के बाद वे देखते हैं कि हमारी शारीरिक और मानसिक योग्यता संसार में कोई महत्वपूर्ण कार्य करने लायक नहीं रही, और न ऐसी हो रही है कि स्वतंत्र उद्योग द्वारा अपना तथा अपने परिवार का भरण पोषण कर सकें। योग्यता यदि रहती भी है तो साहस और आत्म विश्वास तो प्रायः चला ही जाता है जिससे एक ही काम उनके सामने रह जाता है, वह है- “चाकरी”। एक समय वह था कि अशिक्षित और अयोग्य होने के कारण जो व्यक्ति चाकरी पर निर्वाह करते थे, उन्हें शूद्र का निन्दनीय दर्जा समाज में मिलता था। कुलीन, संस्कारी, स्वाभिमानी और शिक्षित व्यक्ति के लिए यह एक लज्जा की बात समझी जाती थी कि वह गुलामी स्वीकार करे- पेट पालने के लिए शूद्रत्व ग्रहण करे। आज वह समय है कि एक जगह खाली होने की विज्ञप्ति प्रकाशित होते ही छः छः हजार अर्जियाँ पहुँचती हैं। क्लर्की का जीवन बिताने वाले चाकर उत्पन्न करना जिस शिक्षा का उद्देश्य हो, न तो वह शिक्षा है और जो नौकरी के लिए जगह-जगह दुत्कारे खाते फिरते हैं, न वे शिक्षित हैं। इन्हें ‘पढ़े गधे’ कहकर देश के दुर्भाग्य पर आँसू ही बहाये जा सकते हैं।
कोई बड़ी कक्षा उत्तीर्ण करने वाले को विद्वान नहीं कहा जा सकता। विद्वान वह है जिसे ज्ञान है, विवेक है। विद्या का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य का विवेक जागृत करना है। जिसे भले बुरे की परख आ गई, जो हित अनहित पहचानने लगा, जिसे सत्य असत्य का निर्णय करने की क्षमता उत्पन्न हो गई, वही विद्वान है। अक्षर ज्ञान से, पुस्तकें रटने से, कक्षा उत्तीर्ण करने से विद्या प्राप्त करना नहीं कहते। यह तो साक्षरता है, साक्षरता को विद्या नहीं कहते यह तो विद्या प्राप्त करने का एक साधन मात्र है। जिन्होंने विवेक जागृत कर लिया है, वे भले ही साक्षर न हों, फिर भी विद्वान ही कहे जावेंगे। सन्त कबीर, छत्रपति शिवाजी आदि अनेक महापुरुषों को निरक्षर कहा जाता है, इससे उनकी विद्या में कोई न्यूनता नहीं आती। जो लोग केवल पढ़े लिखे हैं किन्तु योग्यताओं का, सद्गुणों का, विचारकता का जिनमें अभाव है उन्हें वस्तुतः विद्वान नहीं समझना चाहिए।
‘उत्तम विद्वान’ कौन है ? इस प्रश्न के उत्तर में यजुर्वेद कहता है कि विश्व का आधार सत्कर्म के ऊपर है और उस सत्कर्म को जो फैलाता है, वही उत्तम विद्वान है। सचमुच इस विश्व का आधार सत्कर्मों के ऊपर है, जब तक मनुष्य सत्कर्मों के ऊपर टिका हुआ है, ठीक तरह अपने कर्तव्य का पालन करता है, ईमानदारी, भलमनसाहत, दया, प्रेम, उदारता, सेवा आदि सद्गुणों में परायण है, तभी तक वह मनुष्य है, और जब यह गुण निकलते रहते तो मनुष्य असुर हो जाता है। असुरों की वजह से यह विश्व वास्तविक विश्व नहीं रहता है, नरक बन जाता है। यह निश्चय है कि विश्व का आधार सत्कर्म है। जो उस सत्कर्म को, धर्म को, पुण्य परमार्थ को, बढ़ाते और दृढ़ करते हैं असल में वे ही धरणी धर हैं, वे ही उत्तम विद्वान हैं।
वेद पुकार कर कहता है किन्हें उत्तम विद्वानों, विश्व में सत्कर्म फैलाओ। ज्ञान का, विवेक का, सत्य का, सदाचार का, प्रचार करो, जिससे विश्व का आधार टूटने ने पावे, संसार की सुख-शाँति नष्ट न होने पावे। उत्तम विद्वानों का कर्तव्य है कि उदर पोषण को ही जीवन लक्ष न बनाकर संसार में सत्कर्मों का प्रचार करने का प्रयत्न करें। उनके ऊपर जनता का पथ-प्रदर्शन करने की बड़ी भारी जिम्मेदारी है। वेद यह आदेश करता है कि हे उत्तम विद्वानों! जनता को सत्कर्मों की ओर अग्रसर करो।