धर्म के नाम पर चित्र-विचित्र ये परम्पराएँ

November 1996

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धर्म का तात्पर्य शालीनता, सदाचरण, नीतिमत्ता एवं कर्तव्यपरायणता से है। यह प्रयोजन उच्चस्तरीय आस्थाओं के सहारे ही सधते हैं। पर विकृतियों एवं भ्राँतियों को क्या कहा जाय, जिनके धर्मक्षेत्र में प्रवेश पा जाने और गहरी जड़ें जमा लेने के कारण आज भी मानव समुदाय न्याय और औचित्य की तुलना में परम्पराओं से चिपके रहने के लिए ही बाधित है। इस वैज्ञानिक युग में भी जहाँ तर्क, तथ्य और प्रमाणों के आधार पर किसी चीज की वास्तविकता को जाँचा-परखा और कसौटी पर खरा उतरने के पश्चात् ही अपनाया जाता है, वहाँ धर्म के संबंध में ऐसी बात देखने को नहीं मिलती।

धर्मक्षेत्र में जितने मतभेद एवं मत-मतान्तर देखने सुनने में आते हैं, उतना ओर किसी विषय में शायद ही मिल सके। यह भेद अज्ञानियों में ही नहीं, समझदार और उन्नत-प्रगतिशील लोगों में भी देखने में आता है। हिन्दू गौ को पवित्र मानते और उसका एक रोम भी दूध के साथ पेट में चले जाने पर घोर पाप समझते हैं, वहाँ अन्य सम्प्रदाय वाले उसकी गाय को खुदा के नाम पर काटकर खा जाने में बड़ा पुण्य मानते हैं। ईसाई बिना पाप-पुण्य के झगड़े में पड़े नित्य ही उसके माँस को एक साधारण आहार की तरह ग्रहण करते हैं। यहूदी भगवान की उपासना करते समय मुँह के बल लेट जाते हैं, कैथोलिक ईसाई घुटनों के बल झुकते हैं, प्रोटेस्टेंट ईसाई कुर्सी पर बैठकर प्रार्थना करते हैं। मुसलमानों की नमाज में कई बार उठना-बैठना पड़ता है और हिन्दुओं की सर्वोच्च प्रार्थना वह है जिसमें साधक ध्यानमग्न होकर अचल हो जाय। यदि कहा जाय कि इन सब में एक ही उपासना विधि ठीक है और दूसरी अन्य सभी बेकार हैं, तो भी काम नहीं बनता। अन्य में भी अनेक व्यक्ति बड़े सन्त और त्यागी महात्मा हो गये हैं। धार्मिक क्षेत्र के इसी घोर वैम्य को देखकर मूर्धन्य लेखक एस. बैरिंग गोल्ड ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘ओरीजिन एण्ड डेवलपमेंट ऑफ रिलीजियस बिलीफ’ में लिखा है कि, “संसार में समस्त प्राचीन युगों से अगणित ऐसे धार्मिक विश्वास पाये गये हैं, जो एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं और जिनकी रस्मों तथा सिद्धान्तों में जमीन-आसमान का अन्तर है। एक प्रदेश में मन्दिर का पुजारी देवमूर्ति को मानव रक्त से लिप्त करता है दूसरे ही दिन अन्य धर्म का अनुयायी वहाँ आकर उसे तोड़ कर गन्दे कूड़े के ढेर में फेंक देता है। जिनको एक धर्म वाले भगवान मानते हैं, उन्हीं को दूसरे धर्मानुयायी शैतान कहते हैं। एक धर्म में धर्मयाजक भगवान की पूजा के उद्देश्य से बच्चों को अग्नि में डाल देता है और दूसरे धर्म वाला अनाथालय स्थापित करके उनकी रक्षा करता है और इसी को ईश्वर पूजा समझता है। एक धर्मवालों की देवमूर्ति सौंदर्य का आदर्श होती है और दूसरे की घोर वीभत्स और कुरूप। इंग्लैण्ड में प्रसव के समय जननी को एकान्त स्थान में रहना पड़ता है, पर अफ्रीका की ‘बास्क’ जाति में सन्तान होने पर पिता को कम्बलों से ढ़ककर अलग रखा जाता है और ‘लप्सी’ खिलाई जाती है। अधिकाँश देशों में माता-पिता की सेवा-सुश्रूषा करके उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति प्रकट की जाती है, पर कहीं-कहीं पर श्रद्धा की भावना से ही उनको कुल्हाड़े से काट दिया जाता है। अपनी माता के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के उद्देश्य से फिजी द्वीप का एक मूल निवासी उसके माँ को खौलाता है, जबकि यूरोपियन इसी उद्देश्य से उसकी एक सुन्दर समाधि बनवाता है।”

विभिन्न धर्मों और मतों के धार्मिक विश्वासों में अत्यधिक अन्तर होने का यह बहुत ही अल्प विवरण है। सुप्रसिद्ध विद्वान फ्रेजर ने इस संदर्भ में सोलह बड़े-बड़े खण्डों में ‘गोल्डन वो’ नामक महान ग्रंथ की रचना की है, परन्तु उसमें भी पृथ्वीतल पर बसने वाले अनगिनत फिर्कों, जातियों, सम्प्रदायों में पाये जाने वाली असंख्यों धार्मिक प्रथा-परम्पराओं एवं रस्मों का पूरण वर्णन नहीं किया जा सका है। ये सिद्धान्त, विश्वास और रस्मो-रिवाज हर तरह के हैं। इनमें निरर्थक, उपहासास्पद, भयंकर, कठोर व अश्लील प्रथाएँ भी हैं और श्रेष्ठ, भक्तिपूर्ण, मानवतायुक्त, विवेकयुक्त और दार्शनिकता के अनुकूल विधान भी जाये जाते हैं।

इन धार्मिक रीति-रिवाजों एवं प्रथा-परम्पराओं ने धीरे-धीरे कैसे हानिकारक और निकम्मे अन्धविश्वासों का रूप धारण कर लिया है, गम्भीरतापूर्वक इस पर विचार करने से चकित रह जाना पड़ जाता है। विद्वत् मनीषी डॉ0 लैग लिखते हैं कि एक बार उनने आस्ट्रेलिया के एक मूल निवासी से उसके किसी मृत सम्बन्धी का नाम पूछा। उसने मृतक के बाप का नाम, भाई का नाम, उसकी शक्ल-सूरत, चाल-ढाल, उसके साथियों के नाम आदि सब कुछ बता दिया, पर मृतक का नाम किसी प्रकार से उसकी जवान से नहीं निकला। इस सम्बन्ध में अन्य लोगों से पूछने पर पता लगा कि ये लोग मृतक का नाम इसलिए नहीं लेते कि ऐसा करने पर मृतात्मा कुपित हो उठेगी और उसका अहित करेगी। भारत में ऐसी कितनी ही मान्यताएँ हैं जो निरर्थक हैं। उदाहरण के लिए, अपने देश के गाँवों में जब कोई उल्लू बोल रहा हो तो उसके सामने किसी का नाम नहीं लिया जाता, क्योंकि लोगों के मन में यह भय घुसा होता है कि उस नाम को सुनकर उल्लू उसका उच्चारण करने लगेगा और इससे वह व्यक्ति बहुत शीघ्र मर जाएगा।

अपने देश में अब भी बहुत से लोग स्त्रियों के पर्दा त्याग करने के बहुत विरुद्ध हैं और जो लड़की विवाह-शादी के मामले में अपनी इच्छानुसार विवाह करने के लिए जोर देती है, उसे निर्लज्ज, कुलक्षणी आदि कहकर पुकारा जाता है, परन्तु उत्तरी अफ्रीका के ‘टौर्गस’ प्रदेश में पुरुष बुर्का डालकर रहते हैं और स्त्रियाँ खुले मुँह फिरती है। वहाँ पर स्त्रियाँ ही विवाह के लिए पुरुष ढूंढ़ती हैं, प्रेम प्रदर्शित करती हैं और उसे विवाह करके लाती हैं। ‘बिली’ नाम की जाति में कुमारी कन्याओं को मन्दिर के पुजारियों को दान कर दिया जाता है, जिनका वे उपभोग करते हैं। हमारे यहाँ दक्षिण भारत के मन्दिरों में प्रचलित ‘देवदासी’ प्रथा भी लगभग ऐसी ही है। कांगो में कुमारी कन्याओं का मनुष्याकार देव-मूर्ति के साथ संपर्क कराया जाता है। ‘बुदा नामक जाति के समस्त फिर्के वाले गाँव की चौपाल पर इकट्ठे होते हैं और उनका धर्म गुरु वहाँ चारों हाथ-पैर से चलता हुआ स्यार की बोली बोलता है और अन्य सब लोग उसकी नकल करते हैं। मलाया में जिस लड़की को कोई प्यार करता है, वह उसके पदचिह्न के स्थान की धूल का उठा लाता है और उसे आग पर गर्म करता है। उसका विश्वास होता है कि ऐसा करने से उसकी प्रेमिका का हृदय पिघलेगा और वह उसकी पत्नी बनने को राजी हो जाएगी। संसार के कुछ भागों में ऐसी भी प्रथाएँ हैं जिनमें फिर्के के ‘भगवान’ का ही बलिदान कर दिया जाता है। कुछ फिर्के वाले, यदि उनकी फसल नष्ट हो जाती है तो अपने राजा तथा पुरोहित को ही मार देते हैं। इस प्रकार विश्वभर में धर्म के नाम पर अगणित अंधविश्वास, हानिकारक ओर घृणित प्रथाएँ प्रचलित हैं। मानवता के उद्धार के लिए उनका हटाया, मिटाया जाना आवश्यक है।

किसी मजहब या सम्प्रदाय में तो भगवान के पुत्र, पौत्र, पत्नी आदि को भी सत्य माना जाता है, तो रूस, चीन जैसे साम्यवादी देशों में ईश्वर की गणना केवल एक ‘विश्व-नियम’ के रूप में की जाती है। एक धर्म वाला संगीत और वाद्य को जहाँ ईश प्रार्थना का आवश्यक अंग मानता है, वहीं दूसरा धर्मवाला इसे महापाप बतलाता है। बिहार के सखी सम्प्रदाय के अनुयायी ईश्वर भक्ति के लिए स्त्री की तरह रहना, यहाँ तक कि मासिक धर्म की भी नकल करना बहुत बड़ी साधना समझते हैं। इसका उद्देश्य यह होता है कि जिस प्रकार एक स़ी अपने पति से प्रेम करके उसमें तन्मय हो जाती है, उसी प्रकार ईश्वर में भी तन्मयता प्राप्त कर ली जाय।

इसी प्रकार देश में ऐसे ताँत्रिक सम्प्रदाय भी पाये जाते हैं जिनमें मद्यपान, मांसभक्षण, पशु-वध और मैथुन भी ‘धर्म’ का एक अंग माना जाता है। दूसरी और जैन धर्म जैसे मत हैं। जिनमें ब्रह्मचर्य पालन के लिए अठारह हजार प्रकार की अश्लीलता से बचने का उपदेश दिया गया है। अगर एक संप्रदाय किसी मानव शरीरधारी को ‘भगवान’ मानता है- जैसे बल्लभ सम्प्रदाय में, तो दूसरा सम्प्रदाय जैसे- वेदान्ती ईश्वर के अस्तित्व से ही इनकार करता है।

सभी मजहबों या धर्मों के भीतर इतने सम्प्रदाय या फिर्के पाये जाते हैं कि उनको गिनना भी कठिन है। लोगों को प्रायः रहस्यवाद में बड़ा आकर्षण जान पड़ता है। इसलिए सदा नये-नये गुरु उत्पन्न होते रहते हैं, साधना या उपासना की एक भिन्न विधि निकाल कर एक पृथक सम्प्रदाय स्थापित कर देते हैं। उनका एक नवीन मन्दिर या मठ बन जाता है। इस प्रकार के सैकड़ों-हजारों नये-नये मत और धार्मिक फिर्के जंगली एवं पिछड़े कहे जाने वाले प्रदेशों में ही नहीं, वरन्- योरोप, अफ्रीका, अमेरिका, एशिया के सभ्य एवं सुसंस्कृत देशों में भी पाये जाते हैं। ऐसी कोई पूजा-पद्धति नहीं है। जिसका आविष्कार और प्रचलन संसार में कहीं-न-कहीं न हो चुका हो। इस संबंध में कैसी भी विभिन्न अथवा असंगत उपासना पद्धति की कल्पना क्यों न की जाय, वह इस पृथ्वी पर किसी-न-किसी जगह अवश्य ही क्रिया रूप में होती मिल जाएगी।

उपरोक्त पंक्तियों में कहने का यह आशय यह नहीं है कि संसार में विभिन्न धर्मों का होना कोई अस्वाभाविक बात है या मनुष्य की गलती है। स्वामी विवेकानन्द के मत से तो यह और भी अच्छा होगा कि प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग धर्म हो, जिससे वह अपने पुरुषार्थ के आधार पर ईश्वर को शीघ्र प्राप्त कर सके। वस्तुतः यहाँ कहा यह जा रहा है कि जिस प्रकार जलवायु और देश भेद से मनुष्यों की भाषा और आकृति में अन्तर पड़ जाता है, उसी प्रकार परिस्थितियों एवं वातावरण की भिन्नता के कारण विभिन्न जातियों की संस्कृति में भी अन्तर हो सकता है। परन्तु ऐसी बातें जो प्रत्यक्ष में हानिकारक, क्रूरतापूर्ण और अशिष्टता सूचक हैं, किसी धर्म के नाम पर माननीय नहीं हो सकतीं। उदाहरण के लिए, अपने यहाँ प्रचलित कितने ही देवी-देवताओं मन्दिरों में होने वाले पशु-बलि उल्लेख कर सकते हैं। धर्म के नाम पर बकरी, मुर्गे, भैंसों आदि का काटना किसी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। यही बात अनेक धर्मों, फिर्को में प्रचलित अश्लीलता और नशेबाजी की प्रथाओं के संबंध में भी कहीं जा सकती है।

इस संदर्भ में जैसा कि मूर्धन्य मनीषी डॉ0 राधाकृष्णन ने कहा है- “किसी भी धर्म और सभ्यता की श्रेष्ठता के लिए उसमें सच्चाई, आत्मीयता और उदारता के गुणों का होना आवश्यक है। अब पुरोहितों द्वारा स्वार्थ-साधन के लिए केवल बाहरी पूजा-पाठ के दिन समाप्त हो गये। अब लोग धर्म में वास्तविकता के दर्शन करना चाहते हैं। वे जीवन की गहराई में उतरना चाहते हैं, उस पर्दे को हटा देना चाहते हैं जिसने ‘आदि-सत्य’ को छिपा रखा है और उसे जानना चाहते हैं जो जीवन के लिए, सत्य के लिए और न्याय के लिए आवश्यक है।”

मनुष्य को कुछ ऐसी कलाएँ भी जाननी चाहिए, जिससे आपत्तिकाल में भी अपना गुजारा कर सके। पाण्डवों का अनुभव उनके वनवास काल में काम आया। भीम ने रसोइये का, अर्जुन ने नर्तक का, द्रौपदी ने दासी का, इसी प्रकार अपने-अपने कौशल के अनुरूप विराट् नगर में काम प्राप्त कर लिये थे।

अब समय आ गया है जबकि विभिन्न धर्म-संप्रदायों में, फिर्क्रो में प्रचलित अगणित उल्टी-सीधी मान्यताओं, प्रथाओं को विवेक की कसौटी पर कसा जाय और तदुपरान्त ही उन्हें स्वीकार किया जाय। मनीषा का सामयिक उत्तरदायित्व है कि वह धर्म तत्व की आत्मा के प्रकाश को जिन भ्रांतियों, विकृतियों एवं मूढ़-मान्यताओं ने सदियों से घेर रखा हैं, उसके संबंध में यह बतायें कि मूलभूत प्रतिष्ठा के जो अनुरूप हैं, उन्हीं को मान्यता मिले और उन्हें ही अपनाया जाय। निरर्थक-निकम्पी प्रथाओं से पिण्ड छुड़ाया ही जाना चाहिए। धार्मिकता का तात्पर्य आदर्शों के प्रति आस्था, दृष्टिकोण की उत्कृष्टता, चरित्र की पवित्रता और व्यवहार की प्रखरता ही हो सकती है। जो इन रीति-मर्यादाओं को जितने अंश में अपनाता है, वह उसी अनुपात में धार्मिक है। इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए।

सृष्टि के कण-कण में समाहित परमात्म-सत्ता

कैवल्योपनिषद 20-21 में सर्व शक्तिमान परमात्मा-सत्ता के सम्बन्ध में उल्लेख है- ॐ अणोरणीयानहमेव तद्वन्महानहं ............. मम चित्सदाहम्। अर्थात्- मैं छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हूँ। इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिए। मैं ही शिव और ब्रह्मा का स्वरूप हूँ, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूँ। मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष है। वह शक्ति जिसके न हाथ हैं, न पैर, जिसके सम्बन्ध में चिन्तन किया जा सकता है, वह परब्रह्म मैं ही हूँ। मैं सर्वदा चित्त स्वरूप रहता हूँ। मैं सर्वदा चित्त स्वरूप रहता हूँ। मुझे कोई जान और समझ नहीं सकता । मैं बुद्धि के बिना ही सब कुछ जानने, स्थूल कानों के बिना सब कुछ सुनने और स्थूल आँखों के बिना सब कुछ देखने की सामर्थ्य रखता हूँ।

उपनिषद्कार की इस अनुभूति को साधकों, योगियों और तत्वदर्शियों ने अनेक प्रकार से निरूपित करके परमात्मा की उपस्थिति प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है। हमारी भूल यह है कि मनुष्य देह में धारण होने के कारण हमारी बुद्धि भी मानवीय हो गयी है अर्थात् संसार की प्रत्येक वस्तु को मानवीय लाभ, मानवीय स्वार्थ और यहाँ तक कि ईश्वर और सूक्ष्म दैवी शक्तियों को भी मानवीय स्थूलता से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं। इसीलिए संसार के रहस्य समझने में रहे जाते हैं।

वस्तुतः हमें अपने आपको एक बौद्धिक सत्ता मानकर विचार करना चाहिए। जिस दिन इस शरीर को सृष्टि के शेष प्राणियों के साथ बैठा देने की बुद्धि जाग्रत हो जाती है और अपने-अपने में कोई ऐसा प्रकाश कण अनुभव करने की सूक्ष्म दृष्टि आ जाती है, जो केवल इच्छा और संकल्प मात्र से सर्वत्र गमन कर सकता है। सुख-दुःख आदि की अनुभूति कर सकता है और उसी रूप में विश्व दर्शन कर सकता है। उस दिन परमात्मा को समझना सरल हो जाता है। अपने आपको, अपने जीवन लक्ष्य को भी समझना सरल हो जाता है।

उपनिषद्कार के उक्त भाष्य को समझने के लिए चलिये, सर्वप्रथम यह मान लें कि हम कोई शरीर नहीं वरन् एक कल्पना या विचार-शक्ति मात्र हैं। आइये, सर्वप्रथम परमात्मा के अणु स्वरूप का चिन्तन करें। क्या सचमुच कोई ऐसी सत्ता है, जो अणु प्रतीत हो पर उसमें ब्रह्माण्ड की सी चेतना सन्निहित हो?

भौतिक वैज्ञानिकों के अनुसार किसी तत्त्व के छोटे-से कण को परमाणु कहते हैं। इसमें उस तत्व के सभी गुण हैं, वे सभी लोहे के नन्हें से परमाणु में तुम्हें मिलेंगे। परमाणु पदार्थ की सबसे छोटी इकाई है। वह एक इंच के बीस करोड़वें भाग के बराबर होता है। दुनिया का सबसे बड़ा सूक्ष्मदर्शी यन्त्र भी परमाणु को अकेला नहीं देख सकता। परमाणु को तोल लेने लायक तराजू मनुष्य नहीं बना सका है, फिर भी वैज्ञानिकों ने जो जानकारियाँ उपलब्ध की हैं, वे असाधारण है।

यह तो हुई परमाणु-सत्ता की बात, जिसे अभी पूर्णतया जाना नहीं जा सका है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि उसे जानने के लिए तो उतनी ही सूक्ष्म चेतन शक्ति चाहिए, जो अनुभवों को लिखकर या बोलकर बता सके, जबकि भारतीय तत्वज्ञ कहते हैं कि वह अनुभूति इतनी विलक्षण और विशाल है कि जो मनुष्य उसे पा लेता है वह स्वयं भगवान् हो जाता है।

वैज्ञानिक अब उस ताकत को मानने को विवश हो रहे हैं। सन् 1967 में ‘द मिस्टीरियस यूनीवर्स’ नामक पुस्तक और ‘द न्यू बैक ग्राउण्ड ऑफ साइंस’ में सरजेम्स जीन्स ने लिखा है- “उन्नीसवीं शताब्दी के साइंस में पदार्थ और पदार्थ जगत के जो ऊँचे से ऊँचे सिद्धान्त समझे जाते थे, अब हम उनसे दूर होते चले जाएँगे। जो नई बातें हमें पता चली हैं, उनसे हम विवश हैं कि प्रारम्भ में शीघ्रता में आकर हमने जो धारण बना ली थी, उसे अब फिर से जाँचें। अब मालुम होता है कि जिस जड़ पदार्थ शाश्वत सत्य मानकर बैठे थे। वह गलत है, पदार्थ मन या आत्मा से पैदा हुआ है और उसी का जहूर (रूप) है।”

“मुझे विश्वास है कि आत्मा ही का हस्तान्तरण करती है। “ ये शब्द हरबर्ट स्पेन्सर और चार्ल्स डारविन के साथी एल्फ्रेड रसल वैलेस ने अपनी पुस्तक ‘ सोशल इनविरानमेंट्स एण्ड मॉरल प्रोग्रेस’ में लिखे हैं।

विश्वविख्यात भौतिकविज्ञानी एल्बर्ट आइन्स्टाइन लिखते हैं- “मैं परमात्मा को मानता हूँ। सृष्टि प्रकट है। मैं मानता हूँ कि प्रकृति में एक चेतनता काम कर रही है। विज्ञान के काम का आधार अब इसी विश्वास पर टिक रहा है कि यह संसार यों ही नहीं बन गया वरन् इसमें एक कम और उद्देश्य है, जो समझ और पहचान में आ सकता है। “

प्रसिद्ध यूरोपियन विज्ञानवेत्ता सर ओलिवर लाज ने ‘आत्मा और मृत्यु’ पर भाषण देते हुए सन् 1960 में ब्रिस्टल में कहा था- “इसमें संदेह नहीं कि विज्ञान अब एक नये क्षेत्र में प्रवेश करेगा और उसकी वास्तविकता जानने का प्रयत्न करेगा, पर यह सच है कि हम सब चेतन जगत में जी रहे हैं। यह चेतना शक्ति पदार्थ पर हावी है, पदार्थ उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । यदि कोई अत्यन्त शक्तिशाली सत्ता न होती, जो हमें पिता की तरह प्रेम करती है तो आज की भौतिक उपलब्धियां इतनी भयानक होतीं कि मनुष्य उसमें जीवित भी न रह पाता।”

वैज्ञानिक मनीषी सर ए. एस. एडिंगटन कहते हैं- “हम अब इस निष्कर्ष पर पहुँच गये है कि कोई असाधारण शक्ति कसम कर रही है, पर हम यह नहीं जानते कि वह क्या कर रही हैं। “ जे. बी. एस. हैल्डेन ने लिखा है- “ हम जिस संसार को एक मशीन समझ बैठे थे, वह आत्म-चेतना की दुनिया है। हम उसे अभी बहुत कम देख पाये हैं, जबकि असलियत वही है। पदार्थ और पदार्थ की शक्तियाँ कुछ नहीं है। असली तो मन और आत्मा ही है। “ इसी तरह से ‘द ग्रेट डिजाइन’ नामक पुस्तक में विश्व के 14 प्रख्यात विज्ञानाचार्यों ने एक सम्मिलित सम्मति प्रकट करते हुए लिखा है- “इस संसार को एक मशीन कहें, तो यह मानना पड़ेगा कि वह अनायास ही नहीं बन गयी वरन् पदार्थ से भी कोई सूक्ष्म मस्तिष्क और चेतना शक्ति पर्दे से उसका नियन्त्रण कर रही है।”

राबर्ट ए. मिल्लीकान ने लिखा है- “विकासवाद के सिद्धान्त से पता चलता है कि जिस तरह प्रकृति अपने गुणों और नियमों के अनुसार पदार्थ पैदा करती है, उससे विपरीत परमात्मा में वह शक्ति है कि वह अपनी इच्छा से ही सृष्टि-निर्माण में समर्थ है। प्रकृति बीज से सजातीय पौधा पैदा करती है। आम के बीज से इमली पैदा होने की शक्ति प्रकृति में नहीं है। पर तरह-तरह के प्राणी प्रकट करके परमात्मा ने अपना अस्तित्व और सर्वशक्तिमत्ता सिद्ध कर दी। मनुष्य के रूप में उसने अपने आपको भी प्रकट करके रख दिया।” आर्थर एच.काम्पटन ने भी बताया है-”मालुम होता है, हम अपने मस्तिष्क से अलग होकर भी सोच सकते हैं। ये अभी पूरी तरह से तो साबित नहीं है, पर मालुम ऐसा होता है कि मरने के बाद भी चेतनता नष्ट नहीं होता।”

वैज्ञानिकों के इन आशयों को पुष्ट करने वाले ऐसे आश्चर्यजनक प्रमाण भी हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि संसार का नियमन करने वाली सत्ता अत्यन्त सूक्ष्म और सचेतन है, उसकी शक्ति की सीमा से परे कुछ नहीं है। इस संदर्भ में विख्यात मन-शास्त्री डॉ0 नार्मन विन्सेन्ट पील न मरे हुए मनुष्यों की गतिविधियों का बड़ा सूक्ष्म अध्ययन किया। ‘ स्टे एलाइव आल योर लाइफ ‘ नामक पुस्तक में उन्होंने एक संस्मरण लिखा है कि एक मनुष्य मर रहा था, वह अर्धचेतनावस्था में था, जब उसकी आत्मा कुछ-कुछ इस संसार से भी संपर्क साध सकती थीं और नैसर्गिक जगत को भी देख रही थी, उसने बताया कि- “मैं बहुत आश्चर्यजनक ज्योति मधुर संगीत विस्फुटित हो रहा है।” स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि भारतीय तत्वदर्शन में ‘ऊँकार’ की ध्वनि वाला मधुर संगी भी बताया गया है।

पदार्थ को विस्फोट कर शक्ति उत्पन्न करने का विज्ञान सभी जान चुके हैं। एक पदार्थ को कूट करके दूसरे पदार्थ में बदल देने का वैज्ञानिक विधान है, पर एक सूक्ष्म विधान ऐसा भी पाया गया है, जिसमें किसी उपकरण के सहयोग के बिना केवल संकल्प या विचार-शक्ति के द्वारा वस्तुओं तक को अन्तर्धान करने की सत्यता पायी गयी है। एक घटना टैनेसी राज्य के नालटिन नामक स्थान की है। वहाँ डेविड लैंग नामक एक व्यक्ति रहता था। 26 सितम्बर, 1990 की सायंकाल उसने अपने आठ वर्षीय पुत्र जार्ज आर और ग्यारह वर्षीय सरा को खेलने के लिए खिलौने दिये और स्वयं उस मकान की ओर चल पड़ा जो उसी चरागाह के दूसरे सिरे पर बन रहा था। उसकी पत्नी बोली- “शीघ्र लौट आना, मुझे वस्तुएँ खरीदनी हैं, दुकानें बन्द होने से पहले बाजार चलना है।” डेविड लैंग न कहा-” अच्छी बात है, बस पाँच मिनट में वापस आता हूँ। इसके बाद वह मुश्किल से पाँच कदम ही चला था कि एकाएक जिस तरह चक्रवातों में फँसकर कोई तिनका अदृश्य हो जाता है, उसी प्रकार लैंग सबके देखते-देखते अंतर्धान हो गया। आस-पास की चप्पा-चप्पा भूमि, बिल तक छान डाले गये पर वहाँ डेविड की देह का छल्ला तक न दीखा। भूगर्भ विभाग के निरीक्षकों तक ने जाँच कर ली पर डेविड के जीवन के कहीं भी लक्षण दिखायी न दिये।

इस घटना के छह महीने बाद अप्रैल 1991 में डेविड लैंग के दो बच्चों ने देखा कि जहाँ से उनका पिता अंतर्धान हुआ था, उस स्थान के चारों ओर 15 फुट के घेरे में घास एकदम पीली पड़ गयी है। वे उस घेरे के पास चले गये। ग्यारह वर्षीय सरा ने पुकारा- पिताजी! तो उसे बहुत ही दर्द-भरी कमजोर आवाज में डेविड लैंग के ये शब्द कई बार सुनायी पड़े- “हाँ बिटिया, मुझे बचाओ, मुझे बचाओ।” इसके बाद आज तक वहाँ न कुछ सुनायी दिया, न दिखायी दिया। इस घटना से रहस्य का भले ही कुछ पता ने चले, पर एक ऐसी सत्ता का होना अवश्य प्रभावित हो जाता है जो किन्हीं सूक्ष्म शक्तियों द्वारा पदार्थ का लोप कर सकती है। यह घटनाएँ हमें यह मानने के लिए विवश देता है, वस्तुतः वह उतना ही नहीं है, वरन् उससे भी सूक्ष्म और विशाल है और उसका नियमन-नियन्त्रण किसी अदृश्य, चेतन, संकल्प स्वरूप, सर्वव्यापी व सर्वशक्तिमान सत्ता के द्वारा हो रही है। जिसे हमारे चर्मचक्षु देखने में असमर्थ हैं।

सब कुछ दूसरों के सहयोग से अर्जित कर, सामर्थ्य-सम्पदा अर्जित करने के बाद मनुष्य अनायास ही यह भूल जाता है कि किस उद्देश्य के लिए यह वैभव मिला था। कहाँ व किस प्रकार इसका सुनियोजन करना है, वैभव के मद में चूर होकर यह विस्मृत कर पतन के गर्त में गिरने वाले बहुसंख्य व्यक्ति समाज में देखे जा सकते हैं। इस संबंध में श्रीरामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों को एक कथा सुनाई।

दो मित्र थे। एक ही गाँव में पड़ोसी बनकर रहते थे। एक का नाम था आत्मा, दूसरे का काया। दोनों ने निश्चय किया, हम सदा मित्र बनकर रहेंगे। एक-दूसरे को ऊँचा उठाने में सहायक रहेंगे।

काया परदेश चला गया। वहाँ उसने व्यापार में बहुत धन कमाया और अमीरों की तरह रहने लगा।

आत्मा को समाचार मिला तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। मैत्री का ध्यान आया और साथ ही पुरानी शपथ का भी। सो वह उसका पता पूछकर चल पड़ा और काया के महल में जा पहुँचा।

गाँव के मित्र को उसने पहचान तो लिया, किन्तु साथ ही यह विचार उठा कि इसके लिए भी कुछ करना पड़ेगा। यह सोचकर उसने अपरिचित की सी मुद्रा बनाली और कहा- “मैं तुम्हें नहीं पहचानता। तुम कौन हो? किसलिए आये हो?”

आत्मा ने सोचा यह मद में अन्धा हो गया है, सो उसने इतना ही कहा- “मैंने सुना था कि तुम अंधे हो गये हो। अब मैंने प्रत्यक्ष स्थिति आँखों से देख व समझ ली। सो उल्टे पैर वापस लौट रहा हूँ।” काया को असमंजस भर हुआ।


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