पर्यावरण संरक्षण : हम सबका कर्त्तव्य

November 1996

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मनुष्य और पर्यावरण का परस्पर गहरा संबंध है। पर्यावरण यदि प्रदूषित हुआ, तो व्यक्ति अस्वस्थ होंगे और जन स्वास्थ्य को शत-प्रतिशत उपलब्ध कर सकना किसी भी प्रकार संभव न हो सकेगा। इसके विपरीत वह यदि सुरक्षित और संरक्षित रहा तो सम्पूर्ण स्वस्थता के लिए आकाश पाताल के कुलाबे मिलाने की जरूरत न पड़ेगी और थोड़े से प्रयास से ही वाँछित लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकेगा।

इन दिनों सम्पूर्ण विश्व में समग्र स्वस्थता के प्रति चेतना तो जगी है और उसकी प्राप्ति के लिए तरह-तरह के उपाय और उपचार भी हो रहे है; पर पर्यावरण को बचाये बिना इस प्रकार के प्रयास आधे, अधूरे और अधकचरे ही कहे जाएँगे। शरीर खूब स्वच्छ हो और वस्त्र मैले-कुचले बने रहें, तो इसे स्वास्थ्य -संवर्द्धन की दिशा में एकाँगी प्रयत्न ही कहना पड़ेगा। होना यह चाहिए कि स्वास्थ्य-संरक्षण के प्रति जितनी और जिस प्रकार की सतर्कता और तत्परता बरती जा रही है उससे भी कई गुनी अधिक जागरुकता हवा , पानी मिट्टी की सुरक्षा के प्रति बरती जाने की आवश्यकता है, तभी हम सही अर्थों में उस स्थिति को उपलब्ध कर सकेंगे, जिसे समग्र स्वस्थता की संज्ञा दी जा सके।

सम्प्रति न तो साँस लेने के लिए शुद्ध हवा है, न पीने को स्वच्छ जल, यहाँ तक कि मिट्टी भी विषैले रसायनों के कारण निरापद नहीं रही। ऐसी स्थिति में ध्यान अनायास प्राकृतिक वातावरण की ओर खिंच जाता है। अब तक वन्य प्रान्तर ही ऐसे क्षेत्र थे, जिन्हें इन सब से अछूता कहा जा सकता था; पर पर्यटकों की बढ़ती भीड़ ने इन्हें कहीं का न रखा। वन-पर्वत सभी धीरे-धीरे इसकी चपेट में आ रहे हैं। अन्यों की स्थिति तो फिर भी ठीक कही जा सकती है, पर जिस दिव्यता के लिए हिमालय को पहचाना और बखाना जाता था वह भी अब दयनीयता की कहानी कहने लगे हैं। हिमालय को देवात्मा कहा गया है इसके दो कारण हैं। वहाँ का वातावरण इतना शान्त, मनोहारी और रमणीक है कि जाकर फिर जन संकुल वातावरण में लौटने की इच्छा नहीं होती। यह स्थूल वातावरण में लौटने की इच्छा नहीं होती। यह स्थूल वातावरण की चर्चा हुई। वहाँ का सूक्ष्म वातावरण इतना प्राणवान, प्रखर और ऊर्जा से ओत-प्रोत है कि दृश्य-अदृश्य का यह अद्भुत समन्वय उसे ऐसी दिव्यता प्रदान करता है, जिसे ‘देवात्मा’ कहना ही उचित होगा। सूक्ष्म शरीरधारी तपस्वियों और स्थूल देहधारी योगियों की उपस्थिति के कारण भी वह देवात्मा कहलाने योग्य है। आरंभ में हिमालय का यह देवत्वयुक्त वातावरण ही लोगों को आकर्षित करता था। साधक स्तर के लोग बीच-बीच में थोड़े दिनों के लिए वहाँ जाकर निवास और साधना करते, फिर लौट आते। प्रकृति प्रेमी वहाँ जाकर निवास और साधना करते, फिर लौट आते। प्रकृतिप्रेमी वहाँ के चित्ताकर्षक सौंदर्य के कारण उस ओर की यात्रा करते और सप्ताह-दो-सप्ताह के पर्यटन के बाद वापिस आ जाते; किंतु 50 के दशक में एक तीसरे प्रकार के अभियान की शुरुआत हुई। जो हिमालय अब तक अपनी दिव्यता और सुन्दरता के कारण साधकों एवं सैलानियों को आकर्षित करता था, वही अब अपनी सर्वोच्चता के लिए पर्वतारोहियों के आकर्षण का केन्द्र बना। दुनिया की सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट यहीं है। कुछ साहसी किस्म के पर्वतारोही उस पर चढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर सके। इसी क्रम में सन् 1953 में न्यूजीलैण्ड के एडमंड हिलेरी और गोरखा तेनजिंग नोरगे ने सर्वप्रथम उस सर्वोच्च शिखर पर चढ़कर अपनी विजस-पताका फहरायी। इसके बाद से तो ऐसे अभियानों की मानों बाढ़-सी आ गयी। हर वर्ष कई-कई दल आरोहण के लिए प्रस्थान करते और सफल-असफल होकर लौट आते। अनेक इस प्रयास में कालकवलित भी हो जाते।

यहीं से हिमालय की दुर्दशा की शुरुआत हुई। आदमी की इन दिनों मानसिकता ऐसी बन गयी है कि वह जहाँ कहीं भी जाता या रहता है वहाँ के पर्यावरण से छेड़-छाड़ अवश्य करता है। यही इस पर्वतराज के साथ हुआ। जब पर्वतारोहण बड़े पैमाने पर आरंभ हुआ, तो पर्यावरण नष्ट होने लगा। यह स्वाभाविक है कि हिमालय जैसे पर्वत के एवरेस्ट जैसे दुर्गम शिखर की यात्रा के लिए कोई प्रयाण करेगा, तो उसके साथ वह सारे सामान और साधन भी होंगे, जो इस विषम परिस्थिति का सामना करने और जीवनरक्षा की दृष्टि से अभीष्ट और आवश्यक हों। उस उत्तुंग ऊँचाई में ऑक्सीजन की सिलेंडर भी होना चाहिए और मज्जा तक ठिठुराने वाली ठंड से बचने एवं गरम पेयों द्वारा शरीर की रक्षा करने के लिए स्टोव भी आवश्यक है। इसके अतिरिक्त गर्म कपड़े, कम्बल , स्वेटर, कोट, जूते, मोजे यह भी अभीष्ट हैं। बर्फीली हवाओं से बचने के लिए तम्बू और उन्हें गाड़ने वाले सामान भी चाहिए। बर्फ काटने वाली कुल्हाड़ी, जीवनरक्षक दवाएँ इनके अतिरिक्त अन्य कितनी ही नितान्त वस्तुओं की जरूरत पड़ती है, जो साथ रख ले जाना पड़ता है। इन सबको गट्ठर बाँधकर तो ले जाया नहीं जा सकता, इसके लिए बड़े-बड़े कार्टूनों कनस्तरों और डिब्बों की आवश्यकता पड़ती है। सारे सामान को इनमें पैकबन्द किया जाता है, फिर बड़ी बड़ी पॉलीथिन चादरों में उन्हें लपेटा जाता है, ताकि बारिश अथवा हिमपात से उनकी सुरक्षा की जा सके। इतना समान पर्वतारोही स्वयं लेकर यात्रा कर नहीं सकते। इन्हें ढोने के लिए मजदूर और जानवर चाहिए। बारह सदस्यों वाले दल के साथ औसतन 35-40 मजदूर और करीब इतने ही भारवाहक खच्चर अथवा पहाड़ी बकरे होते हैं। इन जानवरों को भी खुराक चाहिए, सो वे आस-पास की हरियाली का सफाया करते चलते हैं। बची-खुची कसर मजदूर पूरी करते हैं। उन्हें शीत निवारण के लिए गरमी चाहिए , अतः वे मार्ग में पड़ने वाले वृक्षों को काट डालते हैं । इसके अलावा जहाँ शिविर लगाया जाता है, वहाँ के वृक्ष-वनस्पतियाँ नष्ट हो जाते हैं।

यह उस क्षति की चर्चा हुई, जो पर्वतारोही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्यावरण को पहुँचाते हैं। इसका एक अन्य पहलू भी है। हिमालय के लिए सर्वाधिक खतरनाक यही सिद्ध हो रहा है। अभियान दल जब सफल-असफल होकर ऊँचे पर्वत शिखर से वापसी यात्रा करते हैं, तो उन्हें जिस सामान के बारे में ऐसा महसूस होता है कि अब यह उनके लिए आवश्यक और अनुपयोगी है, उन्हें भार से बचने के लिए वे वहीं चोटी पर अथवा मार्ग में छोड़ते चलते हैं। इस प्रकार पिछले 46 वर्षों में हिमालय एक विशाल ‘जंक यार्ड-कूड़ाघर’ बन गया है।

ऐसा अनुमान है कि एवरेस्ट मार्ग पर शिखर से ठीक पूर्व वाले शिविर-क्षेत्र में लगभग 80-85 हजार किलोग्राम कबाड़ पड़ा है। इनमें कनस्तर, डिब्बे, तम्बुओं के वारदाने खाली ऑक्सीजन सिलेंडर, पॉलीथिन बैग, कार्टून, पुलोवर, जैकेट, स्लीपिंग बैग, बर्फ हटाने वाले फावड़े , बर्फ काटने वाली कुल्हाड़ियाँ, रस्से, जीवनरक्षक और दर्द निवारक दवाइयों के पैकेट, व्हीस्की और रम की बोतलें प्रमुख हैं। पर्वतराज की दूसरी चोटियों के मार्ग पर भी इन कबाड़ों की कमी नहीं। स्वयं एवरेस्ट शिखर पर भी ऐसे कूड़े का बड़ा ढेर इकट्ठा हो गया है-ऐसा हिमालय पर्यावरण न्यास का कहना है। नेपाल सरकार ने अब इस ओर ध्यान देना आरंभ किया और प्रथम कदम के रूप में पर्वतारोहण की शुल्क दर 30 हजार डालर से बढ़ाकर 50 हजार डालर कर दी है। इससे भीड़-भाड़ में कुछ कमी तो अवश्य आयी है, किंतु फिर भी उनके प्रवाह को पूरी तरह रोक पाना इससे भी संभव न हो सका है। इसके अतिरिक्त उसने हिमालय सफाई अभियान के द्वारा बड़े पैमाने में कचरे वहाँ से हटाये गये ।

इस निमित्त भारत में भी एक न्यास की स्थापना की गई है, जिसका उद्देश्य विश्व स्तर पर हिमालय के पर्यावरण को सुरक्षित बनाये रखने के लिए जनचेतना जगाना है। इसके अतिरिक्त यह न्यास समय-समय पर सफाई अभियान भी आयोजित करता रहता है इसी अभियान के परिणामस्वरूप पिछले दिनों एक अमेरिका हाल वेंडल के नेतृत्व में एक सफाई दल का गठन किया गया । इस दल ने करीब 1700 किलोग्राम कूड़ा साफ किया, साथ ही नेपाल के पर्यटन मंत्रालय को इस बारे में एक विस्तृत रूपरेखा तैयार करके दी है, ताकि शेष बचे कूड़े को भी जल्दी से जल्दी हटाने का कार्य आरंभ किया जा सके।

समस्या का यह कोई वास्तविक और स्थायी हल नहीं है। यथार्थ समाधान तो तभी हो सकेगा, जब हर पर्वतारोही इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझे और उसे स्वच्छ , सुन्दर एवं असली रूप में बनाये रखने के लिए सचेष्ट बना रहे अन्यथा सिर्फ सफाई-अभियान के बल पर वहाँ के पर्यावरण को बचाये रख पाना संभव न हो सकेगा, कारण कि मनुष्य की यह सहज और स्वाभाविक वृत्ति है कि वह हर सुदर्शन लगने वाली चीज के साथ छेड़खानी करता है। कहीं कोई बहुत आकर्षक पुष्प खिला हुआ हो, तो वह उसे तोड़कर अपने साथ ले जाने के लिए मचलने लगता है। इस बात को इसकी बुद्धि नहीं सोच पाती कि इससे उपवन की कितनी शोभा बढ़ी है और कितने लोग यहाँ आकर शाँति एवं संतोष की अनुभूति करते हैं, पर स्वार्थी बुद्धि को यह कैसे समझाया जाय कि समष्टिपरक चिन्तन में ही उसकी अपनी भलाई निहित है, व्यष्टिवादी चिन्तन तो घोर स्वार्थपरता के अंधकूप में डुबो देता है।

इक्कीसवीं सदी को महाकाल ने उज्ज्वल भविष्य में मनुष्य का सिर्फ चिन्तन ही नहीं बदलेगा, वरन् वह वृत्तियाँ भी बदलेंगी, जो आज विश्व-समुदाय के लिए गहरे संकट खड़े कर रही हैं। तब मनुष्य मात्र अपने निजी स्वास्थ्य की ही चिंता न करेगा, अपितु उस दिशा में सोचने के लिए भी विवश होगा, जिससे सम्पूर्ण समुदाय के लिए समग्र स्वास्थ्य की प्राप्ति की जा सके। इस दिशा में उसका प्रथम कदम पर्यावरण की रक्षा होगा, कारण कि पर्यावरण और जन-स्वास्थ्य एक दूसरे से गहरे सम्बद्ध हैं और एक की रक्षा के बिना दूसरे की उपलब्धि किसी भी कीमत पर शक्य नहीं।


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