कहीं आप मृत सागर की तरह मुर्दे तो नहीं?

November 1996

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जीवित कौन? मृतक कौन, इस बारे में विचार करने पर ज्ञात होता है कि जीवितों और मृतकों में एक मूलभूत अन्तर है। एक अपनी सक्रियता, गतिशीलता और उपयोगिता के कारण प्रथक पहचाने जाते हैं, तो दूसरे अपनी निष्क्रियता और निर्जीवता के कारण चर्चित होते हैं। दोनों ही अपनी-अपनी विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध हैं, कारण कि दोनों दो चरम स्थितियाँ हैं। शरीर जब जन्मता है, तब भी उसकी कम चर्चा नहीं होती और जब अन्तिम यात्रा पर निकलता है, उस समय भी बढ़-चढ़कर उल्लेख होता है। यह दोनों अवस्थाएँ मनुष्य में भी हो सकती हैं और वस्तु में भी, समुद्र-सागर में भी ।

वस्तु मृतक कब मानी जाती है? शरीरशास्त्र की दृष्टि से विचार करें, तो वह पहले ही प्राणहीन है, इसलिए जड़ पदार्थों में उसकी गणना होती है, किन्तु उपयोगितावाद की दृष्टि से विचार करने पर यही कहना पड़ेगा कि जब तक वह उपयोगी है, तब तक जीवन्त है। उपयोगिता समाप्त होते ही वह मृतकों की श्रेणी में आ जाती है। इसलिए टेलीफोन एवं दूसरे यंत्र जब काम करना बन्द कर देते हैं, तो सामान्य रूप से यही कहते हैं कि वह ‘डेड’ पड़ गया, अर्थात् उसकी सक्रियता समाप्त हो गई और उपयोगिता की दृष्टि से निरुपयोगी हो गया।

मनुष्यों में भी जिन्दा और मुर्दा के दो वर्ग हैं। जीवित वे हैं, जिनमें उमंग हो, उत्साह हो, सक्रियता और क्रियाशीलता हो, जिनका चिन्तन क्रान्तिकारी और लोकोपयोगी हो, जिनका जीवन परमार्थ एवं पुरुषार्थ परायण हो वे सब इसी कोटि में आते हैं। जिस स्थान पर नदियाँ बहती और निर्झर प्रवाहित होते हैं, वहाँ दूर तक उनकी कल-कल ध्वनि सुनाई पड़ती है, किन्तु नाले में बहने जल का पता तो बगल से गुजरने वाले राहगीर तक को नहीं चल की लगभग इसी स्तर का अन्तर जीवन्त और मृतप्राय जीवन गुजारने वालों गुजारने वालों में हैं।

सागरों में एक मृत सागर भी है। मृत का इसलिए है कि जीवितों जैसा इसका स्वभाव नहीं जीवन्त जलाशयों में अनेक प्रकार की जीव-जन्तु, वनस्पतियाँ एवं शैवाल होते हैं, किन्तु इसमें इनका सर्वथा अभाव है। इतना ही नहीं, जो भी जलचर अथवा वनस्पतियाँ दूसरी सरिताओं से बहकर इसमें आते हैं, वह क्षणभर भी जिन्दा नहीं रह पाते और तत्काल मौत के शिकार होते हैं।

इसका कारण क्या है? वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके जल में जिस अनुपात में खनिज लवणों की अधिकता है। वही इसका प्रमुख हेतु है। वे बताते हैं कि जहाँ अन्य सागरों में इन लवणों की मात्रा केवल 3.5 प्रतिशत है, वहीं मृत सागर में इनका परिमाण 25 प्रतिशत से भी अधिक है। इन लवणों में सोडियम, कैल्शियम, पोटैशियम, जिप्सम एवं कितने ही प्रकार के ब्रोमाइड हैं। एक अनुमान के अनुसार इस सागर में अब भी लगभग 4 करोड़ टन नमक घुला हुआ है।

प्रचुर मात्रा में लवणों की विद्यमानता के कारण जल का घनत्व काफी बढ़ा-चढ़ा है। इसके जल का घनत्व 1.199 हैं, जो साधारण पानी की अपेक्षा 1.18 गुना अधिक है। इस असाधारण घनत्व के कारण कोई भी वस्तु इसमें डूबने की बजाय तैरने लगती है। यदि कोई व्यक्ति इसमें डूबकर आत्महत्या करना चाहे, तो सागर उसे ऐसा करने से रोकता है। कैल्शियम क्लोराइड की अधिकता के कारण यह पानी स्पर्श और रंग में एकदम तेल जैसा है।

मनुष्य में भी जब सतर्कता, प्रखरता, जागरुकता, परिश्रमशीलता, सेवा, सहिष्णुता एवं संवेदना जैसी विभूतियाँ बढ़ती हैं तो उसका व्यक्तित्व मृत सागर के जल की तरह वजनदार बन जाता है। इस स्थिति में न तो वह स्वयं बुरा करता है और न अपने सामने इसे होने देता है। सागर जल के समान इसे गुरुतर व्यक्तित्व कहेंगे।

इसमें प्रतिदिन करीब 6 मिलियन गैलन पानी जोर्डन व अन्य नदियों से आकर गिरता है। इसलिए पिछले 16 वर्षों में इसका जलस्तर लगभग 20 फुट ऊँचा उठ गया है। इस असामान्य बढ़ोत्तरी के कारण इसके कई टापू जलमग्न हो चुके हैं।

समुद्र तल से यह लगभग 1300 फुट नीचे स्थित है। इसकी गहराई यों तो असमान है, किन्तु इसके उतरी किनारे पर इसकी गहराई सर्वाधिक मापी गई है। यह करीब 1300 फुट हैं। गर्मियों में इसका तापमान 140 डिग्री फारेनहाइट एवं सर्दियों में 80 डिग्री फारेनहाइट हो जाता है।

इसका पूर्वी किनारा सागर तल से कुछ ऊँचा है, जबकि दक्षिणी छोर निकटवर्ती जंगल के कुछ भाग को अपने में डुबोये हुए है। इसके इस सिरे पर खनिज, कच्चा तेल एवं बिटुमिन का भारी भूमिगत भण्डार है।

यों कहने को तो यह मृत सागर है, लेकिन इसके बावजूद भी मूल्यवान है। हाथी जीवित होता है, तो उपयोगी तो होता ही है, किन्तु मरने के बाद भी वह बहुमूल्य बना रहता है। इसी प्रकार इस मृत सागर में इतने प्रकार के इतनी अधिक मात्रा में खनिज लवण हैं कि ‘डेड सी’ होने के बाद भी इसकी कीमत घटती नहीं है। इन सबके दोहन के लिए इसके तट पर कई तरह के कितने ही संयंत्र एवं कारखाने स्थापित किये गये हैं। जोर्डन के कलिया नामक नगर में सागर जल से पोटैशियम क्लोराइड प्राप्त करने का एक कारखाना सोडोम शहर के निकट बनाया गया है। इससे सागर जल द्वारा पोटाश प्राप्त करने के भी कारखाने यत्र-तत्र तटवर्ती क्षेत्रों में लगे हुए हैं।

इसराइल भी इसके जल से कितने ही प्रकार के रसायन प्राप्त करता है इसके अलावा वह दक्षिणी तट पर स्थित भूमिगत भंडारों के भी दोहन का प्रयास कर रहा है उसने इस दक्षिणी किनारे पर तेल की खोज के लिए सागर के नीचे करीब 4 किलो-मीटर गहरी खुदाई करवायी । इसमें तेल तो नहीं मिला पर ‘इन आयला’ नामक बहुमूल्य शैवाल हाथ लग गया। विशेषज्ञों का कहना है कि इस काई से पेट्रोल प्राप्त किया जा सकता है। इसरायली वैज्ञानिकों द्वारा भूमिगत बिटुमिन की प्राप्ति के भी प्रयत्न हो रहे हैं। करीब 49 मील लम्बा और 10 मील चौड़े क्षेत्रफल वाला यह सागर इसराइल और जोर्डन की सीमा पर स्थित है। इसराइल की राजधानी येरुसलम से यह 15 मील दूर पूर्व की ओर है। उत्तर-पश्चिमी हिस्से के अतिरिक्त सागर हर ओर से जोर्डन की सीमा से लगा है। इसे लैक्स एसफालटाइटस कहते हैं, जबकि ओल्ड टेस्टामेण्ट में इसको नाम ‘ईस्ट सी’ कहकर सम्बोधित किया गया है। अरब के लोगों में इसका नाम ‘अलबाहर अलनायित’ अर्थात् मृत सागर रखा है। ‘बहैरत लुत’ नामक इसका एक अन्य नाम भी यहाँ प्रसिद्ध है। इसराइल के लोग इसे ‘याम हा मेलाच’ अर्थात् ‘नमक का सागर’ कहते हैं।

जिस प्रकार मृत शरीर अनेक माँसाहारी जन्तुओं को अपने निकट खींच बुलाता है, इसी प्रकार यह सागर प्रत्येक वर्ष लाखों की संख्या में पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इनके ठहरने के लिए तटवर्ती क्षेत्र में अनेक बहुमंजिली इमारतें, होटल और रेस्तराँ बने हुए हैं। मृत सागर के जल की एक बड़ी विशेषता यह बतायी जाती है कि इससे कई प्रकार के त्वचा रोग से ग्रस्त हो गये थे। अनेक प्रकार के उपचार के बाद भी जब वे ठीक नहीं हुए, तो राजवैद्य की सलाह पर उन्हें डेड सी के जल से स्नान कराया गया। कहते हैं कि कुछ दिन स्नान के पश्चात् वे रोग मुक्त हो गये।

इन सब विभूतियों का भण्डार होने के बावजूद वह मृत सागर कहलाता है। यह दुर्भाग्य की बात है। मनुष्य के अन्दर की बात है। मनुष्य के अन्दर भी न जाने कैसी और कितनी एक-से-एक बढ़कर विभूतियाँ हैं, पर सब सोयी पड़ी हैं। उसकी निष्क्रियता और आलस्य प्रमाद उन्हें और गहरी सुषुप्ति में धकेल देते हैं। इसलिए मानव की स्थिति भी लगभग वैसी ही हो जाती है, जैसी यह सागर है। यों वह चलता-फिरता सचेतन प्राणी है, इस दृष्टि से जीवित कहलाने का अधिकार तो है, पर वैभव-विभूति की दृष्टि से, सक्रियता और समर्थता की दृष्टि से उसे एक प्रकार से मृतक ही कहा जाएगा।

मुर्दों की भी दो कोटियाँ हैं, एक वह जो निर्जीव-निष्प्राण है और जो महा प्रस्थान के लिए निकल पड़े हैं। ऐसे शरीर को रखने का विधान नहीं है। उनकी अन्तिम क्रिया जल्द ही कर दी जाती है, अन्यथा देर तक बने रहने पर वे गन्दगी और बदबू फैलाते हैं। दूसरी श्रेणी में वे आते हैं, जो चलते-फिरते तो हैं, पर सब कुछ यंत्रवत् है। एक यंत्र और मनुष्य में इतना अन्तर है कि उपकरण सब कुछ बटन के आधार पर काम करते हैं, उसे दबा दिया, तो वे सक्रिय हो जाते हैं, बन्द कर दिया, तो फिर अनन्त काल तक उसी स्थिति में पड़े रहेंगे। उनमें न तो उमंग होती है, न उत्साह, सब कुछ मशीनी। इसी तर्ज पर यंत्र मानवों की रचना हुई है। उन्हें जो आदेश दिया जाता है, उसे वे गुलामों की भाँति कर डालते हैं, इसके बाद फिर निष्क्रिय बन जाते हैं। उनकी गतिशीलता को देखते हुए कुछ क्षण के लिए उन्हें -चैतन्य’ कह सकते हैं, पर चैतन्यता की वह परिभाषा सही नहीं, जिसमें क्षण में सक्रियता और क्षण में निष्क्रियता दिखाई पड़े। वास्तविक चेतनावान तो उन्हें ही कहना चाहिए, जो हर पल सक्रिय हों, जिनके अन्दर की उमंग उछल-उछल पड़ती हो और जिसे अपने भीतर बाँध रख पाने में काया भी असहाय अनुभव करती हो, जिनके अन्दर प्रखरता हो, तत्परता और तेजस्विता हो और जो और जो हर घड़ी उन्हें लोकमंगल के लिए नियोजित करने को प्रस्तुत हों, सच्चे अर्थों में जीवन्त और जाग्रत कहलाने के वही सुयोग्य अधिकारी हैं।

जाग्रति अर्थात् सुषुप्ति का टूटना । जब जागरुकता बढ़ने लगे, तन्मयता और लगनशीलता अधिक प्रबल होती दीख पड़े , आलस्य-प्रमाद में अप्रत्याशित कमी आ जाये, स्वार्थ -साधना में हृदय घबड़ाता हो, सेवा के प्रति अभिरुचि बढ़ने लगे, उत्साह का उफान आ जाय, तो इसे दिव्य जागरण कहना चाहिए। यह इस बात के प्रतीक हैं कि अन्तराल का प्रसुप्त वैभव अपनी मूर्च्छना तोड़ रहा है और अगले ही दिनों वह अपनी सम्पूर्ण समर्थता एवं प्रखर प्रकाश के साथ प्रकट और प्रत्यक्ष होने वाला है।

हम मृत सागर की तरह मुर्दे न बन जाएँ। हममें गतिशीलता हो और सक्रियता भी। इसी में हमारी महानता है और आन्तरिक सम्पदा की दिव्यता भी।


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