गंध का ज्ञान-विज्ञान

November 1996

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मनःस्थिति और मनोविज्ञान बनते-बिगड़ते रहते हैं, कभी एक कारण से, तो कभी किसी दूसरे कारण से। इनमें परिस्थितियों से लेकर परिवेश तक के तत्त्व समान रूप से जिम्मेदार हैं। इस शृंखला में ‘गंध’ की एक और कड़ी जुड़नी चाहिए, जो स्थायी न सही, अस्थायी रूप से तो उन्हें प्रभावित करती ही है।

मनुष्य प्रकृति प्रेमी है, इस कारण वह प्राकृतिक सुगंधों की ओर आकर्षित होता है। इसके लिए वह वन-उपवनों की सैर करता और उसका आनन्द लेता है। लीवर पुल यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ता आस्नि हार्डी का इस संबंध में मत है कि यदि प्रकृति की गोद में जाकर खुशबुओं का लाभ नहीं लिया जा सके तो कोई बात नहीं, कृत्रिम सुगंधों से भी इस कमी की कुछ हद तक पूर्ति की जा सकती है; किन्तु वे सावधान करते हुए कहते हैं कि यह सुवास एकदम हल्की एवं भीनी होनी चाहिए, अन्यथा तेज गंधों के बार-बार के प्रयोग से लाभ कम, क्षति अधिक होगी और घ्राणेन्द्रिय गंध ग्रहण की अपनी क्षमता को धीरे-धीरे खोने लगेगी।

ऐसा देखा भी गया है कि जिस व्यक्ति को प्रतिदिन तीव्र गंधों से वास्ता पड़ता है, अथवा प्रयोगशाला में जिन्हें तीक्ष्ण गंधों के बीच काम करना पड़ता है, उनकी घ्राण शक्ति शनैः-शनैः कमजोर हो जाती है। इस स्थिति में यदि आरंभ में ही सचेत नहीं हुआ गया तो फिर एक ऐसी अवस्था आती है, जिसमें व्यक्ति अत्यन्त तीव्र गन्ध के सिवाय हल्के स्तर की गंधों का पता नहीं लगा पाते। यह अत्यन्त घातक स्थिति है विशेषकर तब जब किसी ................. की सूचना इसके द्वारा मिलने का प्रावधान हो। उदाहरण के लिए कुकिंग गैस को लिया जा सकता है। इसमें गैस रिसाव को अधिक स्पष्ट करने के लिए ..................नामक रसायन की विशिष्ट गंध मिलायी जाती है, ताकि ऐसी दशा में ..................... हो सुरक्षा का उपाय कर सके। य..... यदि नासिका की सूँघने की सामर्थ्य बिल्कुल क्षीण हो, तो यह जीवन के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है। इसलिए तीक्ष्ण कृत्रिम गंधों के बार-बार के संपर्क में आने से विशेषज्ञ सावधान करते हैं और कहते हैं कि ऐसा करना कोमल घ्राण अवयव के लिए अहितकर है।

यों तो खुशबू के सर्वोत्तम और निरापद स्रोत पुष्प और पुष्पोद्यान हैं; किन्तु आज इस तरह के उद्यान न तो हर जगह पाये जाते हैं, न हर किसी के लिए यह संभव है कि वह अपने व्यस्ततम समय में से कुछ इसके लिए निकाल सके। ऐसी स्थिति में उन कृत्रिम विकल्पों पर निर्भर रहना पड़ता है, जो सर्वसुलभ और सहज सुलभ हों। इनमें इत्र से लेकर अगरबत्तियों तक को सम्मिलित किया जा सकता है। यदि यह सुगंधि-स्रोत अच्छी और हल्की खुशबू वाले हों, तो बहुत सीमा तक पुष्पवाटिका के उद्देश्य को पूरा कर देते हैं सुवासित चन्दन की माला धारण करके भी यह आवश्यकता पूरी की जा सकती है। इसके अविरिक्त पर्वतों के निकटवर्ती वातावरण से भी कुछ परिमाण में इस कमी की पूर्ति हो जाती है। यह सच है कि वहाँ सिर्फ वृक्ष-वनस्पतियाँ ही पाये जाते हैं; पर उनमें एक विशिष्ट प्रकार का सौरभ होता है- इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता। इसका लाभ वहाँ रहकर आसानी से लिया जा सकता है । हिमालय जैसे विशाल पर्वत के साथ एक अन्य विशेषता यह जुड़ी हुई है कि वहाँ ऐसी अनेक फूलों की घाटियाँ हैं, जो सौंदर्य की दृष्टि से ही नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपयोगी हैं। जुलाई से सितम्बर के बीच यह घाटियाँ अपना सम्पूर्ण सौंदर्य बिखेरना आरंभ करती हैं और अपनी रंग-बिरंगी छटा एवं सुरभि के कारण पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। कई बार यह आकर्षण खतरनाक सिद्ध होता है, कारण कि वन्य कुसुमों की मिश्रित सुगंधि में ऐसी मादकता जाती है, कि पर्यटक वहाँ पहुँचकर एक विशिष्ट चेतनात्मक भूमिका में स्वयं को अनुभव करने लगते हैं। अनेक बार यह मादकता इतनी तीव्र होती है कि उसके प्रभाव में व्यक्ति संज्ञाशून्य हो जाता है। इस समय उसके साथ वहाँ कोई और उपस्थित न हो, तो फिर उसके बचने की संभावना नगण्य जितनी शेष रह जाती है। ऐसी एक घटना वर्षों पूर्व तब घटी थी, जब इंग्लैण्ड की एक प्रकृति प्रेमी एवं वनस्पतिशास्त्री महिला जेनी फ्रिडमैन ने हिमालय के उस क्षेत्र की यात्रा की थी; पर फूलों के मादक असर के कारण वह फिर लौट न सकीं और वहीं उनकी मृत्यु हो गई। उक्त घटना के करीब तीन वर्ष पश्चात् फूलों की उस घाटी में एक डायरी पड़ी मिली, जिसमें उनका नाम और बहुत-सी वनस्पतियों का विवरण लिखा मिला। इसी आधार पर यह अनुमान लगाया गया कि उक्त उपवन की प्रकृति से अपरिचित होने के कारण ही कदाचित् वह इस क्षेत्र में प्रविष्ट हुई और जान से हाथ धो बैठीं।

सुदूर हिमालय के बर्फीले क्षेत्र में ब्रह्मकमल नामक ऐसे पुष्प पाये जाते हैं, जिन्हें सूँघते ही समाधि लगने की बात कही जाती है। इसे हिमालय जैसे दिव्य क्षेत्र की विशेषता ही कहनी चाहिए कि वहाँ चेतना के सामान्य स्तर को उच्चस्तरीय भूमिकाओं में ले जाने वाले प्रसून भी विद्यमान हैं और ऐसे स्थान भी, जिसकी मिट्टी को सूँघने मात्र से समाधि-सुख का आनंद-लाभ हो जाय। सर्वसामान्य के लिए यह भले ही आश्चर्य का विषय हो पर विशेषज्ञ इसे सुगंधि का ही प्रभाव बताते हैं

इसके विपरीत दुर्गन्धों की दुनिया बड़ी ही अरुचिकर है। इसके संपर्क में आते ही मनोदशा बिगड़ने लगती है। कई अवसरों पर तो यह प्रभाव इतना तीव्र होता है कि सिरदर्द, उल्टी और चक्कर आने लगते हैं। सीवर लाइन का मेनहोल यदि खुला हुआ हो, तो उसके समीप से गुजरते ही हाथ अनायास नासिका छिद्रों को बन्द काने हेतु उठ जाता; पर मैला ढोने और टट्टी साफ करने वाले इससे सर्वथा अप्रभावित रहते हैं एवं एक सामान्य कार्य की तरह अपनी ड्यूटी पूरी करते हैं। अन्य लोगों की तरह इसमें न तो उन्हें कोई अनख महसूस होता है, न आपत्ति दिखाई पड़ती है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि खुशबू और बदबू के संबंध में गंधों का स्वयं का प्रभाव कम और व्यक्ति का निजी मनोवैज्ञानिक असर ज्यादा प्रभावी होता है। वह अपने ही मनोविज्ञान के कारण किसी गंध को बुरा और किसी को अच्छा मान बैठता है। यदि यह बात नहीं होती, तो सुगंध और दुर्गन्ध के बारे में भिन्न-भिन्न लोगों के विचार पृथक-पृथक नहीं होते। सुगंध को ही लें तो ज्ञात होगा कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए सर्वोत्तम की श्रेणी भिन्न-भिन्न है, जो खुशबू किसी एक के लिए सर्वोत्कृष्ट स्तर की है, वही दूसरे की दृष्टि में निम्नस्तरीय साबित होती, जबकि किसी अन्य के हिसाब से जिसे सामान्य कोटि में रखा गया है, उसी को कई प्रथम स्थान देते हैं। दुर्गन्ध के संदर्भ में भी ऐसा ही मतान्तर देखा जाता है। कोई किसी गंध को बदबू वाले विभाजन में रखते हैं, तो कोई किसी अन्य को। यह भी देखा गया है कि जो किसी के लिए एकदम असहनीय है, वह कई अन्य के लिए उतनी खराब नहीं। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि सुवास और दुर्गन्ध के संबंध में यदि वैयक्तिक मनोविज्ञान को बदला जा सके, तो शरीर-मन पर उसके प्रभावों को भी परिवर्तित करने में सफलता हस्तगत की जा सकती है।

सुमनों में सुरभि है और उससे लोग आकर्षित होते हैं, तो वह अपनी दुर्गन्धि और विकर्षण के लिए भी कुख्यात है। ऐसा ही एक विशालकाय कुसुम अभी इसी जुलाई के अन्तिम सप्ताह में इंग्लैण्ड में चर्चा का विषय था। लगभग डेढ़ मीटर ऊँचा टइटन एरम नामक यह पुष्प लंदन के कीव उद्यान में पिछले 33 वर्षों में पहली बार खिला है। इससे सड़ी लाश, सड़े अण्डे, सड़ी मछली और जलती हुई शक्कर की मिली-जुली तीव्र बदबू आती थी, जिसे देखने के लिए सैंकड़ों की भीड़ उपवन में उमड़ पड़ी सुमात्रात्र, इंडोनेशिया की अपनी मूल भूमि और स्वाभाविक वातावरण में यह हर दूसरे-तीसरे वर्ष खिलता है एवं ‘काँर्प्स फ्लावर’ अर्थात् ‘सड़े मुर्दे की गंध वाला फूल’ के नाम से प्रसिद्ध है। संसार के विशालतम फूलों में यह गिना जाता है और एक सप्ताह के संक्षिप्त जीवनकाल में समाप्त हो जाता है।

इस प्रकार सुगन्धि और दुर्गन्धि के अपने-अपने प्रभाव हैं। सुवास जहाँ मन को प्रफुल्लित करती है, वहीं बदबू घोर जुगुप्सा पैदा करती है। एक मन को उच्च आयामों की ओर ले जाती है, तो दूसरी उसे निम्नगामी बनाती है। बगीचे की सुषमा और सुरभि क्लान्त और दुखी मन को शान्ति प्रदान करती है, जबकि गन्दगी सड़न, अरुचि तथा उबकाई उत्पन्न करती है। आषाढ़ के दिनों की आरंभिक वर्षा से उठने वाली मिट्टी की सोंधी महक किस प्रकार हृदय को गुदगुदा जाती है, इसे सभी जानते हैं ; किन्तु नाली में कीचड़ की सड़ान्ध कितनी बेचैनी पैदा करती है, यह भी सर्वविदित है। इत्र से सुवासित वस्त्र और शरीर सामने वाले को आकर्षित करने में सफल होते हैं, लेकिन वही काया जब मरने के उपरान्त गलती है, तो अपनी दुर्गन्ध के कारण मस्तिष्क को झकझोर कर रख देती है। वन्य प्रान्तों में बहने वाली शीतल-सुगंधित हवा कितनी स्वास्थ्य-वर्द्धक होती है, इसे वनवासियों के स्वास्थ्य-परीक्षण द्वारा जाना जा सकता है, परन्तु शहर का जन-संकुल वातावरण कैसा विक्षोभकारी होता है, यह भी कोई कम उल्लेखनीय नहीं है।

सुगन्ध और दुर्गन्ध मनोभावों को किस हद तक प्रभावित करती हैं, इसे खाद्य पदार्थों के संपर्क में रहकर भी जाना, समझा जा सकता है। भोजन यदि स्वादिष्ट और खुशबूदार हो, तो मन उसे ग्रहण करने के लिए मचलने लगता है। हलवाई की दुकान से उठने वाली मिठाइयों की मीठी सुवास ध्यान को बरबस आकर्षित कर लेती है। फलों की खुशबू हो या पकवानों का सुस्वादुपन-सब अपने-अपने ढंग से मन को लुभाते हैं, पर मानस तब गड़बड़ाता प्रतीत होता है, जब सामने रखे व्यंजन से अरुचिकर बू आ रही हो, वह जला हो, वासी हो अथवा ऐसी वस्तुओं से निर्मित हो, जिनकी स्वाभाविक गंध ही अनाकर्षक हो, ऐसी दशा में कड़ी भूख होने पर भी भोजन रुचता नहीं और उसे बीच में ही छोड़कर आधे-अधूरे पेट उठना पड़ता है। ऐसा बिगड़े मनोवान के कारण होता है।

इस प्रकार खराब गंधों से जहाँ कई प्रकार की शारीरिक, मानसिक तकलीफें शुरू हो जाती हैं, वहीं सुगन्धि के अनेक फायदे भी हैं। उच्चस्तरीय साधनाओं के दौरान जब शरीर में जलन एवं दूसरे प्रकार की शिकायतें बढ़ती हैं, तो सुयोग्य मार्गदर्शक उनके शमन के लिए सुगंधित फूलों की माला पहनने, सुवासित चन्दन की लेप लगाने एवं खुशबूदार अगरबत्ती द्वारा कमरे के वातावरण को सुरभित बनाये रखने की सलाह देते हैं। इससे काय कष्ट में काफी आराम मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य कितनी ही प्रकार की शिकायतें इस प्रक्रिया से दूर की जाती हैं। इसकी इसी विशिष्टता के कारण अब इस चिकित्सा उपचार के रूप में अपना लिया गया है। उपचार विज्ञान की यह नवीन प्रणाली-’एरोमा थैरेपी’ के नाम से प्रसिद्ध है।

सुगंधि क्या है और दुर्गन्धि किसे कहते है? इस विषय में विवाद की कोई गुंजाइश नहीं। मन पर उनकी भली-बुरी प्रतिक्रियाओं के आधार पर इस निर्धारण में कठिनाई नहीं, कि किसे किस श्रेणी में रखा जाय और किससे बचा एवं किससे लाभ उठाया जाय?


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