नैतिकी की उपेक्षा हमें ले डूबेगी

November 1996

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इन दिनों समाज लूट-पाट, राहजनी, उठाईगीरी, धोखाधड़ी, ठगी के जिस अराजकतावादी दौर से गुजर रहा है, उसे देखते हुए समाजशास्त्रियों और नृतत्त्ववेत्ताओं का चिन्तित हो उठना स्वाभाविक ही है। समाजशास्त्री इसके लिए वर्तमान परिस्थितियों को दोषी मानते हैं, तो नृतत्ववेत्ता बुद्धिवाद को जिम्मेदार ठहराते हैं। जो भी हो, इतना तो निश्चित है कि बिगाड़ को सुधारने के लिए अब समाज में मानवी मूल्यों की प्रतिष्ठापना ही मूलभूत जरूरत है। यह नैतिकी को अपनाये बिना संभव नहीं।

यह सच है कि बुद्धिवाद के विकास के साथ-साथ न सिर्फ सुविधा-साधन बढ़े, वरन् आपराधिक वृत्तियों में भी तद्नुरूप बढ़ोत्तरी होती चली गई। इतना ही नहीं, उन तरीकों में भी क्रमिक विकास होता चला गया, जो परम्परागत समझे जाते थे और जिनका प्रयोग लम्बे समय से ठगी और धोखाधड़ी के लिए अपराधी मनोवृत्ति वाले लोगों द्वारा होता था। परिणामस्वरूप आज स्थिति इतनी विषम हो गई है कि कब, कौन, कैसे, कहाँ, किस रूप में किसको ठग ले, कुछ कहा नहीं जा सकता।

इस सामाजिक दुष्प्रवृत्ति पर प्रकाश डालते हुए थोरो ने अपनी पुस्तक ‘डिमाण्ड एण्ड सप्लाई’ में लिखा है कि सामाजिक स्थिरता बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि माँग के अनुरूप आपूर्ति हो। जब कभी इस स्वाभाविक प्रक्रिया में व्याघात उत्पन्न होता है, तो अराजकता जैसी स्थिति पैदा होती है। वे कहते हैं इस अवस्था के लिए कई बातें जिम्मेदार हो सकती हैं- अचानक आपूर्ति का घट जाना, माँग बढ़ जाना, महँगाई का आकाश चूमना, श्रम के अनुरूप धन नहीं मिल पाना, बेरोजगारी बढ़ जाना, श्रम के नाम पर शोषण होना, थोरो इन सभी कारणों को आपाधापी के लिए कारणभूत भी मानते हैं, किन्तु साथ ही यह सवाल भी उठाते हैं कि यदि इन्हें पूरी तरह ..............कर दिया गया, तो क्या धोखाधड़ी और ठगी जैसे मामलों का मूलोच्छेदन सम्पूर्ण रूप से किया जा सकता है? इसका उत्तर स्वयं देते हुए कहते हैं-”शायद नहीं।” उदाहरण के रूप में वे प्राचीन और समृद्ध यूनान का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि होमर ने अपनी कृतियों ‘इलियड’ एवं ‘ओडिसी’ में स्थान-स्था पर इस बात का स्पष्ट संकेत किया है कि तत्कालीन यूनान अपनी समृद्धि के बावजूद अस्थिर था। इस अस्थिरता का करण और कुछ नहीं, वरन् तत्कालीन यूनानवासियों की बढ़ी-चढ़ी महत्वाकाँक्षा के कारण उपजी लिप्सा थी। अधिक वैभव बटोरने के लोभ में वे अपने से ज्यादा सम्पन्न लोगों को लूटने और ठगने में निरत हो गये। परिणामस्वरूप जिस यूनान को अधिक सुखी और अधिक स्थिर होना चाहिए था वही दिन-दिन अस्थिर होता चला गया। उसकी शक्ति धीरे-धीरे चुकने लगी और अन्ततः उसका विस्तृत साम्राज्य, जो कभी अनेक देशों तक विस्तीर्ण था, पतन की ओर चल पड़ा और एक समय के वैभवशाली एवं शक्तिशाली साम्राज्य का देखते-देखते पराभव हो गया।

इस प्रकार यह कहना उचित न होगा कि साधनहीनता और विपन्नता की दशा में लूट-खसोट बढ़ती है। पिछले युगों की बौद्धिक सम्पन्नता आज जैसी थी, ऐसा नहीं कहा जा सकता। उन्हें सर्वथा साधनहीन युग कहना ही समीचीन होगा, इसके बावजूद नैतिकी का जो उन्नत और उज्ज्वल उदाहरण तत्कालीन समाज ने प्रस्तुत किया, वह आज भी हमारे लिए प्रेरणास्रोत बना हुआ है। वास्तव में इस प्रकार के आचरण के लिए जिम्मेदार परिस्थिति को नहीं, मनःस्थिति को माना जाना चाहिए। निस्संदेह पहले और अब की परिस्थितियों में भारी फेर-बदल हुआ है; पर जनसाधारण की मनःस्थिति में जिस पैमाने पर परिवर्तन आया है, उसे साधारण नहीं असाधारण ही कहना चाहिए। आस्थाएँ बदली हैं, मान्यताएँ बदली हैं, आकाँक्षाएँ बदली हैं और भावनाएँ बदली हैं; इन सबका प्रभाव मनः स्थिति पर पड़ना स्वभाविक था। परिणाम वही हुआ, जो होना चाहिए, अर्थात् प्रतिस्पर्धा। आज हर व्यक्ति अपने में अधिक उन्नतिशील और प्रगतिशील से प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता करता है एवं येन-केन प्रकारेण उसकी बराबरी करने की कोशिश करता है, भले ही इसके लिए उसे नीति-अनीति किसी का भी सहारा क्यों न लेना पड़े तथा किसी भी सीमा तक क्यों न जाना पड़े, वह इसके लिए सदा उद्यत रहता है। छह इंच के इस पेट को भरने के लिए इतना बड़ा अपयश, जिसके लिए जिन्दगी ही नहीं जन्मों भर पछताना पड़े, तो भी कोई परवाह नहीं। यही है नैतिकी का दिवालियापन। इसे नीतिमत्ता की ‘हत्या’ कहें, तो भी कोई अत्युक्ति न होगी। जो व्यक्ति न्यायनिष्ठ है, ईमानदार और सत्याग्रही है, उसके लिए आज के जमाने में जीना मुश्किल है- ऐसी बातें प्रायः वही लोग करते हैं, जो अपने अजगर जैसे विशाल उदर को भरकर भी उसके अधभरे होने का अनुभव करते ओर मौका मिलते ही किसी का भी सब कुछ निगल जाने के लिए लालायित रहते हैं अन्यथा स्वल्प में संतोष करने और संचय से विरत रहने वालों के लिए तो रोज कुआँ खोदने और रोज पानी पीने में ही आनन्द आता है। चोरी का डर, न लूटपाट का भय, न ठगी का अंदेशा। एकदम शान्त और निश्चिंत मनःस्थिति।

पर इन दिनों मनोदशा में जिस कदर विकृति आयी है, उससे नैतिक मूल्यों का असाधारण हनन हुआ है। जिस गति से नैतिक मूल्य गिरे हैं, उसी दर से आपराधिक वृत्तियाँ बढ़ी हैं। देखा गया है कि जीवन-स्तर के विकास के साथ-साथ मानवी मूल्यों में उत्थान नहीं, पतन ही हुआ है। शहर से दूर ग्राम्य अंचलों में रहने वाले लोगों का जीवन-स्तर आज भी कोई बहुत ऊँचा नहीं है, पर इस निम्नस्तरीयता के साथ एक प्रसन्नतादायक बात यह जुड़ी होती है कि वे छल, कपट और फरेब से दूर निश्चल और भोले-भाले होते हैं। उनमें चातुरी और धूर्तता नगण्य जितनी होती है, पर अब जैसे-जैसे शहरों का विस्तार हो रहा है और कस्बे शहर का आकार ग्रहण कर रहे हैं एवं गाँव-कस्बों में बदल रहे हैं, वैसे ही वैसे ग्रामीणों की निष्कपटता खोती चली जा रही है। आपा-धापी और छल-छद्म की शुरुआत बस यहीं से होती है। यही बढ़ते-बढ़ते शहरों में सुरक्षा जैसा रूप धारण करते और इसी के साथ आरंभ होता है ठगी, उठाईगीरी, धोखाधड़ी, बेईमानी जैसे आर्थिक अपराधों का एक अन्तहीन सिलसिला।

पाया गया है कि जिस समाज और राष्ट्र का जीवन-स्तर जितना ऊँचा होता है, वहाँ मानवी मूल्यों में गिरावट उतनी ही बढ़ी-चढ़ी होती है, अर्थात् नैतिक अपराध वहाँ उसी अनुपात में ज्यादा होते हैं। अमेरिका में प्रति व्यक्ति आय विश्व में सर्वाधिक है। दूसरे नम्बर पर कनाडा, फिर ब्रिटेन, उसके बाद जर्मनी, जापान एवं हाँगकाँग का स्थान है। अब यदि इनमें होने वाली धोखाधड़ी और ठगी जैसी वृत्तियों के आँकड़ों पर दृष्टिपात करें, तो पायेंगे कि अमेरिका में प्रति मिनट इस तरह की 142 घटनाएँ घटती हैं, कनाडा 92, ब्रिटेन 84, जर्मनी 81, जापान 60, हाँगकाँग 46। इससे स्पष्ट है जीवन-स्तर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, दुष्प्रवृत्तियाँ भी वैसे-ही-वैसे बढ़ती जाती हैं। आधुनिक परिभाषा के अनुसार इसे जीवन-स्तर के विकास की संज्ञा भले ही दे दी जाय, पर वास्तविक अर्थों में इसे जीवन-स्तर का अल्पविकास ही कहना चाहिए।

‘दि एक्वीजिटिव सोसायटी’ में आर0एच0 टाउनी लिखते हैं कि जीवन स्तर का मूल्याँकन आय की दृष्टि से नहीं, वरन् इस दृष्टि से किया जाना चाहिए कि समाज को ऊँचा उठाने में व्यक्ति का निजी योगदान किस स्तर का कितना रहा। यदि धन के आधार पर यह निर्णय होना लगे, तो फिर चोरों, दस्युओं, लुटेरों, उठाईगीरों, ठगों का जीवन स्तर सबसे ऊँचा मानना पड़ेगा; क्योंकि वे अनैतिक वृत्ति से काफी धन जोड़ लेते हैं। यहाँ टाउनी का मत भारतीय अध्यात्म से काफी मेल खता है। वह इसे स्वीकारते हैं कि धन कमाने में हानि नहीं है। हानि उसके उपयोग, उपभोग और प्राप्ति के तरीके में निहित है। आवश्यकता से अधिक वैभव होने पर उसी अनुपात में कुटेवें भी पनपतीं और इनकी अधिकता में अपराधजनित वृत्तियाँ बढ़ती हैं। अतः यदि वर्तमान परिभाषा के अनुसार प्रति व्यक्ति अधिकतम और न्यूनतम आय के आधार पर ही जीवन स्तर की उच्चता और निम्नता का आकलन करने की विवशता आ पड़े, तो उस आय-व्यय के साथ कठोर आर्थिक और आध्यात्मिक अनुशासन भी जुड़ा होना चाहिए, अन्यथा अंकुशहीन स्थिति में जिस तथाकथित उच्च जीवन स्तर की संरचना होती है, उसके एक बानगी हम अमेरिका जैसे अति विकसित एवं समृद्ध राष्ट्र में देख सकते और यह अनुभव कर सकते हैं कि किस तरह इस स्थिति में नैतिकी के परखच्चे उड़ते हैं। तो क्या जीवन-स्तर की उपेक्षा कर दी जाय, उसे ऊँचा उठाने की ओर ध्यान नहीं दिया जाय? नहीं, ऐसा करना भी उचित नहीं होगा। जीवन-स्तर ऊँचा उठना ही चाहिए; पर नैतिकी की कीमत पर उसकी बलि चढ़ाकर नहीं, वरन् उसे जीवन्त और जाग्रत रखकर, अन्यथा यह तथाकथित

उच्च जीवन स्तर भी एक प्रकार का छलावा ही होगा-छलावा अपने ईमान से और उस भगवान से जिसकी विश्व-वाटिका को समुन्नत बनाने का दायित्व हमारे कंधों पर है।

इस संदर्भ में अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के संधिकाल ओर उससे भी पूर्ववर्ती तीन सौ वर्षों के भारत के इतिहास पर दृष्टिपात करना होगा और देखना होगा कि किस प्रकार इन दिनों ठगी और हत्या का ताँडव नैतिकता की अवमानना-उपेक्षा के कारण रच रहा था। आज तो फिर भी संतोष की बात है कि लूटने के बाद व्यक्ति की जान प्रायः बच जाती है, पर तब ऐसे न था। जो ठगा और लूटा जाता, उसे अपनी जान भी गँवानी पड़ती। इसलिए अक्सर लोग घर से बाहर जाने में कतराते; क्योंकि जिनने घर से बाहर कदम रखा और जिन्हें मील-दो-मील की यात्रा करनी होती, उनका लौट कर आ पाना फिर कभी संभव नहीं होता। वे रास्ते से ही गायब हो जाते। सन् 1887 में लिखित और लंदन से प्रकाशित अपनी रचना ‘सीक्रेट मर्डरर्स’ में कैसल्स ने इस स्थिति का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। वे लिखते हैं कि उन दिनों के रास्ते इतने रक्तरंजित और आदमखोर हो गये थे कि एकाकी व्यक्ति तो क्या दल-के-दल और समूह-के-समूह लोगों को भी वे निगल जाते थे। द्वारिका के यात्री यदि पुरी दर्शन के लिए निकलते तो पुरी की जगह उन्हें यमपुरी दर्शन के लिए भेज दिया जाता। व्यापारी तिजारत करने जाते तो अपने माल-असबाब, मुनीम, कारिंदे सहित गायब हो जाते। लखनऊ की तबायफें हैदराबाद के लिए प्रस्थान करतीं तो, फिर उनका कोई पता न चलता। बंगाल के गोसाँइयों का दल संगम स्नान के लिए इलाहाबाद को निकलते, तो मानो स्नान पूर्व ही वे पुण्य लोक पहुँच जाते। भदोही की बहुएँ अपनी ससुराल बनारस के लिए रवाना होतीं, तो कहार समेत अदृश्य हो जातीं। मुर्शिदाबाद, कोचीन या लाहौर के व्यापारी सैंकड़ों की संख्या में इकट्ठे होकर चलते; किन्तु फिर भी किस विवर में समा जाने कि उनका कोई सुराग ही न मिलता। कम्पनी-बहादुर के सिपाही छुट्टी में घर जाते, तो फिर उनकी टोलियाँ दोबारा लौटकर नहीं आतीं।

यह ऐंद्रजालिक लीला सिर्फ उत्तर भारत तक ही सीमित थी, सो बात नहीं। सुदूर दक्षिण-पूर्व से लेकर मध्य भारत और काठियावाड़ तक समान रूप से फैली हुई थी। इन चार सौ वर्षों की ठगी काल में लगभग एक करोड़ लोगों को लूटा और मौत के घाट उतारा गया। जूलियस सीजर के जमाने से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध तक में लोग नहीं मरे, उससे भी अधिक लोग अलाउद्दीन खिलजी और विक्टोरिया काल के इस मध्यवर्ती अन्तराल में मौत के सौदागरों द्वारा मार दिये गये। ठगी और लूट के इस धन्धे की सर्वप्रथम जानकारी संसार को फ्राँस के एक पर्यटक एम॰ थेवेनाट्स ने अपनी कृति ‘ट्रैवल्स’ के माध्यम से दी। अपने ग्रन्थ में युवा पर्यटक ने उन तरीकों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, जिसका कि तत्कालीन ठग उन दिनों प्रयोग करते थे। वे लिखते हैं कि लूटपाट के इस धन्धे में पुरुषों के साथ-साथ महिलाएँ भी समान रूप से संलग्न थीं, बल्कि शिकार को फँसाने और साथी ठगों के समक्ष प्रस्तुत करने में उनकी ही बढ़ी-चढ़ी भूमिका होती थी। उनने लिखा है कि ठगी में इस्तेमाल होने वाला उनका मुख्य हथियार पीले रंग का एक 1 मीटर 27 से.मी. लम्बा रुमाल था। इसी का फंदा बनाकर वे राहगीरों की गर्दनों में फँसाते और उनकी हत्या कर देते। भिन्न-भिन्न स्थानों में ये लुटेरे भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते थे, यथा- बावरिया, धतूरिया, मेखफँसा, सतमाबाज, पाँगू, कंजड़, ताँती, पिंडारी और गुरंदे आदि।

अपनी पुस्तक ‘वायेज टु दि ईस्ट इंडिया’ में कर्नल विलक्स ने भी उन दिनों का रोमाँचकारी वर्णन किया है। वे लिखते हैं कि मुगल साम्राज्य के अवसान काल के उन दिनों में सम्पूर्ण भारत एक प्रकार से तमसाच्छन्न बना हुआ था। राज्यों का पतन होता चला जा रहा था। किसी एक केन्द्रीय सत्ता के अभाव में सम्पूर्ण समाज-व्यवस्था एकदम छिन्न-भिन्न होने लगी थी। तब न कोई शक्तिशाली शासक था, न हुक्मबरार, फलतः सर्वत्र लूट-खसोट का वातावरण बना हुआ था। रास्ते सुनसान पड़ गये थे और ताल-तलैया, कुएँ-बावड़ी पानी की जगह लाशों से भरे पड़े थे।

‘ईस्ट इण्डियन गवर्नमेण्ट गजट’ के 19 सितम्बर, 1807 के अंक में कर्नल स्टुअर्ट ने लिखा था कि वर्तमान अराजकता और अपराधवृत्ति दिशाहीनता और नैतिकता की अवहेलना का ही नतीजा है।

‘रेम्बल्स एण्ड रिकलैक्षंस ऑफ एन इण्डियन ऑफीशियल’ नामक कृति में तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर विलियम स्लीमैन ने लिखा है कि तब यदि कोई व्यक्ति मुझसे यह कहता कि नरसिंहपुर जिले में यहाँ से थोड़े ही फासले पर एक ऐसा स्थान है जहाँ ठगी के शिकार हुए सैकड़ों लापता लोग दफन है, तो मैं उसे निश्चय ही पागल घोषित कर देता; पर आज मैं जानता हूँ कि यह बात दिनमान के पूर्व में निकलने जितना ही सत्य है और इसका एकमात्र कारण मानवी मूल्यों की उपेक्षा थी।

‘तुजुके जहाँगी’ नामक अपने ग्रन्थ में जहाँगी ने और कर्नल स्लीमैन ने अपनी ‘रिपोर्ट आँन दि डिप्रैडेशंस कमिटेड बाइ दि ठग गैंग्स ऑफ अपर एण्ड सेण्ट्रल इण्डिया’ में विस्तार से इन ठगों का वर्णन किया है और बताया है कि किस तरह तत्कालीन समाज उन दिनों मानवी मूल्यों से रहित हो गया था।

डब्ल्यू0 कुक अपनी रचना ‘थिंग्स इंडियन’ में लिखते हैं कि एलोरा की कन्दराएँ भारत में ठगी और ठगों की उपस्थिति का सर्वाधिक पुराना और प्रामाणिक दस्तावेज है। वहाँ के एक भित्ति-चित्र में इस वृत्ति का सुन्दर चित्रण मौजूद है। चित्र में एक व्यक्ति को ध्यानमग्न दिखाया गया है। उसके पीछे एक ठग हाथ में फाँसी का फंदा लिए खड़ा है। पार्श्व में शंकर भगवान की तस्वीर भी चित्रित है, जिनकी भृकुटियाँ तनी हुई हैं और वे अपने भक्त की रक्षार्थ तृतीय नेत्र को खोलने का उपक्रम करते प्रतीत हो रहे हैं।

आज भी जिस कदर आर्थिक अपराध बढ़े हैं और राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार दिन-प्रतिदिन वित्तीय अनियमितताओं की घटनाएँ सामने आ रही हैं, उससे यदि महाकाल को विवश होकर कुछ करना पड़े, तो कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए। पिछले दिनों तो सिर्फ व्यक्तिगत ठगियाँ होती थीं, आज वह राष्ट्रीय स्तर पर हो रही हैं। नैतिकता की दृष्टि से यह अधिक गंभीर और संगीन मामला है। यदि इस पर काबू नहीं पाया गया तो नैतिकी का यह पतन हमें कहीं का न छोड़ेगा।


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