मा गृधः कस्य स्विद् धनम्

November 1996

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त्याग की आभा से प्रदीप्त अतीत और घोटालों की कीचड़ से सना वर्तमान। इस विस्मयकारी बदलाव को देखकर सहसा विश्वास नहीं होता कि यह वही महादेश है, जिसे देखकर भाव-विभोर हुए मैक्समूलर ने कहा था-” यदि संसार में मुझे ऐसे देश की तलाश करनी पड़े, जो सभी प्रकार की सम्भव प्राकृतिक सम्पदा, शक्ति और सौंदर्य से परिपूर्ण हो अर्थात् किन्हीं अंशों में धरती पर स्वर्ग के समान हो तो मैं भारत की ओर संकेत करूंगा। यदि मुझसे पूछा जाय कि इस नीले आसमान के नीचे वह कौन-सा भूभाग है, जहाँ मानवीय चरित्र का पूर्ण विकास हुआ है और जहाँ के लोगों ने बहुत कुछ ईश्वरीय देन को उपलब्ध किया है तथा जीवन की बड़ी-से -बड़ी समस्याओं पर विचार करके उनमें से बहुतों के ऐसे हल निकालें हैं जिन पर प्लेटो और काण्ट का अध्ययन करने वालों को भी ध्यान देना आवश्यक हो गया है, तो मैं सीधा भारत की ओर संकेत करूंगा।

वेद भाष्यकार मैक्समूलर का कथन आज की दशा में कितना अचरज भरा क्यों न लगे, पर उनका संकेत अतीत के उस भारत की ओर है, जिसने त्याग को अपना जीवन-मंत्र बनाया था। जहाँ के जन-जीवन ने अपनी अनुभूतियों और उपलब्धियों के आधार पर ‘त्यागे नैकेन अमृतत्व भानाशुः’ अर्थात् सिर्फ त्याग से ही अमृत तत्व की प्राप्ति होती है, की घोषणा की थी। अपनी इसी गरिमा के कारण इस देश ने अपने अतीत में समस्त संसार का मार्गदर्शन किया। विश्व मानव की प्रगति में उसने अनेकों अजस्र अनुदान दिए। ज्ञान और विज्ञान का उदय, अवतरण हुआ तो सर्वप्रथम यहीं, पर वह इस देश की सीमाओं में अवरुद्ध नहीं रहा। प्रभातकालीन सूर्योदय का श्रेय तो मिला, पर वे किरणें समूची जगती को प्रकाशवान बनाने के लिए निःसृत होती रहीं। इसी कारण भारत को जगद्गुरु कहा जाता था, क्योंकि उसने विश्वसुधा के कोने-कोने में ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश फैलाया। उसे चक्रवर्ती शासक माना जाता था क्योंकि उसने समाज व्यवस्था और शासन-सत्ता की स्थापना का मार्ग सुझाया और अनगढ़ मानव को व्यवस्था बनाकर रहने का क्रियात्मक प्रशिक्षण दिया। उसे स्वर्ग सम्पदाओं का स्वामी कहा जाता था, क्योंकि शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, व्यवसाय, कृषि, पशुपालन आदि के सुझाव और साधन यहीं से पहुँचाए गए।

इन सारी गतिविधियों के मूल में भारतवासियों का उज्ज्वल चरित्र था। इसी से समाज को संजीवनी शक्ति मिलती थी। इसी अद्भुत शक्ति की बदौलत ही वह भ्रष्टाचार से मुक्त था। भारत और भारतीयता के महावृक्ष की ऊर्जा, शक्ति, सम्पन्नता की मूल स्रोत थीं, त्याग की भावनाएँ। जो यहाँ के रोम-रोम में रमी थीं। इन्हीं के सूत्रों को लेकर यहाँ की जीवनशैली का ताना-बाना बुना गया था। बात परिवार के छोटे दायरे की हो अथवा फिर समाज के व्यापक विस्तार की; बड़ा वही कहा और माना गया जिसने व्यापक हित के लिए बड़ा त्याग करने का साहस कर दिखाया हो। वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था का ढाँचा त्याग की विस्तृत होती गयी भावनाओं के आधार पर ही खड़ा किया गया था। जो अपनी क्षुद्र कामनाओं, ओछे स्वार्थों में लिप्त थे, उन्हें क्षुद्र अथवा शूद्र कहा गया। जो स्वार्थों से थोड़ा तो ऊपर उठे, लेकिन परिग्रह की लालसा का पूरी तरह त्याग न कर सके, वे वैश्य कहलाए। क्षत्रिय उन्हें कहा गया जो औरों के लिए स्वयं के बलिदान का साहस रखते हों। क्षत्रियः त्यक्तः जीवितः परहित के लिए स्वयं का जीवन त्याग देने के लिए तत्पर होना ही क्षत्रित्व की परिभाषा थी। इन सबसे ऊपर था ब्राहम्णत्व, जिसके लिए कामनाओं, वासनाओं, लालसाओं की कोई गुँजाइश न थी। शास्त्रकारों ने उसके लिए स्पष्ट निर्देश दिए थे ‘न हि ब्राह्मणस्य देहोऽयं क्षुद्र कामाय नेष्यते’ अर्थात् ब्राह्मण जीवन क्षुद्र कामनाओं के लिए नहीं हैं।

वर्ण धर्म की स्थापना त्याग के उत्तरोत्तर विकास के लिए ही की गई थी। हालाँकि आज उसमें इतनी विकृति आ गई है कि उसके वर्तमान स्वरूप को देखकर लगता ही नहीं कभी इसका इतना मोहक एवं सौंदर्यपूर्ण अतीत भी रहा होगा। वर्ण धर्म से जहाँ त्याग की भावनाओं का सामूहिक, सामाजिक विकास होता था, वहीं आश्रम धर्म की स्थापना का उद्देश्य त्याग के आदर्श को व्यक्तिगत जीवन में चरितार्थ करना था।

ब्रह्मचर्य की तपोनिष्ठ गुरुकुल परम्परा में त्याग की भावनाएँ वैयक्तिक जीवन में अनुभवी आचार्यों द्वारा रोपी जाती थीं। गृहस्थ के तपोवन में इनका विकास होता था। और बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के लिए स्थापित वानप्रस्थ आश्रम में समाज को अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियाँ अर्पित करना हरेक का अनिवार्य दायित्व था। इसके पश्चात् संन्यास, जिसे परिभाषित करते हुए गीताकार ने कहा है-’काम्यानाम् कर्मणाँ न्यासं संन्यासं कवयो विदुः’ अर्थात् स्वार्थपूर्ण कर्मों का पूरी तरह त्याग ही संन्यास है और यही संन्यास प्रत्येक भारतीय के वैयक्तिक विकास का चरम बिन्दु था। जिसमें वह सर्वत्यागी बन स्वयं को समाज के लिए पूर्णतया उत्सर्ग करता था।

‘त्याग’ के शीर्ष पुरुष ब्राह्मण एवं संन्यासी ही समाज का शिक्षण करते थे। यह शिक्षण वाणी से नहीं जीवन के क्रिया-कलापों द्वारा दिया जाता था। इसी सत्य को बताते हुए मानवी सभ्यता के आदि व्यवस्थापक मनु महाराज का कथन है-एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रणन्यनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षंरेन् प्रथिव्याँ सर्वमानवः।

अर्थात्-इस महादेश में जन्म लेने वाले अग्रणी जन अपने-अपने चरित्र से पृथ्वी के सभी मानवों का शिक्षण करें।

यही है वह अतीत का भारत, जिस पर प्रो. मैक्समूलर मुग्ध हुए थे। यह मुग्धता वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन की त्याग निष्ठा पर थी। अतीत के उन मूल्यों एवं मानदण्डों के प्रति थी, जिनका अब कहीं पता-ठिकाना नहीं लग रहा। आज कोई राजा मान्धाता लंगोटी पहने महायोगी आचार्य शंकर को लालसा भरी दृष्टि से देखकर यह नहीं कह उठता-’कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः’ ये लंगोटी वाले बड़े भाग्यवान वेषधारी स्वयं ही राजपुरुषों के वैभव-विलास की ओर टकटकी लगाए देखते रहते हैं, कि कब उन्हें इसके नजदीक आने, स्पर्श करने, उपभोग करने का मौका मिले।

यही है हमारी संस्कृति के मर्म पर विनाशकारी आघात। जिसे दूसरे शब्दों में ‘त्याग के स्थान पर भोग की प्रतिष्ठा’ भी कह सकते हैं। इस उलट-बाँसी के साथ जन-जीवन के पाँव भी उलटी दिशा में भाग चले हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत की स्वतंत्रता, आधी धोती पहनने वाले गान्धी, आई. सी. एस. की प्रतिष्ठा को पाँव से ठुकरा देने वाले सुभाषचंद्र बोस जैसे त्यागी महामानवों के प्रयास से मिली। लेकिन राजसिंहासन पर बैठने वाले भूल गए कि हमें जो प्रतिष्ठा मिली है उसका कारण तिलक, विनोबा, गोखले, महर्षि अरविन्द के त्याग की परम्परा है। जिसे बनाए रखने का दायित्व अब उन पर है।

गोस्वामीजी ने लिखा है-’प्रभुता पाय काहि मद नाहीं।’ प्रभुता की मदान्धता कहें अथवा प्रभुता की आसक्ति की मोहान्धता, त्याग की आभा से प्रदीप्त भारत पर घोटालों का कीचड़ मला जाने लगा। जिसकी शुरुआत सन् 1942-49 के दिनों जीप दलाली काण्ड के रूप में हुई। इसमें दो हजार जीपों के सौदे के बाद महज 155 जीपों की डिलीवरी हुई। बचा पैसा तत्कालीन प्रतिरक्षा-मंत्री की भव्यता को सजाने-सँवारने में न लग गया। इसी के थोड़े ही वर्षों बाद वर्ष 1957 में डायरियाँ पूर्वी भारत के एक बड़े पूँजीपति मुहम्मद सिराजुद्दीन एण्ड कम्पनी के कलकत्ता व उड़ीसा के दफ्तरों में मिलीं। इनमें इस बात का स्पष्ट उल्लेख था कि अनेक राजनेताओं ने विभिन्न व्यापारियों से दलाली हड़पी है।

वर्ष 19657 मूँदडा काण्ड के लिए प्रसिद्ध हुआ। जिसमें उद्योगपति हरिदास मूँदड़ा एवं तत्कालीन वित्तमंत्री की मिलीभगत से 160 करोड़ रुपये का घोटाला आसानी से हो गया। आजादी के बाद से घोटालों का सिलसिला शुरू हुआ, उसमें उद्योगपतियों के साथ राजपुरुषों की साझेदारी अवश्य रही। आखिर क्या मजबूरी थी इन राजनेताओं की? आचार्य चाणक्य ने राजा और संन्यासी दोनों के लिए समान रूप से तप और संयम का महत्व बताया है। आजकल के जमाने में राजतन्त्र तो समाप्त हो गया, जनप्रतिनिधि ही राज-काज चलाते हैं। उनके लिए भी आचार्य चाणक्य के उपदेशों को उतना ही महत्व है । लेकिन ये महत्वपूर्ण उपदेश उस समय महत्वहीन हो जाते हैं, जब लोकसेवी होना व्यापारिक महत्व की बात बन जाय।

प्राचीनकाल में लोकसेवी को राजर्षि कहा जाता था। अर्थात् राजा होने पर भी उसका उद्देश्य ऋषित्व प्राप्त करना था।राजर्षि जनक की यह परम्परा स्वतंत्रता के बाद लालबहादुर शास्त्री ने निभाई भी 1 राजनेता के रूप में उन्होंने देश का भरपूर प्यार पाया। त्याग की प्रतिष्ठा को उन्होंने अपने जीवन में भली प्रकार प्रमाणित किया। शायद यही कारण था कि प्रधानमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल घोटालों से मुक्त रहा। उनके निधन के बाद व्यवस्था बदली और 1971 में रुस्तम सोहराब नागर वाला ने शीर्ष व्यक्तियों की साँठ-गाँठ से 60 लाख रुपये का घोटाला कर डाला। इसके बाद 1980 में इंडियन ऑयल कारपोरेशन के ठेके में नौ करोड़ रुपए की हेराफेरी हुई। वर्ष 1982 अन्तुले काण्ड के रूप में चर्चित रहा। इन्हीं सालों में मध्यप्रदेश का छोटा-सा कस्बा चुरहट, राजनेताओं के प्रयासों से पर्याप्त चर्चित हुआ। यह चर्चा चार करोड़ दस लाख की हेराफेरी को लेकर हुई और फिर हुआ बोफोर्स काण्ड, जिसमें एक स्वीडिश कम्पनी ने अपनी बोफोर्स तोपें बेचने के लिए 64 रुपये की दलाली दी।

घोटालों में एक नया आयाम जोड़ा प्रतिभूत घोटाले ने। इस शेयर घोटालों में बैंकों के उच्च अधिकारियों, राजनेताओं की मिलीभगत से 10 हजार करोड़ की हेराफेरी की गई। इसी के थोड़े दिनों में चर्चित हुआ हवाला काण्ड, जिसमें अधिकाँश राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के चरित्र को उजागर कर दिया। देश की जनता पेशोपेश में पड़ गई है कि आखिर हम किसे सौंपे शासन का सूत्र संचालन? शायद यही कारण रहा लोकजीवन ने सभी को एक साथ अस्वीकार कर दिया। इसी के बाद 133 करोड़ रुपए का यूरिया घोटाला प्रकाश में आया। कृषि प्रधान देश भारत के किसानों के लिए जिस धन से यूरिया मँगाई जाने वाली थी, वह राजनेताओं और उनके सम्बन्धियों की जेब में चला गया। घोटालों के इस अध्याय में अपनी मार्मिक टिप्पणियाँ जोड़ते हुए सेण्ट किट्स जालसाजी काण्ड और लखू भाई पाठक काण्ड की चर्चा भी जोरों पर है।

राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में अपने देश का बिहार चर्चित भी हुआ और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं लोकनायक जयप्रकाश नारायण के कारण लोकप्रिय भी रहा। इन दिनों भी उसका मूल्य एवं महत्व कम नहीं है। पशुपालन घोटाले में एक हजार करोड़ रुपए की हेराफेरी , झारखण्ड क्षेत्र में हुआ 300 करोड़ का दवा घोटाला , 100 करोड़ रुपए का वन घोटाला, 71 करोड़ रुपए का मत्स्य पालन घोटाला, 10 करोड़ रुपए का तारकोल घोटाला, थोड़े ही समय में इन सबकी एक साथ चर्चा से देशवासी हैरत में हैं कि आखिर वह कौन-सा बिहार है, जिसमें महात्मा बुद्ध एवं भगवान महावीर ने अपरिग्रह का उपदेश दिया था ? क्या यह वही बिहार है, जहाँ सम्राट अशोक जीवन के अन्तिम चरण में सर्वत्यागी हो गए थे।

इस तरह के प्रश्न अनगिनत हैं, तो घोटालों की गिनती का भी अन्त नहीं है। एक तरह के घोटाले को सुनकर लगता है कि शायद यह अब तक की सबसे बड़ी रकम है, लेकिन अगले दिन उससे भी बड़ी रकम को सुनकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। अभी कुछ ही समय पूर्व चर्चा में आया केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग का चिकित्सा उपकरण पाँच हजार करोड़ डालर का है। छोटे-मोटे घोटाले तो जैसे रोज की बातें हो गयी हैं। मध्यप्रदेश की एक कम्पनी ‘हिन्दुस्तान काँस्ट्रक्शन लिमिटेड’ की भिलाई इकाई में 150 करोड़ रुपए का घोटाला प्रकाश में आया है। समाचार पत्रों, दूरदर्शन, आकाशवाणी की ध्वनि तरंगों में प्रायः हर दिन किसी न किसी घोटाले अथवा उससे सम्बन्धित चर्चा अब सामान्य बात हो गयी है।

घोटालों की इतनी लम्बी लिस्ट पढ़कर मन सोच में पड़ जाता है आखिर त्यागी-तपस्वी, ऋषि-मुनियों का देश घोटालों का देश कैसे बन गया ? और इन घोटालों की कीचड़ से सन चुके अपने देश का भविष्य क्या होगा? ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनसे प्रायः हर देशवासी आकुल-व्याकुल है। वर्तमान के क्षणों में निराशा का अंधेरा इतना घना हो गया लगता है कि भविष्य की उज्ज्वल किरण कहीं नजर नहीं आती।

पर जिनके पास सूक्ष्म दृष्टि एवं प्रखर चिन्तन है, वे वर्तमान स्थिति का सार्थक विश्लेषण कर सकते हैं। घोटालों के इन चढ़ते-बढ़ते प्रकरणों के पीछे स्पष्ट देखा जा सकता है-अपनी साँस्कृतिक परम्पराओं, जीवन-मूल्यों का अवमूल्यन। हमारे देश की साँस्कृतिक दुरावस्था इतनी कभी नहीं हुई जितनी कि आज है। त्याग की अग्निशिखा, भोग की बूँदों से घिर गई लगती है। ऐसे में आवश्यकता उन व्यक्तित्वों की है, जो अपने स्वार्थों की आहुति साँस्कृतिक क्रान्ति के लिए कर सकें। शिक्षण जीवन एवं चरित्र से होता है। त्याग की भावनाओं से ओत-प्रोत व्यक्तित्व उस सिंह की तरह है, जिसकी एक गर्जना में हजारों भेड़ों को भगा देने की दम है।

भविष्य के सम्बन्ध में उठने वाली आशंकाओं-कुशंकाओं का कोई कारण नहीं है। जिन्हें सूक्ष्मदृष्टि, दिव्यदृष्टि प्राप्त है, वर्तमान प्रकरण को भगवान महाकाल का सफाई अभियान समझ सकते हैं। महारुद्र का कालदण्ड किसी को छोड़ेगा नहीं, वह फिर कितना ही बड़ा क्यों न हो और अपने बचने के कितने उपाय क्यों न कर ले। उपनिषद् के ऋषियों ने बहुत पहले समझाया था, ‘मा गृधः कस्य स्विद् धनम् लोभवृत्ति छोड़ो, भला यह धन किसका हुआ है। ऋषियों की यह आर्य वाणी हममें से कितनों ने कितनी अच्छी तरह समझी, मालुम नहीं, पर आगामी दिनों में महारुद्र का ताण्डव नर्तन, परमेश्वरी प्रकृति का दण्ड विधान प्रायः सभी को इसी तथ्य का बोध करा देंगे। राजनेता, व्यापारी, बुद्धिजीवी कोई भी इस कालचक्र से बच न सकेगा।

यह प्रक्रिया भारत में ही नहीं विश्व के अन्य भूभागों में भी तीव्र होगी। आज भी विभिन्न देशों में इसकी झलक देखी जा सकती है। कोलम्बिया के राष्ट्रपति अर्नेस्टो सैम्पर तथा उनके डेढ़ दर्जन साँसद मादक द्रव्यों के व्यापारियों से धन लेने के आरोप में अपने को फँसा हुआ महसूस कर रहे हैं। ब्राजील के पूर्व राष्ट्रपति फर्नाण्डो काँल्लर द मेल्लों को दिसम्बर 1992 में ऐसे ही आरोपों के कारण पद त्यागना पड़ा था। वे आज बरी भले हो चुके हों, पर कोई भी ब्राजीलवासी उन्हें निर्दोष मानने के लिए तैयार नहीं। वेनेजुएला के पूर्व राष्ट्रपति जैमे लुसिंची अपना निर्वासन समाप्त कर अभी हाल में ही लौटे हैं। उन पर भी सार्वजनिक कोष से भारी धन गायब करने का आरोप था। अपने विरुद्ध उठे आक्रोश के ही भय से वह कोस्टारिका भाग गए थे, परन्तु यह मामला पाँच साल पहले का था और वेनेजुलाई कानून के अनुसार पाँच साल बीत जाने के बाद किसी मामले की सुनवाई नहीं हो सकती। कानून की इसी कमजोरी का उन्हें लाभ भले मिल गया हो, लेकिन उनके उत्तराधिकारी कार्लोस आँद्रेज पेरेज एक करोड़ सत्तर लाख डालर के सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में मुकदमें में फँस चुके हैं। उधर इक्बेडोर के पूर्व सार्वजनिक धन का अपने हित में दुरुपयोग करने का मामला चल रहा है। वे आजकल भागकर कोस्टारिका में शरण लिए हुए हैं, लेकिन कब तक ?

अभी सबसे ताजतरीन मामला दक्षिण कोरिया का है। जहाँ दो पूर्व राष्ट्रपतियों को भ्रष्टाचार एवं राजद्रोह के लिए दंडित किया गया है। इनमें से चुन टू ह्वान को मौत तथा रोह ताई चू को साढ़े बाईस वर्ष के सश्रम कारावास का दण्ड मिला है। इन दोनों को क्रमशः सत्ताईस करोड़ साठ लाख एवं चौंतीस करोड़ सत्तर लाख डालर जुर्माने की सजा मिली है। दोनों पर व्यापारियों को अवैध लाभ पहुँचाने का आरोप था। जापान के पर्वू प्रधानमंत्री नोबुरो ताकेशिता को रिक्रूट घोटाले के कारण इस्तीफा देना पड़ा था। वर्तमान सरकार के खिलाफ भी एक के बाद एक स्कैण्डल उभरते चले जा रहे हैं। इनमें से दो मुख्य हैं। पहला बैंक घोटाले से सम्बन्धित है। इसमें एक खरब डालर का ऋण गलत तरीके से जारी किया था, दूसरा घोटाला स्वास्थ्य मंत्रालय से सम्बन्धित है। इसके अंतर्गत अधिकारियों ने औषधि निर्माता कम्पनियों को दूषित रक्तों से बनी औषधियाँ देने की इजाजत दी थी। इनमें एड्स के विषाणु से सवंमित रक्त भी शामिल थे।

भारत का पड़ोसी देश नेपाल भी भ्रष्टाचार के विस्फोट से उद्वेलित है। वहाँ लगभग 188 करोड़ नेपाली मुद्रा के गबन किये जाने का मामला प्रकाश में आया है। अर्थमंत्री रामशरण, गृहमंत्री खूम बहादुर एवं स्वयं वहाँ के प्रधानमंत्री अपने को फँसा हुआ महसूस कर रहे हैं। यूरोप के प्रख्यात देश इटली में वहाँ के सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लगभग तीन हजार राजनेता एवं व्यवसायी जिनमें तीन पूर्व प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, विभिन्न आरोपों का सामना कर रहे हैं। स्पेन के प्रधानमंत्री फिलिप गोंजालेज भी वर्तमान भ्रष्टाचार विरोधी लहर के थपेड़ों से घिरे हुए हैं। पूर्व आन्तरिक मंत्री जोस बैरिओ न्यू एवो एवं उनके तेरह सहयोगी भी अपनी जालसाजियों के चक्रव्यूह में फँसे चुके हैं। फ्राँस में भी भ्रष्टाचार विरोधी धरपकड़ जारी है। यूँ फ्राँस का कानून राजनेताओं को खास संरक्षण देता है। बावजूद इसके तीन पूर्व कैबिनेट मंत्री तथा राष्ट्रपति पद के दो-दो दावेदार भ्रष्टाचार विरोधी गतिविधियों की चपेट में है।

मध्य अमेरिकी देश मैक्सिको भी धीरे-धीरे इस लहर की चपेट में आता दिख रहा है। पूर्व राष्ट्रपति कार्लोस सैलिनस स्वयं तो अभी अपने को किसी तरह बचाए हैं, लेकिन उनके भाई राल धन गबन एवं राजनैतिक हत्याओं के अपराधी घोषित हो चुके हैं। अफ्रीकी देशों में केन्या का मामला सबसे ऊपर है। केन्या के सेण्ट्रल बैंक से विलुप्त हुए तीस करोड़ डालर की घटना से शुरू में भ्रष्टाचार के उजागर होने की कड़ी देशव्यापी होती जा रही हैं इस कड़ी का महत्वपूर्ण हिस्सा बन्दरगाह घोटाला है। जिसमें अनेक उच्चाधिकारी एवं राजनेता अन्तर्लिप्त हैं। दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला कम्यूनिस्ट देश चीन भी अपने को इस संक्रमण से बचा नहीं पाया है। यद्यपि अभी तक भ्रष्टाचार के आरोप में केवल एक शीर्ष राजनेता को ही पोलित ब्यूरो से बर्खास्त किया गया है। लेकिन इस चक्रव्यूह में अभी अनेकों के फँसने की उम्मीदें हैं।

भ्रष्टाचार निवारण इन प्रयासों के पीछे परोक्ष सत्ता के सक्रिय स्पन्दन अनुभव किये जा सकते हैं। मानवी प्रयासों की एक सीमा होती है, परन्तु सृष्टि की संचालक सत्ता अपने कार्यों का असीम सामर्थ्य के अनुरूप ही अपने कार्यों का असीम विस्तार भी करती है। भारत को केन्द्र बनाकर विश्व परिधि में हो रही हलचलों को इसी रूप में आँका जाना चाहिए। जो कालगति को पहचान सके, वे स्वयं की गतिविधियों पर नियंत्रण कर लें अन्यथा कालचक्र की दुर्बारगति, किसी के भी धन, पद , सामाजिक हैसियत का विचार किए बिना नवयुग की मर्यादाओं का बोध कराए बिना न रहेगी। अब सबको उपनिषद् का यह मार्मिक उद्बोधन सुनना ही पड़ेगा। -’मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।’ इस समझदारी की व्यापकता ही भारत को व समस्त विश्व को उसके अतीत का गौरव वापस दिलाने वाली होगी।


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