एक रात में सिद्धहस्त

November 1996

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एक बार महारावल जवाहरसिंह के दरबार में भावलपुर -पंजाब से मशहूर संगीतकार ‘मिरजू की औलाद’ उपस्थित हुआ। सरोदवादन के साथ ही गायन में उसका कोई मुकाबला न था। उसे अपनी इस कला पर बहुत गुमान था। उसे अपनी इस कला पर मुकाबला न था। उसे अपनी इस कला पर बहुत गुमान था। वह महारावल के दरबार में उपस्थित हुआ और कहने लगा कि सरोवादन में उससे कोई टक्कर नहीं ले सकता।

जवाहरसिंह कला-पारखी तो थे ही । सो उनको यह बात खटक गयी। उन्होंने बिना सोचे-समझे इसकी परीक्षा के लिए अपने आलमखाना घराने के प्रसिद्ध संगीतकार आरबाँखाँ को दरबार में बुलाया । राजाज्ञा पाकर आरबाखाँ महारावल के दरबार में उपस्थित हो गये। जहाँ वह भागलुपर का रहने वाला मिरजू की औलाद पहले से ही बैठा हुआ था। सारा वाकया जानने के पश्चात् आरबाखाँ ने महारावल से यह विनती की कि भावलपुर के संगीतज्ञ से फिलहाल तो बानगी के तौर पर थोड़ा-बहुत सुन लिया जाय, बाद में उसे और मौका दे दिया जाय।

आरबाखाँ का निवेदन स्वीकार करते हुए महारवल ने ऐसा ही आदेश दिया । इसके बाद ‘मिरजू की औलाद के ठहरने, भोजन आदि का इन्तजाम करा दिया गया।

यह सब देखकर जैसलमेर राज्य के दरबारी संगीतज्ञ आरबाखाँ के सामने चुनौती उपस्थित हो गयी। सरोद जैसे वाद्य को आरबाखाँ ने पहली बार देखा था। उन्हें दरबार में भावलपुर के इस आगन्तुक संगीतकार का सरोदवादन सुनकर विश्वास हो गया कि उसको चुनौती गलत नहीं है। निस्संदेह इस आगंतुक संगीतकार के सरोवादन का मुकाबला करने वाला संगीतकार जैसलमेर तो क्या समूचे राजपूताने में ढूंढ़ नहीं मिलेगा। आगन्तुक संगीतकार की योग्यता में कोई सन्देह नहीं था। पर उसमें दम्भ था। उसके प्रत्येक शब्द से घमण्ड टपकता था। यह ‘अहं’ उन्हें अच्छा न लगा।

प्रश्न उनकी हार-जीत का न था। उसके साथ जैसलमेर की प्रतिष्ठा जुड़ी थी। महारावल की आँखों में उनके प्रति असीम विश्वास था। मानो वे आँखों ही आँखों में कह रहे हों कि आरबाखाँ जैसलमेर की प्रतिष्ठा का भार तुम पर सिर्फ तुम पर सिर्फ तुम पर है। महारावल के इस भरोसे को वह तोड़ना नहीं चाहते थे। पर करें क्या? सरोवादन उन्होंने पहली बार देखा था और मुकाबला तो कल ही होना है। इतनी जल्दी सिर्फ एक रात्रि में भला क्या किया जा सकता था? फिर भी अचानक उनके मन में एक संकल्प उभरा। मन ही मन उन्होंने तय कर लिया कि वह मिरजू की औलाद को कल दरबार में हराकर रहेंगे। आनन-फानन में योजना बना डाली व इसको क्रियान्वित करने में जुट गए।

आरबाखाँ ने दरबार में मिरजू की औलाद को सरोद बजाते हुए ध्यानपूर्वक देखा था। वह तुरन्त ही अपने बढ़ई मित्र के पास पहुँचें व उसके सरोद का हुलिया बताया। बढ़ई ने पाँच-छह घण्टे में ढाई फुट लम्बा सरोद बना दिया व उसमें 150 तार कस दिए।

आरबाखाँ इस सरोद को लेकर रात को घर पहुँचे और अपनी आराध्य देवी माँ शारदा को प्रणाम करके बिना खाए-पिए ‘नखली’ से बजने वाले इस वाद्य को बजाने के रियाज में जुट गए। वह रातभर सरोद वादन का रियाज करते रहे। मानवी पुरुषार्थ जब अपने चरम में पहुँच कर भगवत कृपा से तदाकार हो जाता है, तब कुछ भी असम्भव नहीं रहता। परमेश्वर की अनन्त एवं असीम शक्तियाँ स्वभावतः मानवी प्रयास-पुरुषार्थ के झरोखे से अभिव्यक्ति होने लगती हैं। इन क्षणों में भी यही हुआ। रातभर रियाज करते-करते भोर होते इस सरोद यन्त्र से निकलने वाली सभी राग-रागनियों के स्वर निकालने में वह स्वयं ही पारंगत हो गए।

अगले दिन आम दिनों की तरह आरबाखाँ राजमहल में पहुँचे। दिनभर के राज कार्यों को निबटा लेने के बाद महारावल जवाहरसिंह ने भावलपुर से आए संगीतकार -मिरजू की औलाद ‘ को बुलावा भेजा। महारावल ने उसके आने के साथ ही उससे अपनी कला को प्रदर्शित करने का आग्रह किया। इस आग्रह के साथ मिरजू की उँगलियाँ सरोद पर अपना कमाल दिखाने लगी। महारावल उसके सरोदवादन को बहुत आनन्द से सुनते रहे। उनके मुँह से जैसे-जैसे ही वाह-वाह की आवाज निकली कि भावलपुर संगीतकार बड़े गर्व से कहने लगा, “महाराज, क्या आपने ऐसा मधुर संगीत पहली बार सुना है?”

उत्तर में महारावल ने कहा, “नहीं, हमारे दरबार में भी संगीत का आलमखाना घराना है, कहकर उन्होंने उस्ताद आरबाखाँ को बुलवा लिया। महारावल ने आरबाखाँ के सामने एक बार फिर भावलपुर के संगीतकार के सरोदवादन की प्रशंसा की, इसी के साथ ही उन्होंने आरबाखाँ को अपना संगीत सुनाने का आदेश दिया।

दरबार में फिर से दोनों ही ओर के संगीतज्ञ अपने-अपने साज के साथ बैठ गए। मिरजू की औलाद के सरोदवादन के पश्चात आरबाखाँ की बारी आयी। आरबाखाँ ने कपड़े में लिपटे अपने सरोद को निकाला और अपनी तान छेड़ दी। सरोद के तारों में उनकी उँगलियों की तत्परता उनके चेहरे पर भावों के उतार-चढ़ाव के साथ गतिमान थी। यद्यपि जैसलमेर के आलमखाना घराने के उस्ताद ने अब तक दरबार में सरोदवादन नहीं किया था। पर आज तो वह आगन्तुक संगीतकार की विशेषज्ञता से काफी आगे निकल गया। उसने सभी राग-रागनियां स्वर सहित दरबार में पूरी कलात्मकता के साथ सुना दीं।

यह सब देखकर महारावल मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए। आगन्तुक संगीतकार सकते में आ गया। उसने अपनी सरोद पर लगी लाल कपड़े की ध्वजा को उतार दिया। इसका मतलब था कि वह सरोदवादन में हार गया। उसके द्वारा अपनी हार को स्वीकार करते ही महारावल ने अपने गले में पड़ा हीरे का दमकता कण्ठा आरबाखाँ की ओर प्रसन्नता से उछाल दिया। इसे स्वीकार कर आरबाखाँ ने मिरजू की औलाद के समक्ष नतमस्तक होते हुए उसे यह कण्ठा भेट करते हुए कहा -मेरी ओर से आपको यह गुरु-दक्षिणा । मैंने तो एकलव्य की तरह आप को ही गुरु मानकर यह इल्म सीखा है। आरबाखाँ की इस विनम्रता के समक्ष भावलपुर के संगीतकार का घमण्ड पानी-पानी हो गया था। महारावल जवाहरसिंह भी आरबाखाँ की लगन की महानता को देखकर अभिभूत थे। उन्हें विश्वास हो गया कि मनुष्य की लगन किसी भी असम्भव को सम्भव कर सकती है।


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