सामंजस्य से भरा व्यक्तित्व ही अर्द्धनारी-नटेश्वर

November 1996

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अर्द्धनारी-नटेश्वर की भारतीय कल्पना जिस समय की गई होगी, उस वक्त दार्शनिकों के मस्तिष्क में शायद यह विचार उठा हो कि एकदम क्रूर और कठोर एवं बिल्कुल शान्त और सरल प्रकृति के सर्वथा दो भिन्न व्यक्तित्वों को संतुलित कैसे किया जाय? कारण कि दोनों ही व्यक्तित्व की दो अतियाँ हैं। नृशंसता सदा समाज में अस्थिरता और अराजकता पैदा करती है, जबकि नमनीयता अपनी मृदुलता के कारण सर्वदा प्रवंचित होती है। एक अपनी कठोरता के कारण दूसरों को लूटता है, तो दूसरा अपनी ऋजुता के कारण लुट जाता है। यह दोनों ही स्थितियाँ ठीक नहीं। व्यक्तित्व में अन्याय का सामना करने जितना पौरुष भी होना चाहिए और कठोरता को पिघलाने वाली करुणा भी। इन दोनों गुणों के समन्वित स्वरूप को ही संतुलित व्यक्तित्व की संज्ञा दी जा सकती है। सामाजिक एवं वैयक्तिक विकास इसी स्थिति में आगे जारी रह सकती है। सम्भवतः इसी कारण मनीषियों ने यह विचित्र कल्पना की होगी और इस प्रकार की देव-छवियों को चित्रित कर समाज को इसके पीछे का तत्वज्ञान समझाना चाहा होगा।

पर विज्ञानवेत्ता भारतीय दर्शन की इस कल्पना के पीछे छिपे मर्म को न समझकर ऐसे किसी तथ्य की तलाश करते रहे, जो इसके अनुरूप हो। यह बात और है कि इस खोज-प्रक्रिया में कई ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आयीं , जो अर्द्धनारी-नटेश्वर की कल्पना को साकार करती थीं उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड के बाँबी क्लार्क को लिया जा सकता है। क्लार्क की शरीर-संरचना ऐसी थी, जिसे न तो पूरी तरह पुरुष ही कहा जा सकता था, न स्त्री ही। उसके वक्षस्थल में एक ओर स्त्रियों जैसा विकसित स्तन था, तो दूसरी ओर पुरुषों जैसी सपाट और चौड़ी छाती। इसके अतिरिक्त पृथक्-पृथक् स्त्री और पुरुष जननाँग भी थे। शरीर की इस विचित्रता के कारण उसके दिमाग में एक योजना आयी वह इसके प्रदर्शन द्वारा पैसा कमाने की सोचने लगा। इसके लंदन के कई स्थानों पर उसने अपनी प्रदर्शनी लगायी। प्रदर्शनी में इस बात की पूरी छूट थी कि यदि किसी को इस पर किसी प्रकार का संदेह हो तो वह इसका निरीक्षण-परीक्षण कर अपनी शंका-निवारण कर सकता है, पर इसके लिए उसे अलग से एक टिकट खरीदना पड़ता। टिकट ले लेने के उपरान्त व्यक्ति को इस बात का अधिकार मिल जाता कि वह उसके शरीर का हर प्रकार से अवलोकन कर सके और इस तथ्य का पता लगा सके कि इसमें कोई धोखा तो नहीं है। मूर्धन्य चिकित्साशास्त्री फ्रेडरिक ड्रिमर ने अपनी पुस्तक ‘वेरी स्पेशल पीपुल‘ में इस प्रसंग का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है और लिखा है कि विज्ञान भले ही इसे शरीर विकास संबंधी विकृति मानता हो, पर वास्तव में यह मानवी हो, पर वास्तव में यह मानवी-सत्ता में निहित नर-नारी के दोनों पक्षों की उपस्थिति का ही प्रमाण है। इसे संरचना संबंधी त्रुटि कहना उतना उचित नहीं होगा, जितना कि सूक्ष्म की स्थूल अभिव्यक्ति ।

अब तो विज्ञान भी इसे स्वीकारता है कि हर व्यक्ति में रस-स्रावों की दो भिन्न प्रकृति होती हैं। एक अपने अन्दर पुरुष प्रधान तत्वों को सँजोये रहता है, तो दूसरा नारी प्रधान । विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि वास्तव में व्यक्तित्व निर्माण में इन्हीं दो की मुख्य भूमिका होती है। शरीर में जब इन रसों का संतुलन गड़बड़ाता है, तो व्यक्तित्व संबंधी दोष पैदा होने लगते हैं। यदि कभी पुरुष शरीर में नारी हारमोन बढ़ने लगें, तो उसकी आकृति-प्रकृति दोनों में ही नारी-लक्षण उभरने लगते हैं। उदाहरण के लिए, आवाज का स्त्रियों जैसी पतली हो जाना, दाढ़ी-मूँछों का चेहरे पर सर्वथा अभाव होना, वक्षस्थल का बाल रहित होना आदि। शरीरशास्त्र की भाषा में कहे तो इसे ‘सेकेण्ड्री सेक्सुअल कैरेक्टर’ (अप्रधान यौन लक्षण) का अभाव होना कह सकते हैं। यह तो प्रकट लक्षण हुए। इसके अतिरिक्त अप्रकट स्तर के कितने ही ऐसे उभार उनमें दिखाई पड़ने लगते हैं, जो पुरुषोचित कम, स्त्रियोचित अधिक जान पड़ते हैं, जैसे शरीर-गठन और डील-डौल पहलवानों जैसा होने पर भी साहस की दृष्टि से वे कायरों से भी गये-बीते प्रतीत होते हैं। कई बार उनमें प्रखरता का इतना अभाव दिखाई पड़ता है कि जो क्षति स्वल्प साहस के प्रदर्शन से टाली जा सकती थीं, उसे भी वे अपनी कमजोर प्रकृति के कारण सहज ही स्वीकार लेते हैं। यह वास्तव में और कुछ नहीं, उस रस-स्राव का ही खेल है, जो व्यक्ति में विपरीत स्वभाव को इतना और इस कदर उभार देता है कि शरीर के साथ उसकी किसी भी प्रकार संगति नहीं बैठती। इसके विपरीत नारी देह में जब पुरुष प्रकृति का आविर्भाव होता है, तो काया की कोमलता समाप्त होने लगती है और इसका पुरुष जन्य शरीर-गठन लेने लगता है। यदा-कदा उनके दाढ़ी-मूंछें भी निकल आती हैं, पर यह उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि उनका आन्तरिक परिवर्तन । इस परिवर्तन से उनके आचरण में पुरुषत्व के लक्षण उभरने लगते हैं और उनकी साहसिकता बढ़ी-चढ़ी दिखाई पड़ने लगती है, मनोबल में असाधारण वृद्धि हो जाती है और जिस कार्य को करने में सामान्य महिलाएँ सहमती तथा डरती हैं, उसे वे सरलतापूर्वक सम्पन्न कर लेती हैं। ऐसी नारियों को पुरुष प्रधान नारी कहना अधिक उपयुक्त होगा। इन्दिरा गाँधी, गोल्डामायर, चन्द्रिका कुमार तुँग, बेनजीर भुट्टो, शेख हसीना वाजिद, एक्वीनो एवं पिछले समय की वीराँगनाएँ इसी श्रेणी में आती हैं। जब यह उभार अल्प स्तर का होता है, तो परिवर्तन सिर्फ बाह्य स्तर के रहन-सहन और रुझान तक सीमित होकर रह जाते हैं। स्त्रियों में पुरुष पहनावे के प्रति आकर्षण होना, घर की तुलना में बाहर के कार्यों में अभिरुचि लेना, बढ़-चढ़कर बातें करना, डींग हाँकना , नर जैसी चाल-ढाल होना आदि इस बात के द्योतक हैं। पुरुषों में से कुछ इसका उलटा दिखाई पड़ता है, अर्थात् नारियों जैसा आचार-व्यवहार, रहन-सहन, दब्बूपन, लज्जा-शीलता, मितभाषिता, एकान्तप्रियता आदि, परन्तु नारी सुलभ संवेदना, करुणा, ममता, उदारता का स्पष्ट अभाव इस बात का संकेत है कि पुरुष के भीतर की पूर्ण नारी प्रकट नहीं हो सकी।

अपनी रचना ‘वण्डर वुमन एण्ड सुपरमैन’ में मूर्धन्य लेखक जॉन हैरिस लिखते हैं कि ईसा, सुकरात, बुद्ध महावीर आदि स्त्रैण प्रकृति के थे। उनमें एक सम्पूर्ण स्त्री तो प्रकट हुई भी, पर एक पूर्ण पुरुष का अभाव था। उनने दया, ममता, करुणा, अहिंसा का पाठ तो संसार को पढ़ाया , पर उस गुण से समाज को एक प्रकार से वंचित रखा जिसे शौर्य और साहस कहते हैं। यह वह गुण है जिनके अभाव में व्यक्ति को एकाँगी और एक-पक्षीय ही कहना पड़ेगा और पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। वे लिखते हैं कि नारी को सम्पूर्ण अधिकार पूरे विश्व में आज भी सिर्फ इसलिए नहीं मिल पायें हैं कि वह कोमलाँगी है एवं नहीं है। यदि उसका पुरुष पक्ष भी समान रूप से विकसित होता, तो आज उसकी स्थिति कुछ और होती।

पुरुषों के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। उनमें यदि पुरुषोचित गुणों का विकास नहीं हुआ और उनके भीतर की केवल नारी ही प्रकट होकर रह गई, तो ऐसा व्यक्तित्व शोषण का प्रतिकार प्रचण्ड पौरुष से ही संभव है, उसे पैदा किये बिना उससे बच पाना प्रायः असंभव हैं। ईसा को सूली पर चढ़ा दिया गया। सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ा, भक्त जयदेव के हाथ-पैर काट लिए गये। इन सभी घटनाओं में उस पौरुष का अभाव ही झलकता दिखाई पड़ता है, जिसकी उपस्थिति में प्रतिरोध और पराक्रम बन पड़ते हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि अकेली आक्रामकता उतनी ही खराब है, जितनी कि अकेली मृदुलता, क्योंकि अकेली आक्रामकता निरंकुश बन बैठती है जबकि एकाकी कोमलता असहाय महसूस करती है। चोरों, डकैतों, लुटेरों, आतंकवादियों में नर की प्रखरता तो पूर्ण रूप से प्रकट और प्रत्यक्ष हो जाती है, पर संवेदना के अभाव में वह उपद्रव रचती रहती है। इन दिनों यही हुआ है। सर्वसाधारण की साहसिकता में असाधारण वृद्धि हुई है, पर इसकी सहचरी करुणा के न होने के कारण दिग्भ्रान्त बन बैठी और अराजकता एवं अशान्ति की निमित्त सिद्ध हो रही है। यह अहितकर है और खतरनाक भी।

मानवी प्रकृति लाभ-हानि के परिप्रेक्ष्य में सामान्यतया दो प्रकार की मानी गई हैं। एक में वह स्वयं लाभ उठाकर दूसरों को हानि के गहरे गर्त में धकेल देती है, जबकि दूसरे में स्वयं क्षति सहकर अन्यों को लाभ उठा देने के लिए तैयार हो जाती है या यों कहें कि वह विवश होती है। कई बार इसे उसकी उदारता कहते हैं, तो अनेक अवसरों पर यह कायरताजन्य निर्बलता सिद्ध होती है। इस प्रकार इस सम्पूर्ण संदर्भ में मानवी व्यक्तित्व को कुल चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है- पुरुष प्रधान पुरुष और नारी प्रधान पुरुष-यह पुरुषों की दो कोटियाँ हुईं एवं पुरुष प्रधान नारी तथा नारी प्रधान नारी-यह महिलाओं के दो विभाग हुए। पुरुष प्रधान पुरुष एवं पुरुष प्रधान नारी की स्थिति में चूँकि व्यक्तित्व में नर तत्व हावी होता है, अतः यह प्रकृति व्यक्तित्व और समाज दोनों में ही अस्थिरता पैदा करती है। इसके विपरीत नारी में अपनी प्रधान पुरुष और नारी प्रधान नारी में अपनी ही कायरता और कमजोरी के कारण मनुष्य प्रताड़ना के पात्र बनते हैं। ऐसे में न तो पहली स्थिति ठीक कही जा सकती है, न दूसरी अवस्था को उचित ठहराया जा सकता है, कारण कि दोनों ही असंतुलित व्यक्तित्व हैं। इसलिए दोनों के बीच संतुलन आवश्यक माना गया हैं।

इस प्रकार अर्द्धनारी-नटेश्वर की मूल अवधारणा ही संतुलन-समीकरण जैसे दृष्टिकोण पर आधारित है। इसमें न तो किसी कौतुकपूर्ण संरचना की ओर संकेत है, न ही इस बात का आग्रह कि तुर्त-फुर्त में ऐसा कुछ उपक्रम अपनाया और यह सिद्ध किया जाय कि व्यक्तित्व संतुलित है और उसमें नर-नारी के दोनों तत्वों की समान अभिव्यक्ति हुई है। वास्तव में यह एक समयसाध्य प्रक्रिया है, जिसमें उद्दण्डता को साधते और नमनीयता को उभारते हुए ऐसा कुछ करना पड़ता है, जिससे वे स्थायी और स्थिर हो सके एवं व्यक्तित्व को एक ऐसी अवस्था प्रदान कर सकें जिसे ‘साम्य’ कहा जा सके। यही है अर्द्धनारी-नटेश्वर का वास्तविक तत्वदर्शन । इसे समझा और अपनाया जाना चाहिए।


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