धर्म के नाम पर चित्र-विचित्र ये परम्पराएँ

November 1996

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धर्म का तात्पर्य शालीनता, सदाचरण, नीतिमत्ता एवं कर्तव्यपरायणता से है। यह प्रयोजन उच्चस्तरीय आस्थाओं के सहारे ही सधते हैं। पर विकृतियों एवं भ्राँतियों को क्या कहा जाय, जिनके धर्मक्षेत्र में प्रवेश पा जाने और गहरी जड़ें जमा लेने के कारण आज भी मानव समुदाय न्याय और औचित्य की तुलना में परम्पराओं से चिपके रहने के लिए ही बाधित है। इस वैज्ञानिक युग में भी जहाँ तर्क, तथ्य और प्रमाणों के आधार पर किसी चीज की वास्तविकता को जाँचा-परखा और कसौटी पर खरा उतरने के पश्चात् ही अपनाया जाता है, वहाँ धर्म के संबंध में ऐसी बात देखने को नहीं मिलती।

धर्मक्षेत्र में जितने मतभेद एवं मत-मतान्तर देखने सुनने में आते हैं, उतना ओर किसी विषय में शायद ही मिल सके। यह भेद अज्ञानियों में ही नहीं, समझदार और उन्नत-प्रगतिशील लोगों में भी देखने में आता है। हिन्दू गौ को पवित्र मानते और उसका एक रोम भी दूध के साथ पेट में चले जाने पर घोर पाप समझते हैं, वहाँ अन्य सम्प्रदाय वाले उसकी गाय को खुदा के नाम पर काटकर खा जाने में बड़ा पुण्य मानते हैं। ईसाई बिना पाप-पुण्य के झगड़े में पड़े नित्य ही उसके माँस को एक साधारण आहार की तरह ग्रहण करते हैं। यहूदी भगवान की उपासना करते समय मुँह के बल लेट जाते हैं, कैथोलिक ईसाई घुटनों के बल झुकते हैं, प्रोटेस्टेंट ईसाई कुर्सी पर बैठकर प्रार्थना करते हैं। मुसलमानों की नमाज में कई बार उठना-बैठना पड़ता है और हिन्दुओं की सर्वोच्च प्रार्थना वह है जिसमें साधक ध्यानमग्न होकर अचल हो जाय। यदि कहा जाय कि इन सब में एक ही उपासना विधि ठीक है और दूसरी अन्य सभी बेकार हैं, तो भी काम नहीं बनता। अन्य में भी अनेक व्यक्ति बड़े सन्त और त्यागी महात्मा हो गये हैं। धार्मिक क्षेत्र के इसी घोर वैम्य को देखकर मूर्धन्य लेखक एस. बैरिंग गोल्ड ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘ओरीजिन एण्ड डेवलपमेंट ऑफ रिलीजियस बिलीफ’ में लिखा है कि, “संसार में समस्त प्राचीन युगों से अगणित ऐसे धार्मिक विश्वास पाये गये हैं, जो एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं और जिनकी रस्मों तथा सिद्धान्तों में जमीन-आसमान का अन्तर है। एक प्रदेश में मन्दिर का पुजारी देवमूर्ति को मानव रक्त से लिप्त करता है दूसरे ही दिन अन्य धर्म का अनुयायी वहाँ आकर उसे तोड़ कर गन्दे कूड़े के ढेर में फेंक देता है। जिनको एक धर्म वाले भगवान मानते हैं, उन्हीं को दूसरे धर्मानुयायी शैतान कहते हैं। एक धर्म में धर्मयाजक भगवान की पूजा के उद्देश्य से बच्चों को अग्नि में डाल देता है और दूसरे धर्म वाला अनाथालय स्थापित करके उनकी रक्षा करता है और इसी को ईश्वर पूजा समझता है। एक धर्मवालों की देवमूर्ति सौंदर्य का आदर्श होती है और दूसरे की घोर वीभत्स और कुरूप। इंग्लैण्ड में प्रसव के समय जननी को एकान्त स्थान में रहना पड़ता है, पर अफ्रीका की ‘बास्क’ जाति में सन्तान होने पर पिता को कम्बलों से ढ़ककर अलग रखा जाता है और ‘लप्सी’ खिलाई जाती है। अधिकाँश देशों में माता-पिता की सेवा-सुश्रूषा करके उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति प्रकट की जाती है, पर कहीं-कहीं पर श्रद्धा की भावना से ही उनको कुल्हाड़े से काट दिया जाता है। अपनी माता के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के उद्देश्य से फिजी द्वीप का एक मूल निवासी उसके माँ को खौलाता है, जबकि यूरोपियन इसी उद्देश्य से उसकी एक सुन्दर समाधि बनवाता है।”

विभिन्न धर्मों और मतों के धार्मिक विश्वासों में अत्यधिक अन्तर होने का यह बहुत ही अल्प विवरण है। सुप्रसिद्ध विद्वान फ्रेजर ने इस संदर्भ में सोलह बड़े-बड़े खण्डों में ‘गोल्डन वो’ नामक महान ग्रंथ की रचना की है, परन्तु उसमें भी पृथ्वीतल पर बसने वाले अनगिनत फिर्कों, जातियों, सम्प्रदायों में पाये जाने वाली असंख्यों धार्मिक प्रथा-परम्पराओं एवं रस्मों का पूरण वर्णन नहीं किया जा सका है। ये सिद्धान्त, विश्वास और रस्मो-रिवाज हर तरह के हैं। इनमें निरर्थक, उपहासास्पद, भयंकर, कठोर व अश्लील प्रथाएँ भी हैं और श्रेष्ठ, भक्तिपूर्ण, मानवतायुक्त, विवेकयुक्त और दार्शनिकता के अनुकूल विधान भी जाये जाते हैं।

इन धार्मिक रीति-रिवाजों एवं प्रथा-परम्पराओं ने धीरे-धीरे कैसे हानिकारक और निकम्मे अन्धविश्वासों का रूप धारण कर लिया है, गम्भीरतापूर्वक इस पर विचार करने से चकित रह जाना पड़ जाता है। विद्वत् मनीषी डॉ0 लैग लिखते हैं कि एक बार उनने आस्ट्रेलिया के एक मूल निवासी से उसके किसी मृत सम्बन्धी का नाम पूछा। उसने मृतक के बाप का नाम, भाई का नाम, उसकी शक्ल-सूरत, चाल-ढाल, उसके साथियों के नाम आदि सब कुछ बता दिया, पर मृतक का नाम किसी प्रकार से उसकी जवान से नहीं निकला। इस सम्बन्ध में अन्य लोगों से पूछने पर पता लगा कि ये लोग मृतक का नाम इसलिए नहीं लेते कि ऐसा करने पर मृतात्मा कुपित हो उठेगी और उसका अहित करेगी। भारत में ऐसी कितनी ही मान्यताएँ हैं जो निरर्थक हैं। उदाहरण के लिए, अपने देश के गाँवों में जब कोई उल्लू बोल रहा हो तो उसके सामने किसी का नाम नहीं लिया जाता, क्योंकि लोगों के मन में यह भय घुसा होता है कि उस नाम को सुनकर उल्लू उसका उच्चारण करने लगेगा और इससे वह व्यक्ति बहुत शीघ्र मर जाएगा।

अपने देश में अब भी बहुत से लोग स्त्रियों के पर्दा त्याग करने के बहुत विरुद्ध हैं और जो लड़की विवाह-शादी के मामले में अपनी इच्छानुसार विवाह करने के लिए जोर देती है, उसे निर्लज्ज, कुलक्षणी आदि कहकर पुकारा जाता है, परन्तु उत्तरी अफ्रीका के ‘टौर्गस’ प्रदेश में पुरुष बुर्का डालकर रहते हैं और स्त्रियाँ खुले मुँह फिरती है। वहाँ पर स्त्रियाँ ही विवाह के लिए पुरुष ढूंढ़ती हैं, प्रेम प्रदर्शित करती हैं और उसे विवाह करके लाती हैं। ‘बिली’ नाम की जाति में कुमारी कन्याओं को मन्दिर के पुजारियों को दान कर दिया जाता है, जिनका वे उपभोग करते हैं। हमारे यहाँ दक्षिण भारत के मन्दिरों में प्रचलित ‘देवदासी’ प्रथा भी लगभग ऐसी ही है। कांगो में कुमारी कन्याओं का मनुष्याकार देव-मूर्ति के साथ संपर्क कराया जाता है।


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