महर्षि कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, कद्रू और विनिता। उन्होंने उन्हें अपने-अपने उत्तराधिकारियों के निमित्त वर माँगने को कहा। कद्रू ने 1000 शक्तिशाली पुत्र माँगे। उसका विचार था कि बड़ी संख्या में शक्तिशाली पुत्र उसे विनिता से अधिक सम्मान और यश दिला सकेंगे। विनिता ने तेजस्वी, सुसंस्कारी मात्र दो पुत्र माँगे।
कद्रू के नाग हुए एक हजार । थोड़े समय के लिए उसका दबदबा बन भी गया। पर जब विनिता के अरुण और गरुड़ का पराक्रम प्रकट हुआ, तो संख्या के ऊपर श्रेष्ठता का महत्व स्पष्ट हो गया। अरुण बने सूर्य भगवान के सारथी और गरुड़ बने भगवान् विष्णु के वाहन। उन्होंने चन्द्रलोक से अमृत कलश लाकर कद्रू के बन्धनों से माँ विनिता को मुक्त कराया। नाग उनके भय से थर-थर काँपते रहे।
मगध नरेश एक दिन भगवान् बुद्ध के सत्संग में गए और पंक्तिबद्ध बैठे श्रमणों को प्रमुदित स्थिति में देखा, जबकि उन्हें शरीर यात्रा तथा धर्म-प्रचार की प्रव्रज्या में अधिक कष्ट उठाने पड़ते थे।
दूसरी ओर राजपरिवार के सदस्य और शासकीय कर्मचारी हैं, निरन्तर अभाव और अधिक काम की शिकायत करते रहते हैं। इस विसंगति का कारण सत्संग होने पर तथागत से पूछा।
बुद्ध ने कहा-राजन् यह आश्रमवासी वर्तमान में जीते हैं। जो उपलब्ध है, उससे सन्तान सीमित होने के कारण उन पर पूरा ध्यान देते हैं। अनाप-शनाप खर्च नहीं करते । कर्तव्यपालन को अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं।
शान्ति का यही मार्ग है। धर्म विहार हो या हाट-बाजार या राजमहल। सर्वत्र सुख शान्ति का यही एक मार्ग है। जिसे गृहस्थ हो या विरक्त, सभी को अपनाना चाहिए।
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