क्रान्ति के बीज किसी एक महान विचारक के दिमाग में जमते हैं। वहाँ से फूल-फलकर क्रान्तिधर्मी साहित्य के रूप में बाहर आते हैं और संक्रामक रोग की तरह अन्य दिमागों में उपज कर बढ़ते हैं सिलसिला जारी रहता है। क्रान्ति की उमंगों की बाएं आती है। सब ओर क्रान्ति का पर्व मनने लगता है। चिनगारी से आग और आग से दावानल बन जाता है। बुरे-भले सब तरह के लोग उसके प्रभाव में आते हैं। कीचड़ और दलदल में भी आग लग जाती है।
ऐसे में नियति का नियन्त्रण करने वाली अदृश्य सत्ता परिवर्तन के क्रान्तिकारी आवेग से भरी प्रतीत होती है। वेदमाता, आद्यशक्ति समूचे विश्व को अपने हाथों में लेकर उसे नया रूप देने का संकल्प लेती है। तोपों की गरज, फौजों के कदमों के धमाके, बड़े बड़े सत्ताधीशों के अधःपतनों और समूचे विश्व में व्यापक उथल-पुथल के शोरगुल से भरे ये क्रान्ति के समारोह हर ओर तीव्र विनाश और सशक्त सृजन की बाढ़ ला देते हैं क्रान्ति के इस पर्व में दुनिया को गलाने वाली कढ़ाई में डाल दिया जाता है और वह नया रूप, नया आकार लेकर निकल आती है। महाक्रान्ति के इस पर्व में ऐसा बहुत कुछ घटित होता है। जिसे देखकर बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता चकरा जाती है और प्राज्ञों की प्रज्ञा हास्यास्पद बन जाती है।
वर्तमान युग में विचार-क्रान्ति के बीजों को परमपूज्य गुरुदेव ने अपने क्रान्तिधर्मा साहित्य के माध्यम से जनमानस की उर्वर भूमि में बड़े यत्न से बोया है। वन्दनीया माता जी के साथ सतत् तप करके इन्हें अपने प्राणों से सींचा है। इसके चमत्कारी प्रभावों से क्रान्ति की केसरिया फसल लहलहा उठी है। परिवर्तन की ज्वालाएँ धधकने लगी हैं। क्रान्ति के महापर्व की उमंगों की थिरकन चहुँओर फेल रही है। ये वही महान क्षण है।, जब भारतमाता अपनी ही सन्तानों के असंख्य आघातों को सहते हुए असह्य वेदना और आँखों में आँसू लिए अपना नवल सृजन करने को है।
अपने समय की इस महाक्रान्ति के लिए समर्पित युगसैनिक अपना धैर्य न खोएँ और न ही निराशा से अपनी आत्माओं को अभिभूत और हतोत्साहित होने दें। देवत्व और असुरता के इस महासंग्राम में जो हमारा नेतृत्व कर रहा है, वह स्वयं सर्वशक्तिमान महाकाल है। कालपुरुष, युगात्मा स्वयं इस क्रान्ति महोत्सव को सम्पन्न करने के लिए उठ खड़ा हुआ है। उसके प्रभाव, शक्तिमत्ता और अप्रतिरोध्यता को कौन रोक सकता है ? वह तो केवल उस तिमिर का नाश कर रहा है, जो मानवता को अनेक रूपों से आक्रान्त किए हुए है। जो होने जा रहा है, उस उज्ज्वल भविष्य का तो वह सृजन कर रहा है।
गुरुपूर्णिमा से प्रारम्भ होकर आगामी वसन्त पर्व तक प्रत्येक मास की पूर्णिमा को शान्तिकुँज में आयोजित महाक्रान्ति के सप्त विशिष्ट संवर्ग समारोह युग सेनानियों की चेतना में महाकाल के दिव्यप्रकाश के अवतरण के लिए हैं। उन्हें यह चेताने के लिए हैं कि इस क्रान्ति के पर्व में हृदय मूर्छित न होने पाए और न ही उदासी छाए तथा कोई अदूरदर्शी उत्तेजना भी न हो। हमारी भयंकर परीक्षा का समय है। मार्ग सरल नहीं होने का, मुकुट सस्ते में नहीं मिल जाएगा। भारत मौत के साए की घाटी से, अंधकार और यंत्रणा के घोर संत्रास से गुजर कर ही इक्कीसवीं सदी में विश्वगुरु बनने का गौरव प्राप्त करेगा। क्रान्ति के इस पर्व पर पहली अपेक्षा साहस की है, ऐसे साहस की जो पीछे हटना बिल्कुल न जानता हो। क्रान्ति के इन संवर्ग समारोहों में शामिल होने वाले ऐसे साहसी व्यक्ति ही क्रान्तिवीरों का गौरव प्राप्त कर करेंगे।