सद्-चिन्तन एवं सत्कर्म के मूल आधारः गायत्री और यज्ञ

September 1997

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किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए, भले ही व्यक्तिगत हो या फिर सामूहिक, केवल चिन्तन भी एकाँगी है और केवल कर्म भी अपूर्ण। उसके लिए चिन्तन और कर्म दोनों का ही समन्वित स्वरूप ही पूर्ण होता है बिजली के दोनों तार अलग-अलग हों तो विद्युतधारा का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता है। दोनों के जुड़ने पर ही विद्युत धारा प्रवाहित होना सम्भव है। इसी के साथ यह सत्य भी स्मरणीय है कि लक्ष्य जब व्यापक हो तो सद् चिन्तन एवं सत्कर्म के युग्म का भी व्यापक समायोजन करना अनिवार्य एवं अपरिहार्य हो जाता है।

युग-परिवर्तन ऐसा ही व्यापक एवं उच्चस्तरीय लक्ष्य है। यह प्रयोजन सामूहिक सहयोग से ही पूरा हो सकता है। संसार में जब भी कोई बड़े परिवर्तन होने अभीष्ट होते हैं तो उसमें ईश्वरीय शक्तियाँ मानवी चेतना के रूप में ही सक्रिय भाग लेती हैं। अकेले राम ने लंकाविजय, आसुरी आतंक की समाप्ति और दिव्य सत्प्रवृत्तियों की स्थापना नहीं की थी, उसके लिए रीछ-वानरों का सहयोग संगठित किया। कंस के संहार एवं कौरव अनीति के उन्मूलन में भी अकेले कृष्ण ने ही भाग नहीं लिया था, बल्कि उसके लिए ग्वाल-बालों को संगठित किया था। वर्तमान परिस्थितियों में भी परिवर्तन अभीष्ट है, यह स्पष्ट है कि परमात्मा की दिव्यचेतना भी युगशक्ति के रूप में क्रियाशील है- यह भी अनुभव किया सकता है। उसके लिए रीछ-वानरों की तरह, ग्वाल-बालों की तरह सामान्य व्यक्तियों को गायत्री साधना के द्वारा चिन्तन परिष्कार और यज्ञ अभियान के द्वारा कर्मशोधन प्रक्रिया को जन-जन तक पहुँचाना चाहिए।

युगशक्ति के रूप में जिस गायत्री चेतना के अवतरण की बात कही जाती रही है, उसके दो रूप है, पहला है परोक्ष-जिसे चिन्तनपरक कहा जा सकता है तथा दूसरा है प्रत्यक्ष, जिसे कर्मपरक कहा जाना चाहिए। परोक्ष स्वरूप में जप, ध्यान-धारणा, लय तथा तत्त्वज्ञान, योगाभ्यास का समावेश किया गया है तथा कर्मपरक प्रत्यक्ष अभियान में या आन्दोलन का। इस तरह के प्रयास व्यक्तिगत रूप से तो लम्बे समय से किए जाते रहे हैं-परन्तु अब इसमें सामूहिकता का समावेश किया गया है, जिसे अपने युग की नवीनता और विशेषता कहा जा सकता है। गायत्री और यज्ञ का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक है। बिजली के दोनों तारों की तरह दोनों का सम्मिलित, समन्वित स्वरूप ही अभीष्ट युगचेतना उत्पन्न करने में समर्थ हो सकेगा। गायत्री और रु को भारतीय संस्कृति का माता-पिता कहा गया है। इसका भी यही अर्थ है कि ये दोनों सद् चिन्तन और सत्कर्म का मूल आधार है, और परस्पर एक-दूसरे के पूरक है।

अभी से नहीं अनादिकाल से ही यह सम्बन्ध चला आ रहा है। शास्त्रों में व्यक्ति के लिए सन्ध्यावन्दन के साथ नित्य यज्ञ का भी निर्देश दिया गया है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं रहा, तो बलि वैश्वदेव का विधान किया गया। नित्यकर्मों में गायी और या को इस रूप में सम्मिलित करने के अतिरिक्त शक्ति अर्जन के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों की पूर्णाहुति में या अनिवार्य है। भारतीय धर्मानुयायी के जीवन की कोई भी महत्वपूर्ण घटना गायत्री ओर यज्ञ के बिना आयोजित नहीं की जाती। बालक का विद्यारम्भ संस्कार कराते समय यज्ञ भगवान की साक्षी में गुरुमंत्र के रूप में गायत्री मंत्र दिया जाता है। सिर पर शिखा-स्थापन के समय ऋतम्भरा-प्रज्ञा की ही प्रतिष्ठापना की जाती है और सत्कर्मों की प्रतिभा धारण करने के रूप में यज्ञोपवीत संस्कार कराया जाता है। इन संस्कारों में भी गायत्री यज्ञ किए जाते हैं तथा गायत्री और यज्ञ को प्रतीक रूप में अपने शरीर पर धारण किया जाता है। उन्हें जीवनक्रम में सम्मिलित करने का संकल्प लिया जाता है।

षोडश-संस्कारों में कोई भी संस्कार सम्पन्न किया जाता है, तो उसमें किसी न किसी रूप में गायत्री और यज्ञ की अनिवार्यता जुड़ी रहती है। गर्भाधान, पुँसवन, सीमान्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, वेदारम्भ, विवाह, समावर्तन, वानप्रस्थ, संन्यास और अंत्येष्टि में से एक भी संस्कार गायत्री और यज्ञ के बिना पूरे नहीं होते। इस तथ्य में यही सत्य समाविष्ट है कि सद् चिन्तन एवं सत्कर्म को पूरी ही निष्ठा से पालन करने का संकल्प ही जीवन को ऊर्जा एवं प्रकाश से भरता है।

लेकिन इस रूप में यह प्रक्रिया व्यक्तिगत जीवन तक सीमित थी। जब जब प्रश्न समूचे वायुमण्डल एवं वातावरण को परिशोधित करने का उठ खड़ा हुआ है तो इसकी व्यापकता का आह्वान करना उचित है। युग समस्याएँ बाहरी कारणों से उत्पन्न हुई लगती भर हैं, वस्तुतः उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं, बड़े पेड़ों की जड़ें जमीन में गहराई तक धँसी होती हैं तभी उनके विशालकाय तने और पल्लव-परिकर को आवश्यक खुराक मिलती है। लदे हुए फल-फूल बाहर टँगे होते हैं और मोटी बुद्धि से प्रतीत यह होता है कि यह कहीं बाहर से ही आए या ऊपर से खतरे हैं। पर सच्चाई यह है कि वृक्ष का अस्तित्व विस्तार और वैभव बनाए रखने के लिए जड़ें ही प्रमुख भूमिका निभाती हैं। वे चर्म चक्षुओं से दिखाई न पड़ें, यह बात दूसरी है।

आज की समस्याओं के विशाल काय परिकर एवं कलेवर की जड़ों में सद् चिन्तन एवं सत्कर्म का अभाव ही प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। समस्या पर्यावरण अथवा स्वास्थ्य से सम्बन्धित हो अथवा फिर भ्रष्टाचार या किसी सामाजिक कुरीति की, वहाँ उस क्षेत्र में सद् चिन्तन एवं सत्कर्म की उपेक्षा-अवहेलना स्पष्ट देखी जा सकती है। इसी उपेक्षा-अवहेलना ने वातावरण एवं वायुमण्डल को विषाक्त कर रखा है। यह वातावरण और वायुमण्डल ही सृष्टि वृक्ष की यह जड़ है-जिसे गीतकार ने ‘उर्ध्वमूलं अधः शाखं’ कहकर सम्बोधित किया है।

इसमें से वातावरण चेतनात्मक है और वायुमण्डल प्रकृतिपरक। वातावरण से मनुष्य की आस्था, आकाँक्षा और विचारणा से मनुष्य की आस्था, आकाँक्षा और विचारणा प्रभावित होती है। वायुमण्डल से वस्तुओं की मात्रा एवं स्तरीय स्थिति का सीधा सम्बन्ध है। मनुष्य एक सीमा तक स्वतन्त्र भी है। उसकी अपनी पुरुषार्थपरायणता का भी महत्व है, किन्तु वातावरण का दबाव तो आँधी-तूफान की तरह है, जिसके आवेग में जनमानस अमुक दिशा में उड़ता-दौड़ता दिखाई पड़ता है। अन्धड़ के साथ-साथ तिनके और पत्ते दौड़ते हैं। पानी की प्रचण्ड धारा में न जाने क्या-क्या हलका-भारी बहता चला जाता है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष में संव्याप्त चेतनात्मक वातावरण, जनमानस को किसी दिशा विशेष में धकेलता-घसीटता चला जाता है। अबोध, असमर्थ जनमानस का बहुत बड़ा समूह स्वेच्छा से नहीं वातावरण के दबाव से अपने चिन्तन और प्रयास का निर्धारण करता है। ‘दैवेच्छा बलीयसी’ की उक्ति में इसी कटु सत्य की ओर संकेत किया गया है।

वायुमण्डल के उतार-चढ़ाव का विश्व की सम्पत्ति और परिस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है-उसे आए दिन देखा जा सकता है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि वायुमण्डल की असन्तुलित हलचलें हैं, जिससे समस्त प्राणि-परिकर बुरी तरह प्रभावित होता है। मौसम प्रतिकूल हो जाने पर स्वास्थ्य को बुरी तरह क्षति पहुँचाती है। दुर्बलता और रुग्णता का, महामारियोँ का कभी-कभी ऐसा दौर आता है जो सँभाले नहीं सँभलता। मस्तिष्क ज्वर, लू लगने और निमोनिया होने जैसी बीमारियों में मनुष्य का दोष कम और मौसम का अधिक होता है।

वायुमण्डल की अनुकूलता ही प्रकृति की सहायता है। सतयुग में प्रकृति अनुकूल रहती थी और मानवी आवश्यकता के अनुरूप वस्तुओं की कमी नहीं पड़ती थी। मौसम सन्तुलित रहने पर पदार्थ प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होते हैं, खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों का परिमाण बढ़ा-चढ़ा रहता था। ऐसी-ऐसी अनेकानेक अनुकूलताएँ रहने के कारण प्राणी स्वस्थ, परिपुष्ट, प्रखर और दीर्घजीवी रहते थे। समर्थता काय-कलेवर तक ही सीमित नहीं रहती थी, वरन् उसके अन्तराल में रहने वाले मनःतत्व को भी प्रभावित करती थी। स्वस्थ मनुष्य सन्तुलित एवं सुखी भी रहते हैं।

सतयुग में वायुमण्डल एवं वातावरण परिशोधित एवं विकृति मुक्त था। तभी तो पुरातनकाल में मानवी-चिन्तन का स्तर उच्चस्तरीय था। उनकी कामनाएँ, रुचियाँ, महत्वकाँक्षाएँ उच्चस्तरीय थी। लोग ऊँचा चाहते और ऊँचा सोचते थे। फलतः इनके क्रिया-कलापों में आदर्शों का पुट पग-पग पर परिलक्षित होता था। ऐसे व्यक्तियों के स्वभाव में शालीनता, चरित्र में सज्जनता, व्यवहार में उदारता घुला रहना स्वाभाविक है। इसी स्तर के लोग धरती के देवता कहे जाते थे।

मनुष्यों को देवता बनाने और समष्टिगत वातावरण के परिशोधित व उन्नत रहने की ऊर्जा का उद्गम गायत्री एवं यज्ञ की सतत् प्रवाहमान प्रक्रिया थी। इसी के प्रवाह से समष्टिगत वातावरण ही कुछ ऐसा था जिसके प्रवाह में जन-समुदाय को ऊँचा सोचने, ऊँचा करने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं था। प्रवाह चीर कर उलटा चलना कठिन होता है। आज निकृष्टता के प्रवाह में व्यक्ति विशेष को अपने मनोबल के सहारे उत्कृष्टता अपनाना और उसे अन्त तक मजबूती के साथ पकड़े रहना अति कठिन होता है। कोई अपवाद ही ऐसा पौरुष दिखा पाते हैं। ठीक इसी प्रकार प्राचीन युग में भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण के लिए असाधारण दुस्साहस ही करना होता होगा अन्यथा वातावरण के दबाव में सहज ही वैसा कुछ कर सकना सरल नहीं, अतीव दुष्कर था। आज आकाँक्षाएँ एवं विचारणाएँ मानवीय आदर्शों को विपरीत दिशा में उद्दण्ड अन्धड़ की तरह बह रही हैं, उससे अनगढ़ ही नहीं सुशिक्षित और सभ्य कहे जाने वाले लोग भी बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं।

कर्म स्थूल है और चिन्तन सूक्ष्म। वायुमण्डल स्थूल है-वातावरण सूक्ष्म। दुष्कर्मों से वायुमण्डल विकृत होता है, प्रकृति रूठती है और परिस्थितियाँ दुःखदायी बनती हैं। आवश्यक वस्तुओं का अभाव घटनाक्रम की प्रतिकूलता और कष्ट-संकटों का, विरोध-विग्रह का अभिवर्द्धन यह वायुमण्डल की विषाक्तता का परिमाण हैं वातावरण चेतन हैं मान्यताओं, आस्थाओं और विचारणाओं के समन्वय से उत्पन्न चिन्तन-प्रवाह में निकृष्टता भर जाने से वातावरण विकृत होता है। उससे प्रभावित जनमानस में कुकल्पनाएँ, दुर्भावनाएँ और अनीतिमूलक उच्छृंखलताएँ ज्वार-भाटों की तरह उठती है।

अचिन्त्य-चिन्तन का परिणाम अन्तःकरण में उद्विग्नता और कुटिलताओं के रूप में प्रकट होता है। फलतः संकीर्ण स्वार्थपरता, निरंकुश उच्छृंखलता एवं आक्रमण, दुष्टता पर उतारू होने की प्रवृत्ति पनपती है और मनोमालिन्य, विलगाव असहयोग, विरोध एवं विग्रह के रूप में प्रतिद्वन्द्विताएँ खड़ी होती हैं और अनेकानेक समस्याएँ उत्पन्न कर देती है। प्रभावित लोग स्वयं उद्विग्न रहते हैं और दूसरों का अप्रसन्न करते हैं। गर्हित दृष्टिकोण ही है जिसे अपनाने वाले स्वयं दुःख पाते हैं दूसरों को दुःख देते हैं। सहयोग के अभाव में प्रगति के द्वार रुक जाते हैं। मनोविकार ही शारीरिक और मानसिक रोगों को जन्म देते हैं। अनुदारता और दुष्टता अपनाने वाले दूसरों को सद्भावना गँवा देते हैं।

वायुमण्डल दूषित होने के कारणों में वैज्ञानिक अनाचार से उत्पन्न कूड़े-कचरे की अभिवृद्धि भी है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, कोलाहल, विकिरण आदि बढ़ने से अन्तरिक्ष में बढ़ती विषाक्तता और उससे उत्पन्न विभीषिका की चर्चा सर्वत्र होती रहती है। इसके अतिरिक्त मनुष्यों के अनाचरण भी प्रकृति सन्तुलन को विक्षुब्ध करते हैं। फलतः मौसम, बाढ़, वर्षा, भूकम्प, तूफान, युद्ध, महामारी, कृमिकीटक, दुर्भिक्ष आदि की विपत्तियाँ आती हैं। वनस्पति हीनवर्या होती है। उसके पोषक तत्व घट जाते हैं और हवा में जीवन तत्वों की कमी पड़ने से मनुष्य ही नहीं अन्य जीवधारियों की भी शारीरिक स्थिति इस प्रकार बिगड़ती है कि उनकी मनः स्थिति सामान्य और सुखद परम्परा अपनाए रहने योग्य नहीं रह जाती है। यह प्रकृति विषयक हर दृष्टि से, हर किसी के लिए हानिकारक ही सिद्ध होती है। वातावरण की विषाक्तता लोकमानस में निकृष्टता की मात्रा बढ़ाती है, जिसकी वजह से स्नेह सहयोग के स्थान पर द्वेष, दुर्भाव और विग्रह-अनाचार की घटनाएँ घुमड़ने लगती है।

भौतिक क्षेत्र में सुख-सुविधा और शान्ति-व्यवस्था के साधन बढ़ाने के लिए भरपूर प्रयत्न होने चाहिए। कठिनाइयों को हल करने के लिए जो भी पराक्रम सम्भव हो उसे तत्परतापूर्वक किया जाना चाहिए, किन्तु ध्यान यह भी रखा जाए कि यह सब सद् चिन्तन एवं सत्कर्म के मूल आधारों को अपनाए बगैर पूरी तरह से सम्भव नहीं इसके अलावा वायुमण्डल और वातावरण का परिशोधन उन अध्यात्म प्रयत्नों पर निर्भर है, जिन्हें व्यक्तिगत धर्मधारणा एवं सामूहिक सह-साधना के आधार पर सम्पन्न किया जाता है। वायुमण्डल की परिशुद्धि के लिए यज्ञोपचार से बढ़कर और कोई शक्तिशाली माध्यम अब तक ढूँढ़ा नहीं जा सका। इसी तरह वातावरण के परिशोधन के लिए गायत्री की व्यक्तिगत एवं सामूहिक साधनाएँ अत्यधिक कारगर सिद्ध होती हैं।

गायत्री एवं यज्ञ के व्यापक प्रसार का अर्थ है- सद् चिन्तन एवं सत्कर्म के मूल आधारों का व्यापक विस्तार। इन्हीं भावनाओं को अपनाए जाने एवं न-जन तक विस्तार होने से समस्याओं एवं विकृतियों को जड़ से उखाड़ा जा सकेगा। गायत्री एवं यज्ञ का युग्म किसी धर्मविशेष की मान्यता अथवा किन्हीं प्रचलित कर्मकाण्डों की उठा-पटक तक सीमित नहीं है। इसके तत्वज्ञान में मनुष्यता का जीवनदर्शन निहित है। ऐसा जीवनदर्शन जो जाति-धर्म, क्षेत्र एवं राष्ट्र की सीमाओं से परे है। जिसमें सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय की मधुर भावनाएँ सँजोई हैं। इसका विज्ञानपक्ष इससे भी कहीं अधिक मूल्यवान है। युगनिर्माण मिशन द्वारा अपनी स्थापना के समय से ही इसके विभिन्न प्रयोगों की शृंखला सम्पन्न की जाती रही है। इसके परिणाम भी आशातीत एवं कल्पनातीत रहे है। अब तक के अनुभवों के आधार पर ही कहा जा सकता है कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना में जिस प्रकार का वातावरण अभीष्ट है उसे बनाने में गायत्री एवं यज्ञ से अधिक कारगर प्रयोग दूसरा कोई नहीं, इसमें युगक्रान्ति के स्थूल और सूक्ष्म स्तर के उन सभी तत्वों का समावेश है, जो जनमानस को, व्यापक वातावरण को परिष्कृत करके इक्कीसवीं सदी को सुनिश्चित रूप से उज्ज्वल भविष्य का स्वरूप प्रदान कर सकते हैं।


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