नारी-जागरण से ही सांस्कृतिक जागरण सम्भव

September 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

‘नारी का सम्मान जहाँ है, संस्कृति का उत्थान वहाँ है’ के गगनभेदी उद्घोष के साथ आगामी कार्तिक पूर्णिमा को परमपूज्य गुरुदेव की तपस्थली शान्तिकुँज में संस्कृति संवर्ग समारोह आयोजित किया जाएगा। भारत की नारी भारतीय संस्कृति स्पष्ट उद्घोष करती है,”यत्र नार्यस्तु पूज्धन्ते रमानों तत्र देवताः । देवी और जननी के रूप में परिभाषित एवं प्रतिष्ठित नारी सृजन शक्ति का पर्याप्त है। तभी तो उसे ‘माँ’ की संबा मिली है। इसीलिए तो धरती को माता कहा गया। गंगा और गाय भी इसी पावन श्रेणी में गिनी जाती है। नारी का सर्वश्रेष्चमग बवउचनजमत अलंकार है-संवेदना, शील व चरित्र। परन्तु पाश्चात्य सभ्यता ने भारत एवं भारतीय पर, यहाँ की संस्कृति पर प्रहार करने शुरू किए। नारी के लज्जावन तार-तार होने लगे है। उसकी संवेदनशीलता का लाभ उठाकर यहाँ संस्कृति के मर्म बिन्दुओं पर निर्मम प्रहार किए जा रहे हैं।

इसी के परिणामस्वरूप अश्लीलता, कुत्सित मॉडलिंग एवं हेय अश्लीलता, कुत्सित मॉडलिंग एवं हेय विज्ञापनों की बाढ़-सी आई है। सर्वत्र असंस्कृति का नग्न स्वरूप नर्तन करता नजर आता है। ऐसे में-साँस्कृतिक जागरण तभी सम्भव है जबकि नारी जागरण हो। नारी की दुर्दशा के रहते संस्कृति हो। नारी की दुर्दशा के रहते संस्कृति की दुर्दशा नहीं रोकी जा सकती अश्लीलता नारी के स्थापित पक्ष का प्रदर्शन या उससे जुड़ी कुत्सित अभिव्यक्तियों तक सीमित नहीं है। यह तो हमारे चिंतन व व्यवहार के कई स्तरों पर समायी हुई विकृति के कई स्तरों पर समायी हुई विकृति का नाम है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 213-14 के अनुसार किसी भी ऐसी प्रकाशित सामग्री का अश्लील माना जाता है, जो पढ़ने, देखने या सुनने वाले के लिए कामुक, कामोत्तेजक या उसके चरित्र को भ्रष्ट करने वाली हैं यही कानून इंग्लैण्ड में 1727 में लागू हुआ है। यही कानून इंग्लैण्ड में 1727 में लागू हुआ था। न्यायाधीश कोल बोर्न के अनुसार, अश्लीलता की कसौटी यह है कि क्या अश्लील करार दी गयी सामग्री की प्रवृत्ति ऐसे लोगों को भ्रष्ट करने की है, जिनके हाथ वह सामग्री पड़ सकती है ओर जिनके दिमाग उसके अनैतिक प्रभाव का ग्रहण करने के लिए खुले हैं।

विकृत मानसिक कुण्ठाओं का विस्फोट भयावह होता है । यह विस्फोट देश में 90 के दशक से प्रारम्भ हुआ था जब वीडियो का आगमन तथा प्रचलन हुआ। इस दौरान अश्लील फिल्मों का प्रदर्शन प्रारम्भ हुआ। इसके पश्चात् 90 के दशक में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में क्रान्ति की शुरुआत हुई। आर्थिक उदारीकरण के तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने तो इसमें बाढ़ ला दी। उन्हें भारत एक मण्डी के रूप में नजर आया। जहाँ किसी भी तरह का प्रोडक्ट्स प्रचार के माध्यम से बेचा जा सकता है नोम चोमस्की अनुसार, देह सभी शास्त्रों से जतीलवनन्त है, क्योंकि यह गणितीय तथ्यों की बाड़ तोड़कर मनोविज्ञान तक पहुँच जाता है इसीलिए पूँजी के बाजार में इसे पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है।

समाज के दृष्टिकोण एवं उसकी नैतिकताओं के बदलने के साथ ही अश्लीलता को खुले मापदण्ड पर स्वीकार करने की मजबूरी-सी बन गयी है। सामाजिक, दृष्टिकोण, धार्मिकता, संस्कृति या नीति-मर्यादाओं को तोड़ मरोड़ कर पेश करने के कारण यह जहर उभर कर समाने आया है। इसकी शुरुआत सिनेमा जगत से प्रारंभ हुई। उथली मानसिकता के लोगों ने इसे पसन्द किया और प्रसार करने में बेशर्मी का परिचय दिया। यह वर्ग अभिजात्य वर्ग से सम्बन्धित था। अन्धानुकरण की परम्परा ने उसे सभ्यता और प्रतिष्ठा का मापदंड माना। फलस्वरूप इसे स्वीकारने के साथ ही सारी सीमाएँ ओर मर्यादाएँ टूटकर बिखरने लगीं, जिसका लाभ उठाया-विभिन्न लगीं, जिसका लाभ उठाया-विभिन्न टी.वी. जिसका लाभ उठाया-विभिन्न टी.वी. चैनलों, विज्ञापन एजेन्सियों एवं पत्र-पत्रिकाओं ने। आज तो अश्लीलता फैशन बन गयी है- मॉडलिंग, सौंदर्य प्रतियोगिताएँ सभ्यता की नयी दौड़ मानी जा रही है।

अश्लीलता जब साहित्य के रूप में वैचारिक-स्वरूप धारण कर लेती है। आजकल डेबोनियर, फेबुलस, न्यूजप्लस, इटर्निका जैसी अश्लील पत्रिकाएँ धड़ल्ले से बिकने लगी है। मॉडलों की तादाद बढ़ती जा रही है। कलात्मकता के नाम पर अश्लील चित्र छापे जाने लगे हैं। बुद्धिजीवियों की दिशाहीन मानसिकता इसे और भी विकृत करने की चेष्टा कर रही है। नारी को उपभोग की वस्तु बना दिया गया है। अश्लीलता अर्थोपार्जन का जरिया बनकर व्यवसाय में तब्दील हो चुकी है। इसे नये नये से परोसने में लोग पारंगत हो चुके हैं। निरंकुश सोच पाशविकता को प्रेरित कर रही है। रंग और आकृतियाँ मनोवैज्ञानिक पक्ष को सशक्त करते हैं, अतः इनका अश्लीलता के नग्न नकाब में सारा शील-संकोच मर्यादाएँ और सतर्कताएँ धरी की धरी रह जाती है।

भारतीय संस्कृति में धर्म और अर्थ के पश्चात् काम का स्थान आता है। इसकी दिव्य एवं स्तुत्य ढंग से स्तुति की जाती है। इसकी अपनी निश्चित सीमाएँ और मर्यादाएँ है। यह प्रदर्शन की वस्तु नहीं हैं दिव्य कलाओं में इसकी गणना की जाती है न कि छिछले और उथलेपन के रूप में। परन्तु अपसंस्कृति के प्रभाव से हम अपनी साँस्कृतिक विशिष्टता को भुलाते जा रहे हैं। इसकी देह को प्रदर्शन के विष में घोलकर कलुषित कर दिया गया है। सौंदर्य का मापदण्ड, आचरण, विचारणा, भावना से नहीं किया जा रहा है, बल्कि देह की कुत्सित चेष्टाएँ ही सौंदर्य की कसौटी बनी हुई है।

मॉडलिंग इसी की एक अभिव्यक्ति है। जिस देश के न्यायविद् के यह मेज मुखर शब्द हों कि “हमारा समाज नैतिकताओं के पाश्चात्य मानदण्डों को स्वीकार कर रहा है। इसी के प्रभाव से भारतीय लड़कियाँ मॉडलिंग के पश्चिमी मानदण्डों के साथ कदम मिलाना हमारे नैतिक पतन की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है? विकास एक लम्बी ऐतिहासिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इसके लिए समय लगता है जिसके हमने प्रगति एवं विकास की संबा दी है। वह सर्वनाशी अपसंस्कृति का ज्वलन्त प्रमाण है। चूँकि यह आज अर्थोपार्जन का बहुत बड़ा साधन बन गया है, इसलिए लोग इसे बेझिझक स्वीकारते हैं। मॉडलिंग एवं विज्ञापन की इस दुनिया में सकल उत्पाद की छह प्रतिशत आय है।

भारत में सन् 1985 से 89 के बीच प्रतिवर्ष 30 से 50 प्रतिशत तक उपभोक्ता वस्तुओं की खपत दर बढ़ी है। ‘नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकॉनामिक रिसर्च ‘ के अनुसार इन वर्षों में विज्ञापन उद्योग भी 20 से 45 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ा है। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार 1994-95 में देश की दस शीर्ष विज्ञापन एजेन्सियों विज्ञापन उद्योग की आय थी। इसमें भी 4400 करोड़ रुपये में शुद्ध रूप से विज्ञापन मॉडलिंग से हुई आय थी। यह मॉडलिंग और कुछ नहीं, बढ़ती अश्लीलता का प्रतिमान थी। आज यह व्यापार विश्व का सबसे अधिक कमाई वाला साधन बन चुका है।

आजकल एक मॉडल या विश्व सुन्दरी इतना आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकती हैं कि वह नेपाल जैसे छोटे देशों की कुल वार्षिक आय से भी ज्यादा ठहरेगा। वस्तुतः सौंदर्य को आर्थिक ताकत से जोड़कर उपभोक्तावाद पर आधारित पूँजीवाद टिका रहा है। सौंदर्य प्रतियोगिताओं को धन और ग्लैमर से मढ़कर पूँजीवाद टि रहा हैं सौंदर्य मढ़कर पूँजीवाद ने उन्हें सम्मानजनक बनाने की कोशिश की है ओर सुल् भी हुआ है। इसी आर्थिक और भौतिक आकर्षण के जाल में फँसकर महिलाएँ अपने शील और संकोच को उतार फेंकती हैं। सौंदर्य प्रतियोगिताएँ नारी के सार्वजनिक प्रतियोगिताएँ अपने शील और संकोच को उतार फेंकती है। सौंदर्य प्रतियोगिताएं नारी के सार्वजनिक अपमान की ही पोषक है। ग्लोबलाइजेशन अपमान की ही पोषक है ग्लोबलाइजेशन बढ़ने के साथ ही स्थिति और भी अधिक विस्फोटक हो गयी हैं।

पिछले तीन-चार सालों में इसमें भारी-भरकम बढ़ोत्तरी हुई है। मानों इससे पहले अपने देश में सुन्दरता थी ही नहीं इसके प्रचार-प्रसार से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है तो माध्यम वर्ग। पहले कभी मध्यमवर्गीय परिवारों में प्रतिष्ठा, धर्म एवं नैतिकता के नाम पर महिलाओं का शोषण होता रहा है। आज बदले परिवेश में यही शोषण बदले रहा है। सुसान ब्राउन मिलर ने अपनी प्रसिद्ध कृति ’अगेंस्ट अपर बिल’ में वर्तमान परिवेश में स्त्रियों की दशा का उल्लेख किया है। उनके अनुसार अश्लील साहित्य बलात्कार की तरह पुरुषों की खोज है। यह स्त्री को मात्र कामुक परिदृश्य में स्थापित करने के लिए है। शील व चरित्र जाति की सर्वोत्कृष्ट सम्पदा है। इसका प्रदर्शन ही अश्लीलता है। एवं सम्पूर्ण नारी जाति का अपमान है। सुसान इसे नारी विरोधी करती है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से यही कार्य हो रहा है। स्वतन्त्रता के नाम पर स्वच्छन्दता और मुक्ति के बदले शोषण का यह अन्तहीन सिलसिला नारी जाति के लिए एक अभिशाप है।

मीडिया, विज्ञापनों, सीरियलों, फिल्मों के भीतर नारी को मनमाने ढंग से नचाने वाले यह भूल जाते हैं। कि भारत की शोषित, दमित स्त्री की मुक्ति का लक्ष्य बाजार में साबुन, तेल व कॉस्मेटिक सामग्री बेचने वाली स्त्री नहीं हो सकती है अन्यथा मॉडल विज्ञापन के प्रदर्शन के अलावा नारी को और किन्हीं अन्य क्षेत्रों में क्यों इतना महत्व नहीं दिया जाता। एक आँकड़े से यह बात और भी साफ हो जाती है। मॉडल तथा विज्ञापनों में 90 से 10 प्रतिशत महिलाओं को चुना जाता है, जबकि दूरदर्शन के निदेशालय समेत सात निर्माण केन्द्रों में दूरदर्शन समेत सात निर्माण केन्द्रों में दूरदर्शन के कुल कर्मियों में 3783 पुरुषों के मुकाबले सिर्फ 378 महिलाकर्मी थी। और भी कई ऐसे आंकड़े में है जो इस बात का खुलासा करते हैं।

सौंदर्य विचारों में होता है, भावनाओं में होता है दैहिक सौंदर्य से वैचारिक एवं भावनात्मक सौंदर्य का मूल्य कहीं बढ़कर है। सबसे महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान सौंदर्य महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान सौंदर्य तो आध्यात्मिक सौंदर्य की प्रतीक थीं-सीता, सावित्री , गार्गी, मैत्रेयी आदि अनेक भारतीय महिलाएँ। वास्तव में यही नारी का आदर्श है, परन्तु प्रतिमान के बदलते ही नैतिकता का महत्व भरभरा कर का महत्व भरभरा कर गिर जाता है। आज ब्यूटीफुल का अर्थ है-देह को अधिक से अधिक आवरणहीन कर सकने की बेशर्म हिम्मत। इस प्रतिमान को बदले बगैर न नारी जागरण सम्भव है और न साँस्कृतिक उत्थान।

जिस देश की नारी, संस्कृति को प्रतीक और पर्याय रही हो, आज उसी देश में उसकी देह को अनावृत्त करने के अनेकों प्रपंचपूर्ण प्रयास चल रहे हैं यह सच है कि नारी का आकर्षण नैसर्गिक है, परन्तु इसका मर्यादाहीन प्रदर्शन निःसन्देह मन में विकृत भावों को उद्वेलित, उसके मातृत्व के अमृतत्व तो जीवमात्र और यह मातृत्व तो जीवमात्र के लिए सार्वभौमिक संवेग है।

इस सर्वनाशी और खतरनाक दौर से जूझने के लिए ही शान्तिकुँज में 13, 14 एवं 15 दिसम्बर की तिथियों में संस्कृति-संवर्ग का आयोजन किया गया है। युगनिर्माण मिशन एवं उसके संस्थापकों परमपूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीया माताजी ने प्रारम्भ से ही नारी शक्ति के रूप में मान्यता एवं प्रतिष्ठा दी हैं महिला जाग्रति अभियान इस मिशन कस सबसे अग्रणी कार्यक्रम रहा है। विश्व का यही एकमात्र साँस्कृतिक अभियान है, जिसने नारी को राष्ट्र पुरोहित के रूप में पूजित एवं प्रतिष्ठित किया है आज जबकि स्वतन्त्रता की अर्द्धशताब्दी बीत जाने के बावजूद महिलाओं के रूप में राष्ट्र की आधी आबादी पीड़ा और प्रताड़ना से गुजर रही है तो कुछ विशेष ठोस कदम उठाने की जरूरत हैं

इसी के विचार-विमर्श एवं जुझारू नीतियों के निर्माण के लिए उत्साही महिला कार्यकर्त्ताओं एवं कर्मठ परिजनों को उपरोक्त तिथियों में आमंत्रित किया जा रहा है। जिनके हृदय में संवेदनाएँ हुलसती हों, वे भला अपनी साँस्कृतिक गरिमा को भला इस कदर दुर्दशाग्रस्त होते कैसे देख सकते हैं? नई पीढ़ी की कन्याएँ शालीनता, शिष्टता एवं मर्यादाओं के संकल्प लेकर इस अभियान में नया प्राण फूँकने की अपनी उत्साहवर्द्धक भागीदारी दिखा सकती है। छोटे-बड़ जपजसम मज हर किसी के संघबद्ध, समवेत प्रयास नारी-जागरण को संस्कृति जागरण का रूप देने में सहायक ही नहीं सक्षम और समर्थ सिद्ध होंगे, ऐसी आशा की गई है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles