हम जिस युग में जी रहे हैं, परम पूज्य गुरुदेव इसे अनास्था-युग कहते थे। अनास्था का सीधा अर्थ आध्यात्मिक, धार्मिक एवं नैतिक मान्यताओं पर श्रद्धा न रखना-एक प्रकार की नास्तिकता। परम पूज्य गुरुदेव ने अनास्था की परिभाषा को बहुत व्यापक बनाया और आज की परिस्थितियों के अनुरूप तर्क, तथ्य एवं प्रमाण देकर इस मान्यता को व्यक्ति एवं समाज की सबसे बड़ी हानि बताया। व्यक्तिगत जीवन में अनास्था का अर्थ शरीर को जड़प्रकृति परमाणुओं का खेल मानना और इन्द्रियों को अधिकतम सुखोपभोग की छूट देना है। इसी प्रकार संसार को भी बादलों की तरह बनने वाले चित्र-विचित्र दृश्य मानना ओर जो जितना शक्तिशाली है, उसे उतना ही खुलकर शोषण की छूट देना । इस मान्यता में न तो कहीं ईश्वर के लिए स्थान बचता है, न ही मानवीय संवेदना और कर्मफल के लिए। यह स्थिति अब तक यथावत् हैं।
परमपूज्य गुरुदेव ने बताया-एक साधारण-सी मशीन भी जब किसी न किसी उद्देश्य के लिए बनती है, तो ऐसी मशीन जो 600 खरब कोशिकाओं से बनी हो, इन कोशिकाओं के दृव्य को खींचकर समूचे ब्रह्माण्ड को नाप लेने जितना लम्बा किया जा सकता हो, जिसके मस्तिष्क में 14 अरब पाँच लाख ज्ञानतंतु हों ओर 20 अरब पृष्ठों का ज्ञान अपने भीतर समाहित रख सकते हों, जिसकी मोटर लगातार बिना रुके एक सौ वर्ष तक चलते रहने की क्षमता रखती हो तथा जिसके मस्तिष्क में, वैज्ञानिक आर्डिस व्हिटमैन के लेख ‘व्हाट इज दि लिमिट ऑफ योर माइन्ड’ के अनुसार-केवल 3 पिंट (1 पिंट = 1 1/2 पाव वजन) भाग में अब तक पृथ्वी में उपलब्ध भी और प्रस्तावित भी सम्पूर्ण विद्युतशक्ति विद्यमान हो, उस मशीन-शरीर का कुछ तो बड़ा उद्देश्य होना चाहिए।
इसी तरह वैज्ञानिकों के हवाले से उन्होंने विराट् ब्रह्माण्ड के अविज्ञात रहस्यों और नैतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके विश्वव्यापी संकल्प-सत्ता परमात्मा का प्रतिपादन किया। परमपूज्य गुरुदेव ने इस तरह के दृष्टान्तों से व्यक्तिगत अनास्था को श्रद्धा में, अनुशासन में और विश्व-व्यवस्था को ईश्वरीय विश्वास में बदला। दुनिया में युगनिर्माण मिशन अकेला आन्दोलन है जिसने अशिक्षितों से लेकर उच्च शिक्षित बुद्धिवादियों तक को अध्यात्म से जोड़ दिया, इस श्रद्धा और विश्वास को आत्मबोध से जोड़ने के लिए उन्होंने लोगों को सद् चिन्तन की आधारभूत और परमात्मा की अभिव्यक्त सत्ता गायत्री और सत्कर्म के मूर्तिमान स्वरूप यज्ञ से जोड़ दिया। नास्तिक संसार को आस्तिक संसार में बदलने का सृष्टि के आविर्भाव से लेकर अब तक यह सब बड़ा उपक्रम है, विराटतम, महानतम आँदोलन है।
कोई भी मान्यता जब तक अभ्यास में नहीं परिवर्तित होती, तब तक उसमें स्थायित्व नहीं रहता। फिर श्रद्धा और विश्वास तो एकाँगी होते हैं। ऐसे लोग आत्म-कल्याण तक सीमित रह जाते हैं। अंतःकरण का एकान्त उन्हें व्यवहार में भी एकान्तवादी बनाता है। वह नीव कन्दराओं, जंगलों की ओर भागता है। इससे न तो संसार चलता है ओर न सांस्कृतिक सौंदर्य निखरता है। इसलिए परमपूज्य गुरुदेव की चतुराई देखिए कि उन्होंने श्रद्धा को समर्पण से जोड़ा, भले ही वह समाज की सेवा के लिए एक घंटा समय और दस पैसे प्रतिदिन अंशदान जितना छोटा ही क्यों न रहा हो।
विराट गायत्री परिवार और उसका विश्वव्यापी किया क्षेत्र इस समर्पण साधना का ही चमत्कार है। इसकी विधिवत् शुरुआत परमपूज्य गुरुदेव ने पहली बार 1954 के नरमेध से की थी। उन्होंने उस समय के अधिकतम एक हजार रहे अखण्ड-ज्योति के पाठकों से विश्व के लिए आत्मनिर्माण हेतु नरमेध अर्थात् समाज-सेवा के लिए नचिकेता और शतमन्यु की तरह सम्पूर्ण समर्पण का आग्रह किया था। यह परमेध या उस समय का एक अद्भुत कौतुक था, पुरातन मान्यता के अनुसार इसे मनुष्यों की बलि माना गया था और उसे देखने के लिए सारी मथुरा उमड़ पड़ती थी। तब टूटे-टाटे कुल 27 व्यक्ति मिले थे। परम पूज्य गुरुदेव ने उन्हीं से तात्कालिक प्रशिक्षण और व्यवस्था कार्यों का संचालन किया था। आज की तुलना में कह नहीं सकते यह उपलब्धि कितनी नगण्य रही होगी, पर लाखों फल देने वाला आम का वृक्ष भी तो प्रारम्भ में चार अंगुल का ही होता है ? इसलिए उसे नगण्य कहना भूल होगी।
दिसम्बर 1954 में परमपूज्य गुरुदेव ने वेद पारायण यज्ञ, रुद्र यज्ञ, विष्णु यज्ञ, शतचंडी यज्ञ, नवग्रह यज्ञ, महामृत्युँजय यज्ञ, गणपति यज्ञ, सरस्वती यज्ञ, अग्निष्टोम, ज्योतिष्टोम आदि दस यज्ञों की घोषणा की और उनकी व्यवस्था और संचालन के लिए पुनः समयदान माँगा तब उन्हें कुल 14 व्यक्ति मिले। अप्रैल 56 में साँस्कृतिक सेवा-शृंखला के लिए पूज्य गुरुदेव ने पुनः आत्मदान की अपील की तब 20 लोग मिले। फरवरी 1957 में उनके नाम भी प्रकाशित हुए थे। यह बात अलग है कि इनमें से अधिकाँश लोगों की निष्ठा निर्बल थी, अतः लोग आते-जाते रहे, पर परमपूज्य गुरुदेव व वंदनीया माताजी द्वारा एकाकी खींचे जा रहे रथ-चक्र को धीरे-धीरे आगे धकेलने में सहायक बने रहे।
आयोजन छोटे रहे हों, बड़े या मध्यम, अखण्ड-ज्योति के लेख रहे हों या बौद्धिक प्रवचन, पूज्य गुरुदेव ने अपनी याचना कभी बंद नहीं की। फलतः 1958 के हजार कुँडी या में नैष्ठिक स्तर के चार समर्पित आत्मदानी परमपूज्य गुरुदेव को मिले, जिन्हें गुरुदेव ने पुत्रवत् स्नेह दिया, प्रशिक्षण दिया। अधिकार दिए और उन्हें अपने समान कार्यक्षेत्र में उतारा। यह वह समय था जब एक साथ चार-चार पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई। गायत्री परिवार की 2400 शाखाएँ स्थापित हुई न केवल सारे देश भर में यज्ञों की ऐसी व्यापक शृंखला चलाई गई, अपितु अंधविश्वास पशुबलि व दहेजप्रथा आदि के विरुद्ध तीव्र संघर्षात्मक मोर्चे खोले गये और उनमें गायत्री परिवार को अभूतपूर्व सफलता मिली। मिशन की साख निरंतर बढ़ती गई। यहाँ यह न बताना भूल होगी कि समर्पण की श्रेणी में आने वाले वह समयदानी अब तक हजारों की संख्या में बढ़ रहे थे, जो अपने घर-परिवार और क्षेत्र में रहकर गायत्री का प्रचार-प्रसार करते थे, यज्ञ कराते थे, पत्रिकाएँ बाँटते थे, ज्ञान मंदिरों के माध्यम से परमपूज्य गुरुदेव की तब की लिखी छोटी-छोटी पुस्तकें उसी भक्तिभाव से लोगों को पढ़ाते थे, जिस तरह किसी जमाने में भारतवर्ष जैसे सर्वथा अशिक्षित और अँग्रेजी बिलकुल न समझने वालों को टूटी-फूटी हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के सहारे अच्छे-अच्छे पदाधिकारी ईसाई अंग्रेज हिन्दी में अनूदित ईसा संदेश, लूका, यूनान मसीह और मरकुस घर-घर जाकर पढ़ाते थे। यदि उनकी इस तप-साधना से भारतवर्ष का एक बड़ा भाग ईसाई धर्म में दीक्षित हो सकता है तो अपने ही देश के लोगों में अपनी ही भाषा में अपने ही लोगों द्वारा फैलाया गया मिशन किसी तरह मजबूत जड़ें जमा पाया, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
परमपूज्य गुरुदेव ने समयदान की इस परम्परा को अनेक विधि-प्रशिक्षणों से जोड़कर और आगे बढ़ाया। जुलाई 64 में एक माह का गीता प्रशिक्षण रखा गया। उसमें भाग लेने वालों ने गीता कथा के माध्यम से युगनिर्माण मिशन का विस्तार किया। अक्टूबर 64 में मथुरा गायत्री तपोभूमि में बने हॉल का निर्माण भी समयदानियों के श्रमदान से हुआ। अगले ही वर्ष 1, 3 अथवा 5 सदस्यों द्वारा युगनिर्माण योजना प्रतिनिधि समितियों का संगठन हुआ। 1965 में लेखक और धर्मप्रचारक प्रशिक्षण शिविर सम्पन्न हुए, इससे एक नया मोर्चा खुला। इसी वर्ष जून में पहली बार पूज्य गुरुदेव ने लोगों से प्रतिदिन एक घंटा समय और एक आना (तब इकन्नी, दुअन्नी आदि सिक्कों का प्रचलन था।) अंशदान की अपील की, जो अद्यतन एक घंटा समय और 20 पैसे अंशदान के रूप में चल रही है और उसे ‘ज्योमेट्रिकल प्रागेशन’ की तरह एक से दो, दो से पाँच, पाँच से पच्चीस के रूप में बीजगणित की विशेष प्रक्रिया की तरह मिशन का विस्तार हो रहा है।
1965 में युगनिर्माण विद्यालय की पूज्य गुरुदेव ने स्थापना की, उसका कक्ष राजा महेन्द्र प्रतापसिंह द्वारा स्थापित प्रेम महाविद्यालय की तरह था, जिसमें लोगों को दरियाँ, गलीचे बुनना सिखाया जाता था, पर भीतर-भीतर वह स्वाधीनता सैनिक प्रशिक्षित करने का अड्डा था, आशा की गई थी कि इस विद्यालय से निकले बालक जहाँ भी रहेंगे ध्रुव तारों की तरह मिशनरी आदर्शों, सिद्धान्तों और कार्यक्रमों का प्रचार करेंगे। 1966 में वानप्रस्थियों और प्रबुद्धजनों के प्रशिक्षण शिविर सम्पन्न किए गये, लक्ष्य एक ही था। परमपूज्य गुरुदेव ने 1966 में ही 5 वर्ष बाद के परिवर्तन की घोषणा कर दी थी, भले ही उन्होंने स्पष्ट न किया हो, परन्तु शांतिकुंज का विचार बीज उसी समय का है जिसमें परमपूज्य गुरुदेव ने औरों के साथ-साथ अपनी मथुरा से विदाई के साथ अपना भी सम्पूर्ण समर्पण आत्मदान कर दिया। उसके बाद तो सारा संसार ही उनका परिवार बन गया। इस 5 वर्ष की अवधि में भी गायत्री तपोभूमि, मथुरा में लोगों के आने का क्रम जारी रहा। उन्होंने जब तपोभूमि छोड़ी तो उसे सँभालने वाले प्रायः पचास आत्मदानी वहाँ आकर व्यवस्थित रूप से बस गए थे।
समयदान और आत्मदान का व्यवस्थित स्वरूप परमपूज्य गुरुदेव ने शांतिकुंज में निखारा। तीन किश्तों में अब तक शान्तिकुँज के ब्राह्मणोचित आजीविका और लार्जर फेमिली के सिद्धान्तों पर कार्य करने वालों की संख्या प्रायः तीन सौ हो गयी और तीन माह से लेकर 5 वर्ष तक का समयदान करने वाले स्वयंसेवकों की संख्या प्रायः 4 सौ है। अपने आप में यह अनोखी टाउनशिप है। जिसे समाज व्यवस्था का एक अनुपम आदर्श माना जाता है।
शान्तिकुँज से जुड़े तंत्र की क्षमता का अनुमान करना हो तो शान्तिकुँज की 25 वर्षों की गतिविधियों और इस अवधि में यहाँ आये प्रत्येक व्यक्ति से कराये गये समयदान संकल्प से किया जा सकता है ? यों 1971 में स्थापनाकाल में यहाँ आकर 3640 लोगों ने विधिवत समय व श्रमदान किया 1972 में अनुदान सत्र में 4218 परिजन आये। शिविरों की विधिवत् शृंखला प्राण-प्रत्यावर्तन सत्रों के रूप में 1973 से प्रारम्भ हुई, जिसमें 3416 ने भाग लिया। 1982, 85 के अनुदान सत्रों में क्रमशः 4088 तथा 3519 श्रद्धालु आये। इन दो वर्षों को छोड़कर 1976 से लेकर 1976 की अवधि में क्रमशः 3110, 2242, 1137, 1814, 5530, 6695, 8010, 12052, 23355, 24483, 14417, 14820, 23096, 18078, 18299 तथा 37111 श्रद्धालुओं ने 9 दिवसीय साधना सत्र सम्पन्न किए और समयदान, अंशदान के संकल्प पत्र भरे। 1978, 79 में संपन्न एकमासीय चान्द्रायण सत्रों में 1500 व 1380 लोगों भाग लिया। 1971, 1980 तथा 1991 के जातीय सम्मेलनों में क्रमशः 10310, 6220 तथा 9454 लोग आये। 1983 के कल्पसाधना सत्र में 2118 तथा 1990 के श्रद्धाँजलि समारोह में आगंतुकों की संख्या 488237 ओर 1971 से 1996 तक अतिथियों के रूप में आए परिजनों की कुल संख्या 912128 है। स्पष्ट मान लें कि यहाँ अतिथियों का केवल भोजन-आवास से सत्कार भर करने की परम्परा नहीं है, उन्हें राष्ट्र और समाज के निर्माण में कुछ न कुछ हाथ बँटाने के लिए अनिवार्य रूप से संकल्पित होना पड़ता है।
जिन्होंने युगनिर्माण मिशन को समर्पित सेवाएँ ही देने की प्रतिज्ञा की और वर्ग शिविरों में भाग लिया, यह संख्या इनके अतिरिक्त है। इनमें प्रथम वह परिव्राजक हैं, जिन्होंने 10 दिन का प्रशिक्षण लिया और क्षेत्रों का काम सँभाला। 1974, 75, 76 तथा 79 में इनकी संख्या 2988,3820, 2630 तथा 800 थी। 1975 में रामायण प्रशिक्षण लेकर 2700 लोगों ने श्रीराम कथा के माध्यम से मिशन की सेवा का व्रत लिया। 1971 में 2000 लोग प्रशिक्षित होकर शक्तिपीठों में गये और इस मिशन द्वारा स्थापित 4000 शक्तिपीठों के संचालन में योगदान दे रहे हैं। शक्तिपीठों की अपनी व्यक्तिगत व्यवस्था के अंतर्गत काम करने वाले इससे अलग है। औसत 5 ट्रस्टियों की संख्या मानें तो अकेले सेवाएँ देने वाले ट्रस्टीगण ही 20 हजार हैं, जो शक्तिपीठों के माध्यम से युगनिर्माण कार्यों में जुटे हैं दस-दस की संख्या के चालीस हजार प्रज्ञामंडल इससे अलग हैं। 1980, 81 में ऐसे ही 1100 तथा 610 परिव्राजक निकले। परमपूज्य गुरुदेव के लिखे चार प्रज्ञापुराणों का 800 लोगों ने प्रशिक्षण लिया। 1983 वर्ष को छोड़कर शेष 1982 से लेकर 1996 तक केवल समयदान के उद्देश्य से ही 26906 लोगों ने प्रशिक्षण लिया और अब युगनिर्माण की अलख जगाने में लगे है। इसी सम्पूर्ण अवधि में शांतिकुंज से क्षेत्रों में छोटे-बड़े आयोजनों से लेकर बड़े कार्यक्रमों तक व्यवस्थित रूप से 46720 लोग प्रशिक्षित किए और कार्यक्षेत्र में उतारे गये। संगीत शिक्षा के माध्यम 1994 तथा 1917 में क्रमशः 175, 199 युवकों ने सेवाएँ दी। 1976, 77, 78, 79 में प्रतिमाह 140 महिलाएँ और इन्हीं प्रथम तीन वर्षों में 3 माह का प्रशिक्षण लेकर क्रमश 400, 550 तथा 480 महिलाएँ कार्यक्षेत्र में उतरीं और महिला जागरण अभियान को गतिशील किया। नियमित रूप से अखण्ड-ज्योति, युगनिर्माण योजना, युगशक्ति गायत्री सभी भाषाओं की पत्रिकाएँ थोक में मंगाकर ज्ञानदान देने वालों की संख्या भी प्रायः 25 हजार से अधिक है। ज्ञातव्य है कि इस पत्रिका को बाहर लाख से अधिक संख्या में ‘नो प्रोफिट नो लॉस’ की स्थिति में छाया जाता है। यह उपलब्धियाँ अपने आपमें एक सशक्त-समर्थ संगठन का पर्याय है। कल्पना की जाए यह सामर्थ्य युग बदलने में कितनी भूमिका निभा सकती है ?
भारत सरकार के पास निवृत्त होकर पेंशन भोगने वालों की संख्या इससे लाखों गुना अधिक है। परमपूज्य गुरुदेव ने हम लोकसेवियों को कभी कुछ नहीं दिया, मात्र उन्हें युगनिर्माण के इंजीनियर्स, युगशिल्पी, सृजन सैनिक, क्रान्तिदूत, युगनिर्माण सम्बोधनों से सम्मानित भर किया, पर सरकार चाहे तो अपने पेंशन भोगियों की राष्ट्र के पुनर्निर्माण कार्यक्रमों में लगाकर सारे देश का कायाकल्प कर सकती है। शायद कभी उसकी भी यह इच्छाशक्ति जाग्रत हो। एक काँग्रेसी स्वयंसेवक ने इतनी बड़ी जनक्रान्ति श्रद्धा-समर्पण के सहारे कर दी तो इतना बड़ा राजतंत्र कोई बड़ी क्रान्ति क्यों नहीं कर सकता ?