साधन की दृष्टि से मानवीसत्ता का विश्लेषण का जाए तो उसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। पहला-हड्डी-माँस का, पंचतत्वों का बना पिण्ड जिसे स्थल ।शरीर कहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के द्वारा इसके माध्यम से विविध-विधि क्रियाएँ सम्पन्न की जाती है। दूसरा-मन, बुद्धि, चित्त अहंकार द्वारा बना, शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्राओं से विनिर्मित अनुभूतियों, इच्छाओं और प्रेरणाओं का आधार सूक्ष्म शरीर, जिसे माइण्ड या ज्ञान संस्थान भी कहते हैं। तीसरे-आस्थाओं, मान्यताओं, आकांक्षाओं का उद्गम। जीवन की दिशाओं का निर्धारण करने वाला कारण शरीर, जिसे अंतरात्मा अथवा अंतःकरण भी कहते हैं। भाव-सम्वेदनाएँ, उच्चस्तरीय आवेग यही जन्म लेते है। संक्षेप में इन तीनों को क्रमशः क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति और इच्छाशक्ति का उद्गम केन्द्र कह सकते हैं। इन तीनों का समन्वित रूप ही मानवी-जीवन है।
इन तीनों में से किसी एक में अथवा तीनों में आयी विकृति से हमारा जीवन लड़खड़ाने लगता है। स्थूल शरीर में आयी विकृति रोग-व्याधियों के रूप में उभरती है और हमें अपंग-अपाहिज एवं असहाय जैसी स्थिति में ला पटकती है। सूक्ष्म शरीर की विकृति कुण्ठाओं-ग्रन्थियों के रूप में सामने आती है। इन विकृतियों की ही वजह से व्यक्ति-पागल एवं अपराधी के रूप में स्वयं के एवं औरों के जीवन को तबाह और तहस-नहस करने में जुट जाता है। कारण शरीर की विकृतियाँ मनुष्य से उसकी मनुष्यता छीन लेती हैं। समस्त उच्चस्तरीय सम्भावनाएँ उसके जीवन से जाती रहती है। विकृतियों के निदान एवं कारगर उपचार की दृष्टि से इन तीनों की विवेचना आवश्यक है। जब तक संरचना का ज्ञान न होगा- प्रतिक्रियाओं व परिणति की जानकारी कैसे होगी ? इसी कारण साधना विधान के विस्तार में जाने वाले साधकों को पहले ‘स्प्रिचुअल एनाटॉमी’ की जानकारी करायी जाती है। साधनाक्रमों का चयन इस प्रारम्भिक शिक्षण के बाद ही किया जाना उचित है।
यों तो तीनों शरीरों की महत्ता और सामर्थ्य अपने आप में अद्भुत है। फिर भी स्थूल शरीर द्वारा सम्भव श्रम का मूल्य स्वल्प है। वह तो पशु और मशीनों द्वारा भी कराया जा सकता है। महत्वपूर्ण तो है, पंचतत्वों द्वारा विनिर्मित यह कलेवर, जिसके माध्यम से अन्य दो सूक्ष्म गहराई में विराजमान परतें अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करती हैं। सूक्ष्म शरीर वह संस्थान है जिसको परिमार्जित-प्रखर बनाकर हम वैज्ञानिक, कलाकार, विद्वान बनते हैं। बौद्धिक क्षमता के उपार्जन से धन-यश, सम्मान प्राप्त करते हैं। वासना-तृष्णा का उद्भव इसी से होता है। तरह-तरह की महत्वाकाँक्षाओं को पूर्ण करने वाला ताना-बाना यहीं बुना जाता है। ‘माइण्ड’ रूप में विद्यमान इसी चेतन प्रकृति को विकसित कर बुद्धिमान, दूरदर्शी, कला-कौशल सम्पन्न बन जाता है।
इन दोनों से ऊँची परत है कारण शरीर की। यह सबसे शक्तिशाली स्तर है। यहाँ आस्थाएँ, मान्यताएँ, विश्वासों की गहरी परतें जमा होती है। सम्वेदनाएँ यहीं जन्म लेती है। शौर्य, साहस एवं आदर्शवादी प्रेरणाओं का उभार इसी क्षेत्र में होता है। अपने आत्मस्वरूप का निर्धारण, आध्यात्मिक जीवन की रीति-नीति, अभिरुचियों का नियोजन यहीं होता है। व्यक्तित्व का निर्धारण और निखार यही से सम्भव होता है। इसी केन्द्र के उत्थान या पतन पर व्यक्तित्व का समुन्नत बनना या गिरना सम्भव हो पाता है। यही जीवचेतना का केन्द्र है। आस्थाओं की परत यहीं चढ़ी होती है।, उसी प्रकार की गतिविधियों का संचालन मन व शरीर द्वारा सम्भव हो पाता है।
आमतौर पर ध्यान शरीर पर दिया जाता है। खाने-पीने, सोने से लेकर तरह-तरह के इन्द्रिय उपभोगों से इसी पिण्ड को सुखी-सन्तुष्ट करने का प्रयास किया जाता है। रुग्ण व स्वस्थ यही होता है। बहिरंग में सुन्दर व कुरूप यही नजर आता है। अतः स्थूल दृष्टि इसे सुन्दर-स्वच्छ-समुन्नत बनाने में नियोजित होती है। निम्नवर्ग के व्यक्ति अपनी गतिविधियों को इसी शरीर तक केन्द्रित रखते हैं। ‘यावज्जीवत् सुखं जीवेत्’ का सिद्धान्त ही उनके लिए अनुकरणीय होता है।
जिनका चेतनास्तर मध्यवर्ती विकास स्तर तक पहुँच चुका होता है। उनको मस्तिष्कीय विकास का महत्व समझ में आता है। वे विद्यार्जन, बुद्धि-कौशल, उपार्जन व ज्ञान-सम्पादन में रुचि लेते हैं। कालेज शिक्षा से लेकर सामान्य जीवन व्यवहार का ज्ञान अर्जित कर वे सम्मान-नेतृत्व पाते हैं। यशस्वी बनते है। उनकी महत्वकाँक्षाएँ इसी उद्देश्य की पूर्ति तक सीमित रहती है। इसी कारण मस्तिष्क विकास के जितने भी विनोदात्मक, संवर्द्धनात्मक, उपभोगात्म तरीके उपलब्ध हो सकते हैं, उसे वे जुटाते रहते हैं। जीवन का अधिकाँश समय उनका इसी पुरुषार्थ में निकल जाता है। यह सामान्य से कुछ ऊँचे स्तर की स्थिति हुई।
तीसरी स्तर, जो सर्वोच्च व शक्तिशाली है-कारण शरीर का है। इसके स्वरूप को समझा एवं परिष्कृत करने का प्रयत्न करना मात्र उच्च भूमिका में विकसित व्यक्तियों के लिए ही सम्भव हो पाता है। इस स्तर की उपयोगिता-महत्ता सामान्य बुद्धि के व्यक्तियों को समझ में नहीं आती, न ही उन्हें प्रत्यक्ष रूप में इसका कोई प्रतिफल ही नजर आता है। भाव संवेदनाएँ, आस्थाएं ही समग्र मानवी व्यक्तित्व को दिशा देती है। उसका स्वरूप निखारती हैं, उच्चस्तरीय चिन्तन में निमग्न होने की प्रेरणा देती हैं। यह समझना, अनुभव करना व उस स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करना हर किसी से नहीं बन पाता । इसी कारण यह अछूता पड़ा रह जाता है। स्वभाव बदलता नहीं, आदतें सुधरती नहीं, पशुवृत्तियों से मोर्चा लेते बनता नहीं व जीवन-शकट जैसे-तैसे खिंचता रहता है।
ऐसे व्यक्ति भौंड़े असभ्य कहलाते हैं व अस्त-व्यस्त असफल जीवन जीकर बहुसंख्य जीवों की तरह मृत्यु की शरण लेते हैं। अतीन्द्रिय दैवीक्षमताओं की, सिद्धियों की, व्यक्तित्वोत्थान की चर्चाएँ जो भी सुनी जाती है, वे इसी कारण शरीर के विकासोन्मुख उभार है। पाश्चात्यविज्ञान के ज्ञाताओं ने थोड़ा-थोड़ा स्पर्शमात्र इस विषय का किया है, पर वहाँ भी वे आँकल्ट का जिक्र कर चुप हो गए हैं। ‘मिस्टीसिज्म’ नाम से जाना जाने वाला यह विषय उतना ही स्पष्ट एवं खुला हुआ है जितने भौतिकी के अन्य अध्याय। पर स्वरूप की सही जानकारी के अभाव में उथले प्रयत्नों को ही समग्र मान उनकी परिणति हुई समझ ली जाती है।
अगले दिनों जब भी साधना विज्ञान का सही स्वरूप लोगों की समझ में आएगा, तो वे जानेंगे कि मानवीसत्ता के इस मूल आधार को विकसित करने पर शारीरिक कायाकल्प-मानसिक प्रत्यावर्तन एवं अति सूक्ष्म स्वर्ग एवं मुक्ति जैसे दिव्य वरदानों से लाभान्वित हुआ जा सकता है। व्यक्ति स्वयं को लघु से महान् नर से नारायण एवं आत्मा से परमात्मा बना सकता है। सारे महामानव अपने इसी आस्था संस्थान को परिष्कृत-समुन्नत बना कर ऊँची स्थिति पर पहुँच पाए है।
साधना-विज्ञान भारतीय संस्कृति की अमूल्य सम्पदा व विश्व को एक बहुमूल्य देन है। साधना प्रक्रिया का जो स्वरूप पहले प्रचलित था, उसके अनुसार हठयोग द्वारा स्थूल शरीर का-राजयोग से सूक्ष्म शरीर का एवं ब्रह्मयोग द्वारा अन्तः करण का परिमार्जन-परिशोधन किया जाता था। इन्हीं का व्यवहारिक स्वरूप था कर्म-ज्ञान एवं भक्तियोग। साधनात्मक उपक्रमों की विविधताओं का विभाजन इन्हीं तीन समूहों में करके व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुसार उसे मार्गदर्शन दिया जाता था। यह पुरुषार्थ साधारण स्तर का नहीं-तप अर्जित मनोबल की शक्ति से सुपात्र बनने वाले साधक को ही प्राप्त होता था।
आज तो अति सुगम बनाने के चक्कर में इस पूरे विज्ञान-विधान को एक मात्र स्थूल तक ही सीमित कर दिया गया। यह एक शाश्वत-सनातन सत्य है कि अन्तरात्मा का गहन स्तर ही व्यक्तित्व को दिशा देता एवं समर्थ बनाता है। अतिमहत्वपूर्ण-अतिमानव देवपुरुष, अग्रगामी, महापुरुष कहे जाने वाले व्यक्ति अपने इसी स्तर को दिशा-विशेष में परिपुष्ट कर आगे आए हैं। जिसका यह अन्तस्-अंतःकरण खोखला होगा-वह बहिरंग में सम्पन्न होते हुए भी व्यक्तित्व की दृष्टि से ओछा, बौना एवं गया-गुजरा ही बना रहेगा। ऐसे व्यक्ति का वैभव उसके लिए तो अभिशाप सिद्ध होगा ही, समाज में अन्य सभी के लिए भी विपत्ति का कारण बनेगा।
सारे साधना उपचारों का लक्ष्य एक ही रहता है। इस मर्मस्थल-अन्तः-करण की गहन पर्तों को स्पर्श कर वहाँ छाए अन्धकार को मिटाना तथा उस स्थान को श्रेष्ठ-समुन्नत बनाना। साधना विधानों का स्तर बहिरंग से अन्तरंग गत परत-दर-परत छूने के लिए अलग-अलग होने के कारण उनके प्रकार भी भिन्न-भिन्न हैं। पर मोटा विभाजन यही है कि स्थूल शरीर की साधना व उसे उच्चस्तरीय साधना उपक्रमों के योग्य समर्थ बनाने के लिए क्रियायोग तथा कारण शरीर की साधना हेतु चिन्तन-भाव संवेदनापरक ध्यानयोग। इन्हीं दो में सारे साधना विज्ञान का ढाँचा विभाजित हो जाता है।
अध्यात्म विद्या को भी तत्त्ववेत्ताओं ने इसी प्रकार चिन्तन और क्रिया के दो भागों में विभक्त किया है। चिन्तन में उत्कृष्टता का समावेश करने वाले प्रतिपादन को ब्रह्मविद्या कहते हैं। इसमें ईश्वरीय निर्देशों एवं ऋषि अनुभवों को इसी प्रकार गूँथा गया है कि मानवी अन्तःकरण उसे स्वीकार कर ले। शास्त्र-वचनों का स्वाध्याय चिन्तन-मनन एवं शास्त्रों का सत्संग इसी निमित्त किया जाता है। यह अध्यात्म विद्या का तत्त्वदर्शन वाला पक्ष हुआ, जिसमें मान्यताओं की श्रद्धा-तर्क के आधार पर मान्यताओं से काट की जाती है।
दूसरा पक्ष साधना का है। स्वयं की विकृतियों का निराकरण करके-सूक्ष्म जगत से, दैवीशक्तियों से संपर्क का आदान-प्रदान का द्वार खोलने वाला यह प्रयास उपासना-साधना के रूप में जाना जाता है। जिसमें व्यक्ति स्वयं को अनगढ़ से सुगढ़ व ईश्वर का सामीप्य पाने योग्य बनाता है।
चिन्तापरक ब्रह्मविद्या तथा साधनापरक तपश्चर्या दोनों ही तथ्यपूर्ण व महत्त्वपूर्ण हैं। एक ज्ञानपक्ष है तो दूसरा विज्ञानपक्ष। एक को ब्रह्मवर्चस का ब्रह्मपक्ष व दूसरे को वर्चसपक्ष कहते हैं। दोनों मिलकर ही सम्पूर्ण-समग्र बनते हैं। ब्रह्मवर्चस् विज्ञान की इन दोनों ही विद्याओं का सारे साधना उपक्रमों में समावेश रहता है। ज्ञान व विज्ञान दोनों का समन्वय क्रियायोग व ध्यानयोग में है। बिना चिन्तन में भाव सम्वेदनाओं की उत्कृष्टता उभारे, तप-साधना के प्रयास अधूरे व एकाँगी ही बने रहते हैं। इस मूल तथ्य को सबसे पहले समझा जाना चाहिए कि उच्चस्तरीय आस्थाओं की वरीयता स्वीकार करके ही साधना पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है।
स्थूल शरीर, सूक्ष्मशरीर व कारण शरीर, क्रियायोग व ध्यानयोग ब्रह्मविद्या एवं तपश्चर्या के इन विभाजनों एवं उनके विवेचन को स्पष्ट करने का उद्देश्य यह है कि इस सत्य को भली प्रकार समझा जाना चाहिए कि साधना समग्र व्यक्तित्व की उपचार प्रक्रिया है। समस्त जीवन की विकृतियों का निदान करने एवं उसकी विभूतियों को उभारने, उकेरने का अनोखा-अनूठा प्रयास है। इसके प्रत्येक चरण का, प्रत्येक उपक्रम का लक्ष्य एक ही है-अन्त करण मर्मस्थल को स्पर्श करने वाली आस्थाओं का उन्नयन, मान्यताओं का परिष्कार, परिमार्जन, प्रसुप्त पड़ी क्षमताओं का जागरण तथा देवपुरुष, ऋषि-महामानव बनने की दिशा में चिन्तन एवं क्रिया का सुनियोजन
इस लक्ष्य की पूर्ति में आप्तवचनों के अतिरिक्त सुनियोजित मार्गदर्शन की समय-समय पर आवश्यकता पड़ती है, इसीलिए तत्वदर्शन व चिन्तन के रूप में आत्मतत्व रूपी सद्गुरु अथवा आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति काया में विद्यमान प्रत्यक्ष गुरु की सहायता ली जाती है। गुरु उस सद्गुरु से दिशा-निर्देश प्राप्ति में सहायता करता है। व पात्रता के अनुरूप अपनी शक्ति का एक अंश भी साधक को देता है, परन्तु वास्तविक सहायता उसी आत्मतत्व से मिलती है। जिसे अपने अन्तःकरण में जगाया जाता है। यदि आत्मतत्व परिष्कृत, जागा हुआ न हो तो गुरुकृपा भी सूखी चट्टान पर बरसे वर्षा जल की तरह निरर्थक चली जाती है।
अपने आपे को परिष्कृत करने जगाने की जो साधना की जाती है, उसमें ध्यान-धारणा का महत्वपूर्ण स्थान है। अपने चिंतन को इधर-उधर भटकने से रोक कर उत्कृष्ट प्रवाह के साथ जोड़ देना उसी प्रकार है जैसे अपने अन्दर के क्रिस्टल को ईश्वर में संव्याप्त तरंगों को ग्रहण करने योग्य बना लेना व आदान प्रदान का क्रम आरम्भ कर देना सद्भाव संवर्द्धन श्रद्धा-अभिवर्द्धन से श्रेष्ठ कोई साधना नहीं । सोऽहं की हंसयोग साधना नादयोग, त्राटक, ज्योति अवतरण एवं चक्र भेदन इत्यादि साधनाएँ मूलतः ध्यानपरक हैं। इनसे अखण्ड-ज्योति के मनस्वी पाठक परिचित भी हैं। समयानुसार अपनी दिनचर्या में उन्होंने इनको यथोचित स्थान भी दे रखा है।
लेकिन युगसन्धि के इन महत्वपूर्ण अन्तिम वर्षों में इसे अभियान आन्दोलन का रूप दिया जाना है। परम वन्दनीया माता जी की तृतमीय पुण्य तिथि महालय पूर्णिमा, 16 सितम्बर को इस अभियान का शुभारम्भ तीन दिवसीय साधना-संवर्ग में होना सुनिश्चित हुआ है। इस अभियान का उद्देश्य अपने राष्ट्र एवं विश्वमानवता को श्रेष्ठ एवं समुन्नत महामानव प्रदान करना है। इस साधना-संवर्ग में सम्मिलित होने वाले एवं इसमें बताई गयी साधना की विशिष्ट विधियों को अपनाने वाले व्यक्ति ही इक्कीसवीं सदी में संचालित होने वाले सृजन-उपक्रमों का नेतृत्व करेंगे। परम वन्दनीया माताजी एवं परमपूज्य गुरुदेव को इस अपूर्व ऊर्जा अनुदान को साधना-संवर्ग में सम्मिलित होने वाले परिजन अनुभव किए बिना न रहेंगे। यह अनुदान उनके समस्त जीवन को अनेकानेक विभूतियों का उपहार देने वाला सिद्ध होगा।