नवयुग का स्वागत आयोजन-समयदान एवं अंशदान का नियोजन

September 1997

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इस वर्ष हम स्वतंत्रता की पचासवीं सालगिरह मना हरे हैं। अकेले हम भारत में रहने वाले ही नहीं, सारे विश्व में एक अनूठे उत्साह के साथ इस वृहत गणतंत्र की यह पचासवीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है। समस्त निराशाजनक परिणामों के बावजूद जो उपलब्धियाँ इस राष्ट्र की इस बीच रही हैं, उस पर सभी गणमान्य लेखकों ने टाइम, न्यूजवीक, द टाइम्स इंटरनेशनल, हेराल्ड, ट्रीब्यून, गार्जियन, इन्डिपेण्डेण्ट जैसी अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में तथा इण्डिया टुडे, फ्रंट-लाइन, पाँचजन्य जैसी भारत स्तर की पत्रिकाओं में बहुत कुछ आशाजनक भारत के बारे में लिखा है। संव्याप्त भ्रष्टाचार के बावजूद इस देश की माटी में सभी ने ऐसा कुछ पाया है कि वे इस देश को इक्कीसवीं सदी में सिरमौर की स्थिति में उभरता पाते हैं। निर्णायक दौर से गुजर रहे इस राष्ट्र में कोई तो ऐसी बात होगी जो सभी मूर्धन्यों को उज्ज्वल भविष्य का संकेत दे रही है। स्वयं राष्ट्र कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-

सौ सौ निराशाएँ रहे, विश्वास यह दृढ़ मूल है। इस आत्म लीला भूमि को, वह विभु न सकता भूल है।

अनुकूल अवसर पर दयामय,फिर दया दिखलाएँगे। वे दिन यहाँ फिर आएँगे, फिर आएँगे, फिर आएंगे।

इस अथाह विश्वास के मूल में जहाँ मानस भवन में आर्यजनों से भद्रभावोद्भाविनी-उस भारती की आरती उतारने-नवयुग का स्वागत आयोजन करने के पीछे जन-चेतना जगाने का भाव है, वहाँ उस परमसत्ता पर अडिग विश्वास भी कि यह देश जो विश्वसंस्कृति का केंद्रबिंदु रहा है, आगामी ढाई-तीन वर्षों में निश्चित ही अपनी समस्याओं से उबर कर सबको मार्गदर्शन देने योग्य बन सकेगा। यह विश्वास स्वामी विवेकानन्द, श्री अरविन्द, सुभाषचन्द्र बोस के बाद हमें परमपूज्य गुरुदेव ने दिखलाया एवं कहा कि विभाजन से बँटे इस देश का दूसरा स्वातंत्र्य समर अभी लड़ा जाना है। चेतन के स्तर पर लड़ जाने वाले इस युद्ध में जाग्रत लोकशक्ति ही प्रमुख भूमिका निभाएगी। चैतन्य शक्तियों में सबसे बड़ी संघशक्ति है एवं आड़े समय में यही देवशक्तियों का समन्वय काम आता है एवं नगण्य से, असमर्थ से प्रतीत होने वाले व्यक्तियों से वह पुरुषार्थ करा लेता है, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जाती थी।

1990 में लिखे गए अपने अंतिम अमृत संदेशों में परमपूज्य गुरुदेव का चिन्तन आमूलचूल आशावादी मिलता है। यह वह समय था जब राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सभी स्तरों पर अराजकता का भयानक दौर था। किंतु पूज्यवर ने लिखा है कि - “हमारी युग-परिवर्तन की भविष्यवाणी के मूल में एकमात्र महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि यह है कि भावनाशील मनुष्यों का अधिकाँश समय पेट-प्रजनन की सीमित स्वार्थपरता में न खपेगा। उसका एक बड़ा अंश उस प्रगति के निमित्त लगेगा, जिसे आत्मिक आदर्शवादिता और भौतिक सुख-शान्ति के निमित्त बन पड़ने वाली सहकारिता कहा जा सकता है। इसे कठिन समझा जा सकता है, पर वस्तुतः वह ऐसा है नहीं। निर्वाह के निमित्त कुछ घण्टे लगा देना पूर्णतः पर्याप्त हो सकता है। इसके बाद जो कुछ बचता है, उसे दैवी–प्रयोजन के लिए लगाए जा सकने में क्यों किसी को अड़चन अनुभव होनी चाहिए। अभी तक प्रतिभावों ने अपना व्यक्तित्व पतन-पराभव के लिए लगाया है, उसका प्रतिफल सामने है-यदि यही प्रवाह उलट जाए और सदाशयता के निमित्त प्रयास सज्जनों की ओर से चल पड़े, तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य का सोया हुआ देवत्व फिर से न उभर पड़े।........ उलटे को उलट देने पर बात सीधी हो जाती है। ................ समय ईश्वरप्रदत्त ऐसी शक्ति है, जिसे जिस भी प्रयोजन के लिए लगाए जाए, वह उसी में सफलताओं के अम्बार लगा सकती है।” (वाङ्मय खण्ड 29/3.42)

इक्कीसवीं सदी की युग परिवर्तन योजना परमपूज्य गुरुदेव ने काफी पहले 1967 में आरम्भ कर दी थी। उसी का सघन तीव्रतम रूप 1988-89 में आया, जब बारह वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण की घोषणा की गयी। एक सुदृढ़ विश्वास के रूप में उन्होंने कहा कि-”इक्कीसवीं सदी की युग परिवर्तन योजना के अंतर्गत धर्मतंत्रों से लोक-शिक्षण की प्रक्रिया को ही प्रमुखता दी गयी है। परिष्कृत-प्रभावी संगठित धर्मतंत्र ही शासनतंत्र की गड़बड़ियों को संतुलित कर सकता है। अब यह घोषणा देश-विश्व के कोने-कोने में की गयी है कि सन् 1990 से 2000 के बीच दस वर्षों में जन-जाग्रति का, लोकमानस के परिमार्जन का लक्ष्य पूरा कर लिया जाएगा।”

जिस शाँतिकुँज की रजत जयंती हम ना रहे हैं, उसकी उपलब्धियों पर सभी को आश्चर्य होता है, किंतु इसके मूल में एक ऋषिसत्ता का संकल्प ही है जो उपर्युक्त पंक्तियों में अपने प्रखरतम 3 रूप में सामने दिखाई पड़ता है। स्वतंत्रता संग्राम के निमित्त अपना सब कुछ लगा देने वाले एक छोटे-से स्वयंसेवक के रूप में कार्यरत श्रीराम ‘मत्त; (आचार्य श्रीराम शर्मा-हमारे आराध्य गुरुदेव) ने अपने अंतः करण में अवतरित युगनिर्माण की स्फुरणा को आकुलता में बदला एक सुनिश्चित दिशाधारा बनायी एवं उसी क्राँतिकारी तूफान का प्रथम दिग्दर्शन सर्वविदित, बहुचर्चित युगनिर्माण सत्संकल्प में कराया। यही गायत्री परिवार रूपी विराट मिशन का, अभियान का प्रथम प्रीत दर्शन है- नवयुग का मैनिफेस्टो है- संविधान है। इस अभियान के उसके बाद की अब तक की 35 वर्षों की यात्रा सत्संकल्प की विकास-विस्तार यात्रा है। विचारपूर्ण निश्चय, दृढ़ता के साथ जब कर्मनिष्ठा के साथ जुड़ते हैं तो उनकी गतिशीलता आँधी-तूफान की तरह होती है-यह पूज्यवर की, मिशन की अब तक की प्रगति के विषय में अभिव्यक्ति है।

1990 में घोषित लक्ष्य की पूर्ति का प्रथम चरण श्रद्धाँजलि समारोह में पूरा हुआ। जब लाखों व्यक्तियों ने अपने इस आराध्य के संकल्पों को पूरा करने के लिए अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए। अक्टूबर 1990 में सम्पन्न इस आयोजन के बाद स्थान-स्थान पर गायत्री महामंत्र के अखण्ड जप कार्यक्रम सम्पन्न हुए एवं पुनः जून 1992 में हरिद्वार सप्तसरोवर की पुण्यस्थली में एक विलक्षण ‘शपथ समारोह’ संपन्न हुआ, जिसमें परमपूज्य गुरुदेव की जन्मभूमि की पावन माटी हाथ में लेकर एक लाख से अधिक कार्यकर्त्ताओं ने अपने न्यूनतम 1 माह व अधिकतम 3 माह से एक वर्ष के समयदान की घोषणा की। परमवंदनीया माताजी के द्वारा इसी के साथ-साथ देव संस्कृति दिग्विजय के निमित्त भारत व विदेश में सत्ताईस आश्वमेधिक पुरुषार्थ सम्पन्न करने के संकेत दिए गए। नवम्बर 1992 का ‘अखण्ड-ज्योति’ विशेषांक इसी निमित्त प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त जून, जुलाई, अगस्त 1992 के ‘अखण्ड-ज्योति’ के विशेषाँक भी भारतीय संस्कृति, देव-संस्कृति, विश्व-संस्कृति के विभिन्न आयामों पर केन्द्रित हो प्रकाशित हुए । नवम्बर 1992 में जयपुर (राजस्थान) से आरम्भ हुआ आश्वमेधिक यज्ञ अभियान ग्रामतीर्थ स्थापना, ग्राम प्रदक्षिणा, जल-रजवंदन जैसे त्रिसूत्री अभियान के बाद विराट 1008 कुण्डी यज्ञायोजनों के रूप में आरम्भ हुआ, जिसमें प्रत्येक में न्यूनतम पचास हजार से एक लाख व्यक्तियों की समयदान व अंशदान की आहुतियाँ पड़ी-इससे प्रायः दस से पंद्रह गुना अधिक व्यक्तियों ने भावपूर्वक इनमें भागीदारी की। इस अभियान का प्रथम विराम 28 वें कार्यक्रम के रूप में युगसंधि महापुरश्चरण की प्रथम पूर्णाहुति के रूप में 3, 4, 5, 6, 7 नवम्बर 1995 की तारीखों में आँवलखेड़ा (आगरा) गुरु ग्राम में सम्पन्न विराट आयोजन के रूप में हुआ, जिसमें पचास लाख से अधिक परिजनों की भागीदारी रही। गुरुसत्ता के दिए गये निर्देश के अनुसार ही यह छह वर्ष में पहली पूर्णाहुति आयोजित की गयी थी, दूसरी अब 2000 से 2001 की अवधि में आयोजित है। इसी बीच 18 कार्यक्रम पूरे होने के बाद परमपूज्य गुरुदेव के साथ मिशन की बागडोर सँभालने वाली माता भगवती देवी, जिनके अजस्र स्नेह ने ही इस विराट अभियान को सींचा था, स्वयं को सूक्ष्म में विलीन कर अपनी आराध्य सत्ता के साथ एकाकार कर दिया (19 सितम्बर महालय श्राद्धारम्भ भाद्रपद पूर्णिमा 1994)। दोनों सत्ताएँ स्थूल में अलग होते हुए भी एक ही शाश्वत सत्ता का रूप थीं-हैं व रहेंगी। उनके महाप्रयाण के बाद सात अश्वमेध यज्ञ भारत में व दो विदेशों में (शिकागो-1995 तथा माँट्रियल 1996) पूर्णाहुति के बाद सम्पन्न हुए, एवं प्रत्येक में समय-साधन-प्रभाव-पुरुषार्थ बढ़-चढ़ कर युगदेवता के चरणों में अर्पित हुआ।

1995-96 में अनुयाज-पुनर्गठन वर्ष के अंतर्गत ‘ग्रामे ग्रामे यज्ञ, गृहे-गृहे उपासना’ अभियान व संगठन को सशक्त बनाने की प्रक्रिया जोरों से चली एवं तत्पश्चात् विराट संस्कार महोत्सवों की शृंखला अक्टूबर 1996 से अल्मोड़ा से आरम्भ कर दी गयी, जिसके प्रथम सोपान की समाप्ति 25 कार्यक्रम के बाद अभी लंदन में में सम्पन्न हुए (9, 10 अगस्त 1997) विराट संस्कार महोत्सव-मल्टी प्रदर्शन के साथ हुई । अब अगला सोपान आरम्भ हो रहा है-अक्टूबर में एक साथ चार स्थानों पर सम्पन्न हो रहे विराट संस्कार महोत्सवों के रूप में, जो सतत् मई-जून 1998 तक चलते रहेंगे एवं सम्भावना है कि ऐसे 150 आयोजन छोटे-बड़े रूपों में तब तक सम्पन्न हो जाएँगे।

अब तक की प्रगति का अद्यावधि वर्णन इसीलिए किया गया है ताकि सभी गुरुसत्ता के 1990 में दिए गए ‘इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य’ के उद्घोष के प्रति आश्वस्त हो सके। अब इस अंक के लिखे जाने के साथ आजादी की इस पचासवीं वर्षगाँठ के बाद कुल 28 माह शेष रह गए हैं-सन् 2000 की बसंत पंचमी के पूर्व। इस सवा दो से ढाई वर्ष की अवधि में क्या कुछ होना है, कैसे करोड़ों व्यक्तियों को समय व साधनों को युगदेवता महाकाल के चरणों में अर्पित होना। इस प्रतिक्रिया को जानना-समझना बहुत जरूरी है ताकि कमर कसकर, समय तनिक भी न गँवाकर हम सभी इस पुनीत कार्य में जुट सकें।

कोई अपना समय-साधन किसी कार्य के लिए तभी देता है जब उसको उस कार्य की सिद्धि पर, संकल्पकर्त्ता की प्रमाणिकता पर सघन विश्वास-प्रगाढ़ श्रद्धा होती हैं मिशन की यह जड़ है। इसे समझे बिना इतने अधिक प्राणवान कर्मठों का सुनियोजित समयदान जो कि उनके रुटीन के कार्य के अतिरिक्त है, किसी की भी समझ में नहीं आ सकता। लोगों ने अपना समूचा जीवन दे दिया और उनकी शरण में अपना सब कुछ छोड़कर आ गए बिना किसी भविष्य की चिन्ता में, यह समीकरण लौकिक दृष्टि से विचार करने वालों की समझ में नहीं आएगा। अब सभी इस तथ्य को समझने लगे हैं कि यदि कभी कायाकल्प धरती का हुआ है, तो वह कभी भी संपदा-कौशल-समर्थता से नहीं, भाव-संवेदना का नाम ही विवेक युक्त श्रद्धा है। इसी श्रद्धा को केंद्रीय धुरी मानकर परमपूज्य गुरुदेव और विराट गायत्री परिवार खड़ा किया । एक लाख स्वयंसेवक, एक लाख ब्राह्मण, एक लाख लोक-सेवी समाज से माँगे । एक छोटे-से गाँव में जन्मे आजादी के लड़ाकू सिपाही में अवतार-चेतना का अंश है एवं वह हमें परमार्थ की ओर प्रवृत्त कर हमारा ही कल्याण कर पथ प्रशस्त कर रहा है, यह समझ में आने के बाद ही अगणित व्यक्तियों ने अपना जीवन उनके चरणों में अर्पित कर दिया। उनके सूक्ष्म में विलीन होने के बाद भी करते चले जा रहे है।

अगले कुछ दिन व्यापक परिवर्तन व हलचलों से भरे पड़े हैं। अब आस्तिकता को किसी भी स्थिति में समाजीकृत रूप में सामने आना पड़ेगा। व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए बहुत पूजा-पाठ, भजन-ध्यान हो चुका। समष्टि के कल्याण में ही व्यक्ति का भी कल्याण है, यह भाव मन में रखकर कुरीति, पिछड़ेपन, उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन में सभी को जुटना होगा। प्रतिभाशाली वर्ग अब प्रसुप्त पड़े रहकर चैन की नींद नहीं सो सकेगा। युगपरिवर्तन किसी व्यक्ति विशेष की योजना नहीं है। उसके पीछे महाकाल का संकल्प और निर्धारण है। इस अगले 28 महीनों का एक-एक दिन ऐसी हलचलों से भरा होगा कि परिवर्तन प्रक्रिया की प्रचण्डता को देखकर सब आश्चर्यचकित होकर रह जाएँगे । लोक-मानस को बदला जाना सम्भव है, सूक्ष्म चेतना के स्तर पर इस क्रिया को किस तीव्रगति से किया जा सकता है, यह सब देखकर किसी का भी स्तब्ध रह जाना स्वाभाविक हैं प्रस्तुत अवधि में समयदान दो कार्यों में नियोजित होना चाहिए एवं होगा। प्रथम आत्म-परिष्कार एवं द्वितीय लोकमंगल। ये दोनों ही कार्य साथ साथ चल सकेंगे। विद्या विस्तार मूर्च्छितों तक प्राण चेतना के रूप में परमपूज्य गुरुदेव के विचार जिस तेजी से पहुँचाए जाएँगे उतना ही लक्ष्य समीप आता चला जाएगा।


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