लोकरंजन ही नहीं, साथ में लोक मंगल भी

September 1997

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‘जेल भरो’ आन्दोलन के दिनों में स्वयंसेवकों की कमी न पड़ने दी जाए इसलिए उस समय के देशभक्त पूँजीपति वर्ग ने एक कोष स्थापित किया था, जिससे जेल जाने वालों को जेल में रहने तक परिवार के लिए भरण-पोषण दिया जाता था भारत के प्रथम सूचना प्रसारण मंत्री श्री बालकृष्ण केसकर आगरा क्षेत्र के कोषाध्यक्ष थे। परमपूज्य गुरुदेव तब स्वयंसेवक के रूप में उनके सहायक बने थे। उसी की स्मृति स्वरूप श्री केसकर जी एक बार गायत्री तपोभूमि मथुरा आए और परमपूज्य गुरुदेव की गतिविधियों की बहुत सराहना कीं।

श्री केसकर जी ने परमपूज्य गुरुदेव से अपने कार्यक्रमों में- (1) चित्र प्रदर्शनी (2) संगीत (3) नाटक मंडली (अभिनय) जोड़ने का आग्रह किया। परमपूज्य गुरुदेव बताते थे-तब तो उन्हें यह सुझाव हास्यास्पद सा लगा, पर पीछे वे जितना अधिक चिन्तन की गहराई में उतरने गये, उन्होंने अनुभव किया कि व्यक्ति और समाज से इन कलाओं का कितना गहरा सम्बन्ध है? इन्हीं कलाओं के समन्वय को आज के समय में ‘इलेक्ट्रानिक मीडिया’ कहा जाता है और इस वैज्ञानिक युग में उसका कितना द्रुत तथा आकर्षक विकास हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है।

मनुष्य समाज के वर्तमान पतन के कारणों में सबसे बड़ा हाथ इस आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का है। संस्कृत साहित्य में संगीत की महत्ता का उल्लेख है और जहाँ भी संगीत और उससे जुड़ी लोक कलाएं प्रदर्शित हों, उन्हें लोकरंजन भर का साधन न बनाकर अनिवार्य रूप से लोकमंगल का तथा जोड़ने का अनुशासन स्थापित किया गया है। आज के सिनेमा और कला संसार ने इस अनुशासन को बुरी तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया है। कला क्षेत्र की इस प्रतिगामिता ने व्यक्तिगत चिन्तन और आचरण, पारिवारिक मर्यादाओं और सामाजिक परम्पराओं मर्यादाओं और सामाजिक परम्पराओं को सिक हद तक उच्छृंखल ओर क्रूर बना दिया है, उसकी घटनाएँ आए दिन समाचार पत्रों में छपती रहती हैं।

लंदन में एक महिला 5 वर्षीय बालक को लेकर खरीददारी के लिए बाजार गई। दुकान में प्रविष्ट होते ही मां का ध्यान बच्चे की सुरक्षा से हटकर खरीददारी में चला गया। जब उसने अपना काम पूरा कर लिया तो पाया बच्चा वहाँ नहीं है। चारों ओर भागदौड़ हुई तो समीप की गली में ही जख्मी हालत में बच्चा पड़ा हुआ मिला। उसे मारने वाला 9 वर्षीय बालक वहीं खड़ा था। पुलिस ने उससे पूछताछ की तो उसने बताया उसने टी.वी. की एक फिल्म में ऐसा दृश्य देखा था, उसी से उसे प्रेरणा मिली। जब तक महिला का ध्यान बँटता, बच्चा शायद खेलने की उत्कंठा से इस बच्चे के साथ आ गया और यह दुर्घटना घट गई।

कुछ महीने पूर्व दिल्ली में एक आठ वर्ष के बालक ने 6 वर्षीया बालिका के साथ दुराचार किया। पूछने पर उसने भी फिल्म देखकर यह प्रेरणा मिलने की बात स्वीकार कीं। लड़कियों को आवारा लड़कों के साथ भागने, जीवन गँवाने, परिवारों में वीभत्स घटनाएँ की बात तो अब आम हो गई है। बिनोवा के शब्दों में - “फ्री और कम्पलसरी एजुकेशन के रूप में नई पीढ़ी में यह बीमारी बुरी तरह फैलती जा रही है। कला क्षेत्र के इस विष का यदि समय रहते उपचार न हुआ, व्यक्तिगत आदर्श और सामाजिक मर्यादाएँ विलुप्त जीवों की श्रेणी में आ जावें तो इसे आश्चर्य न माना जाए।”

परमपूज्य गुरुदेव ने इस तथ्य को मथुरा से ही ताड़ लिया था, इसलिए उन्होंने श्री केसकर जी के सुझाव को प्रारम्भ में संगीत के माध्यम से अपने कार्यक्रमों में जोड़ा। यह बताने वाली बात नहीं है। कि स्वस्थ विचार, रचनात्मक प्रेरणाएँ, आदर्श भावों की गहराई में उतारने वाले गीत वे न केवल स्वयं लिखते, प्रोत्साहित करने के लिए अपने प्रियजनों के नाम से छपाते अपितु अपने समय के परिचित गीतकारों से वे सुन्दर गीत लिखाते और अपनी पत्र- पत्रिकाओं में उन्हें नियमित प्रकाशित भी करते थे। सर्वश्री नाथ व्रजबाल, रामस्वरूप खर, खरे, शिवशंकर मिश्र, विद्यावती मिश्र, झलकरन लाल छैल, रजेश जी, राम कुमार भारतीय आदि गीतकार प्रमुख हुआ करते थे। पीछे तो उन्होंने मिशन के ही समर्पित गीतकार मायावर्मा, मंगलविजय, बलरामसिंह परिहार, शचीन्द्र भटनागर आदि विकसित किए। यही नहीं माया वर्मा को प्ररिक कर भागीरथ, शिवशंकर आदि संगीत नाटिकाएं लिखवाई वे इनका मंचन भी कराना चाहते थे, पर वैसा सुयोग बन नहीं पाया।

मदर इंडिया, दोस्ती, गान्धी मेकिंग ऑफ महात्मा, नानक नाम जहाज जैसी फिल्मों ने न केवल भारी सफलता अर्जित की, अपितु मनोरंजन के साथ-साथ स्वस्थ सामाजिक परम्पराओं की स्थापना में बहुत उपयोगी माना गया। रामायण, महाभारत, चाणक्य तथा तेरह पन्ने जैसे धारावाहिकों ने भी न केवल जनमानस को आकर्षित और प्रभावित किया वरन् लोगों को भरपूर स्वस्थ मनोरंजन भी प्रदान किया इन तथ्यों से परिचित परमपूज्य गुरुदेव ने 1971 में विधिवत एक पुस्तिका प्रकाशित की और श्री-सम्पत्रों से साफ सुथरी युग-निर्माण फिल्में बनाने का आग्रह किया।

इसका प्रभाव भी पड़ा, न केवल अपने व्यवसायी पूज्य गुरुदेव से मिले अपितु फिल्मों के विज्ञापन का काम करने वाली संस्था मीरा आर्ट्स के डाइरेक्टर श्री बाबूभाई सथवारा ने पूज्य गुरुदेव के पास आकर फिल्म स्क्रिप्ट देने का आग्रह भी किया परमपूज्य गुरुदेव ने तब एक स्क्रिप्ट बनाई थी जिसकी कहानी एक ऐसे आदर्शवादी पति-पत्नी अथवा भाई-बहिन से प्रारम्भ होती थी, जिसके मन में समाज के वर्तमान पतन के प्रति बड़ी पीड़ा था। वे प्रव्रज्या में निकले-एक गाँव में एक लड़की का शव लोग श्मशान की ओर ले जा रहे थे। उन्हें पता चला कि यह दहेज हत्या है। (पूरी घटना का प्रदर्शन) वे इसके विरुद्ध नवयुवकों को आदर्श विवाहों द्वारा इस कुप्रथा को रोकने की प्रतिज्ञाएँ कराते हैं। उस गाँव में यह परम्परा चल पड़ती है जो वे अगले गाँव में जाकर अशिक्षा, उससे आगे अन्ध-विश्वास, बेरोजगारी आदि दूर करते चले जाते हैं। इस कहानी पर आधारित गीत भी पूज्य गुरुदेव ने तैयार कराये थे, पर श्री सथवारा के साथ के व्यक्तियों को ऐसा लगा कि इसमें प्रेम का कहीं स्थान न होने से शायद फिल्म न चलें, अतएव फाठनेर्न्स ने हिम्मत नहीं की। यह अलग बात है कि इस कहानी का आधार लेकर उनकी ही मण्डली के एक मित्र ने इसी तरह की पारिवारिक फिल्म बनाई जो बहुत सफल हुई, पर तब पूज्य गुरुदेव के पास जो भी आए उन्होंने आजकल की तरह अभिव्यक्त प्यार के अभाव को व्यावसायिक बाधा माना और किसी ने इस क्षेत्र में प्रवेश का साहस नहीं किया।

परमपूज्य गुरुदेव इससे रत्ती भर हतोत्साहित नहीं हुए । शान्तिकुँज में अन्य प्रकोष्ठों की तरह उन्होंने विधिवत ‘ई एम.डी.’ प्रकोष्ठ की स्थापना की, योग्य इंजीनियर्स रखे ओर भले ही छोटा प्रयास हो किंतु आडियो संगीत से जुड़ी नृत्य-नाटिकाओं की वीडियोग्राफी से यह कार्य प्रारम्भ कर दिया। प्रारम्भ में उन्होंने कलकत्ते से एच.एम.वी. पर 14 गीतों के सात रिकार्ड वीणापणि के स्वर में तैयार कराये, जिसकी एक हजार प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक गई। यद्यपि उनमें आज के व्यावसायिक स्वर, कलाकारों जैसा सौंदर्य और आर्केस्ट्रा नहीं था तो भी इनकी सर्वत्र चर्चा हुई और बहुत सराहा गया।

ऑडियोग्राफी और वर्तमान टेप रिकार्डर टेक्नोलॉजी के विकास को परमपूज्य गुरुदेव ने सबसे पहले हाथ में लेकर अपने ही गीतकारों, गायकों ओर शान्तिकुँज के ही आर्केस्ट्रा से गीतों के कैसेट्स बनवाए, वह कितने लोकप्रिय हुए, इसका अनुमान उनके तीव्र विस्तार से लगाया जा सकता है। प्रारंभ में प्रायः सत्रह प्रकार के ऑडियो कैसेट्स बनाए गए, दो भाग वंदना प्रधान गीतों के, चार मानवीय आदर्शों पर आधारित गीतों के, व्यक्ति, परिवार, नारी समाज और राष्ट्रीय उत्कर्ष की भावनाएँ भरने वाले गीतों के पाँच कैसेट्स, गायत्री महिमा ओर श्रद्धांजलि गीतमाला के क्रमशः तीन ओर चार भाग, दस भाग-वंदनीया माताजी के गाये गीतों के, शेष ग्यारह प्रकार आरती, प्रार्थना, ध्यानमंत्र व संगीत धुनें तथा प्रवचनों रिकार्ड कराकर ले जाते रहे हैं। इनकी लोकप्रियता का अनुमान इनके विस्तार से लगाया जा सकता है, जिसके आँकड़े नीचे दिए जा रहे हैं-

यह आंकड़े मात्र पिछले सात वर्षों के हैं। 1991 में अधिकाँश कैसेट्स गीतों के थे। 15000 रिकार्डिंग की गईं। अगले दो वर्ष में यह संख्या बढ़कर 55000 हो गई। 1993 में 87000 तथा 1994 में 76800 की संख्या में गीत व अन्य कैसेटों की रिकार्डिंग की गई। 1995 में आँवलखेड़ा में प्रथम पूर्णाहुति थी। उस वर्ष रिकार्ड 1,11000 कैसेट्स की रिकार्डिंग में परिवर्तन किया गया। उससे निर्माण में कुछ विलम्ब हुआ, पर उसके बाद इसमें तत्काल तीव्रता आई अर्थात् 1997 वर्ष में में जनवरी से जुलाई तक से सत समीनों में ही 661514 कैसेट्स की रिकार्डिंग हो चुकी हैं इनके और अधिक विस्तार में यदि कोई दिक्कत हो सकती है जो वह पर्याप्त पूँजी की रही है। इसलिए उनका इतना उत्पादन नहीं किया जा सका कि इन्हें क्षेत्रों में सम्पन्न होने वाले कार्यक्रमों में भी पर्याप्त मात्रा में भेजा जाना सम्भव होता। पूँजी ब्लाक होने के भय से क्षेत्रीय केन्द्रों को उधार न दे पाने की विवशता भी इसमें सम्मिलित है।

क्षेत्रों में सम्पन्न 24 अश्वमेध यज्ञों में सु गुना, जयपुर बड़ौदा, बुलंदशहर, आँवलखेड़ा में फिल्मायी गयी डॉक्यूमेण्ट्री वीडियोग्राफी सहित सात वीडियो कैसेट्स (60 मिनट), 4 विधियों कैसेट्स (120 मिनट) तथा श्रद्धांजलि समारोह का एक तीन घंटे का सम्मिलित है। इनमें छोटे-छोटे ड्रामा, नृत्य-नाटिकाएं, प्रवचन आदि सभी है। 1991 से लेकर 1996 तक यह क्रमशः 2000,1550,1270ए1000ए 2700तथा 2072 संख्या में रिकार्ड किए गए। इस वर्ष ई. एम.डी. की सारी उटिंग में निर्माण, फिल्माँकन ओर एडीटिंग में लगी होने के करण यद्यपि उपलब्धता नहीं हो पाई, तो भी जो बचे थे वह 421 वीडियो कैसेट्स भी रिकार्ड हुए। यह जहाँ भी सुने और देखे जाते हैं वहां 0161 एक नये सतयुगी वातावरण का विकास होता है। मिलने वाली प्रतिक्रियाओं से यह स्पष्ट पता चलता है रोग की तुलना में उपचार हेतु दी गई गोली बहुत छोटी होती है, पर उससे रोग दूर होने का सिद्धांत आकटच है । यही उपचार युगनिर्माण मिशन के द्वारा सम्पन्न हो रहा है। अब पिछले दिनों इस विभाग द्वारा मल्टीमीडिया प्रोजेक्टर से दिखाई जाने वाली 5-5 मिनट की देव संस्कृत के विभिन्न पक्षों पर फिल्में बनायी गई हैं, जिन्हें बहुत बड़े स्क्रीन पर देखा जा सकता है।

बीमारी का असली उपचार फिल्में है। उस ओर कदम उठाने से पूर्व फिल्में हैं। उस ओर कदम उठाने से पूर्व पहले धारावाहिकों पर ध्यान दिया गया। धारावाहिकों पर ध्यान दिया गया। धारावाहिक ‘मंथन’ के 5 एपिसोड्स बने। राजतंत्र में फैले भ्रष्टाचार के कारण समाज सुधार का यह नन्हा फरिश्ता युगनिर्माण मिशन, अब तक उसे विभागीय स्वीकृति प्राप्त कराने में सफल नहीं हो पाया था, पर अब वह उस भवन में प्रवेश कर गया है और इस सीरियल की कड़ियाँ जल्दी ही दिखाई जाने की सम्भावना है। इसके निर्माण में जयपुर के भाई वीरेन्द्र अग्रवाल परिवार की सबसे बड़ी भूमिका है। पिछले दिनों जी.टी.वी पर केन्द्रीय प्रतिनिधि के रिकार्डेड प्रवचन तीन बार ‘जागरण के अंतर्गत लिए गए, जिन्हें देश-विदेश में दूर-दूर तक देखा गया।

एक कठिनाई अभी प्रोफेशनल अनुभव की कमी आ रही है। यदि यह कार्य वर्तमान फिल्म इन्डस्ट्री को दिया जाता है, जो आर्थिक रूप से पिट जाने की तो आशंका रहेगी ही, सबसे बड़ा डर इस बात का है कि कहीं अपने मिशनरी आदर्शों, सिद्धांतों की खिचड़ी न बन जाए। इसलिए अपने ही मिशन के स्क्रिप्ट लिखने वालों, गीतकारों, संगीतज्ञों ओर अभिनय में प्रवीण उन लोगों को भी आमंत्रित किया जा रहा है जो विशुद्ध सेवाभावना से अपना योगदान दे सकें। शूटिंग, एडीटिंग, डबिंग आदि सभी उच्च तकनीक की प्रयोगशाला शान्तिकुँज में ही विकसित की गई है। अब केवल इस क्षेत्र के निष्णात सहयोगियों के आने भर की देर है। युग-निर्माण मिशन इस लड़ाई में कूदने के लिए पूरी तरह तैयार है।

दिनाँक 13 से 15 नवंबर तक का संस्कृति वर्ग का समारोह इस क्षेत्र की प्रतिभाओं की परीक्षा, परामर्श ओर प्रयोग के लिए है। उन सभी को सादर आमंत्रित किया जा रहा है, जो मनोरंजन के इस क्षेत्र में प्रवेश कर चुके त्रिपुरासुर को मारने में देवसेना के सैनिक सहायक बन सकें। एक बार मैदान में कूदने भर में मिली। विजय की भाँति इस मोर्चे की फतह भी सुनिश्चित समझी जानी चाहिए।


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