पर्यावरण की रक्षा होगी, तो ही मानव बचेगा

September 1997

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मधु वाता ऽ ऋतायते सन्त्वोषधीः ॥ मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता॥ मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँपर अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥

“वे जो नैतिक मर्यादाओं को स्वीकार करने की इच्छा रखते हों, यह वायु उनके लिए सुखकर हो जाएँ । यहाँ तक कि ये वनस्पतियाँ नीतिपरायण जीवनयापन करने वाले हम सबके लिए सुखकर हो जाएँ। रात हमारे लिए सुखकर हो जाए एवं यह भोर हमारे लिए सुखकर हो। हे सृष्टिकर्ता। हमारे लिए पृथ्वी और स्वर्ग सुखकर हों, सूर्य हमारे लिए सुखकर हो जाएँ और धेनु हमारे लिए सुखकारी हों।

यजुर्वेद (13, 27-29) की उपर्युक्त ऋचा इस तथ्य को स्पष्टतया उद्घाटित करती है कि हमारे पूर्व पुरुष-मनीषी, ऋषि-मुनि प्रकृति व पर्यावरण को कितना महत्व देते थे। प्रकृति जीवन का स्त्रोत है। पर्यावरण के समृद्ध होता है, यह बात वे बखूबी जानते थे। यही नहीं वे प्रकृति को ‘परमेश्वरी’ कहकर उसकी देवशक्ति के रूप में अर्चना-उपासना करते थे। यही कारण है कि ऋषिप्रणीत हमारी संस्कृति अरण्य संस्कृति के रूप में विख्यात हुई और अपने देश की परम्पराओं में इस तत्व को गहराई से आत्मसात किया गया यही नहीं बाद के दिनों में ये परम्पराएँ जहाँ जिस ओर-जिस किसी देश में गईं वहीं उन्होंने अपने अमिट चिन्ह छोड़े।

प्राचीन यूनानी भाषा के दो शब्दों ह्रढ्ढष्टह्रस् घर और रुह्रत्रह्रस् अध्ययन से मिलकर बने शब्द ‘इकॉलाजी में इसी की गूँज है। इसका अर्थ है जीवित तत्वों के प्राकृतिक निवास या परिस्थिति का अध्ययन। इसके अंतर्गत दो निश्चित प्रवृत्तियाँ है, ऑटो इकॉलाजी और सिनेकोलॉजी। आटोइकोलॉजी में अलग-अलग पौधों और प्राणियों की जातियों के बीच तथा उनकी अपनी संख्या और उनके पर्यावरण का अध्ययन किया जाता है, जबकि सिनेकोलॉजी में पौधों व प्राणियों का उनके प्राकृतिक समूहों में अर्थात् परिस्थितिकी प्रणालियों और पर्यावरण के साथ उनके सम्पर्कों का विवेचन किया जाता है। आधुनिक विज्ञान में जैसे-जैसे अध्ययन की गहराइयाँ बढ़ी हैं, उसी क्रम में ऋषियों की प्राचीन परम्पराओं का मूल्य एवं महत्व उजागर हुआ है।

विख्यात वैज्ञानिक फ्रिटजोफ काप्रा ने अभी कुछ ही दिनों पहले प्रकाशित अपने ग्रन्थ ‘द वेब ऑफ लाइफ’ में ‘डीप इकॉलाजी’ को मानव समाज व प्रकृति के अंतर्संबंधों के क्रियात्मक पहलू के रूप में निरूपित किया है। काप्रा ने इसे धार्मिक व आध्यात्मिक तथ्यों से जोड़ने का प्रयास किया है। इनके अनुसार ‘डीप इकॉलाजी’ आध्यात्मिकता की ओर अनुगमन करती है। क्योंकि मानवीय चेतना ब्रह्माण्डीय चेतना से तादात्म्य स्थापित करके ही अपना उत्कर्ष प्राप्त करती है। काप्रा के इस कथन की पुष्टि भारतीय धर्मग्रन्थ, वेद, उपनिषद्, ईसा का रहस्यवाद, बुद्ध दर्शन, ज्योतिषशास्त्र आदि सभी करते हैं।

नार्वे के दार्शनिक अर्नेनीस ने पर्यावरण का सम्बन्ध समस्त संसार व इनसान के बीच घनिष्ठता से जोड़ा है। उनके अनुसार, विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता में इस बात और अधिक ढंग से समझाया गया है। इसमें प्रकृति के आठ अंग बताए गए हैं। इन्हें ‘अष्टधा प्रकृति’ कहा गया है। पहले पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश पाँच बाहरी एवं मन, बुद्धि , अहंकार तीन आन्तरिक ये बाहरी और आन्तरिक घटक आपस में खूब गहराई से जुड़े है। बाहरी प्रकृति की हलचलें इनसान की आन्तरिक प्रकृति को हिलाए-डुलाए बिना नहीं रहतीं।

इस सत्य को अर्नेनीस ने अपने तत्वचिन्तन में पूरी तरह स्वीकारा है। उनका मानना है कि इनसानी जिन्दगी के प्रायः सभी क्रियाकलाप किसी न किसी तरह से पर्यावरण से सम्बद्ध हैं। आधुनिक भौतिकी, वैज्ञानिक अनुसंधान एवं औद्योगिक क्रियाकलापों को पर्यावरण से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इन्होंने इकॉलाजी के दो भागों में बाँटा है-शैलो इकॉलाजी एवं डीप इकॉलाजी। शैलो इकॉलाजी मनुष्य के प्राकृतिक मूल्यों के सम्बन्धों तथा उपयोग को दर्शाती है, जबकि डीप इकॉलाजी में मानवीय अन्तः- कारण की पर्यावरण से अभिन्नता की व्याख्या है।

‘द डेथ ऑफ नेचर’ नामक विख्यात ग्रन्थ में सुविख्यात मनीषी कैरोलीन मर्चेण्ट ने इसका दो तरह से उल्लेख किया है-सोशल इकॉलाजी तथा इकोफेमीनिज्म। ‘सोशल इकॉलाजी’ के अनुसार मानव के सामाजिक सम्बन्धों की सीमा उसके रिश्तेदारों-कुटुम्बियों-पत्नी-पुत्रों तक सिमटी हुई नहीं है। यथार्थ में वह ब्रह्माण्डीय परिवार का एक वरिष्ठ सदस्य है, जिसके हर घटक के प्रति उसकी वरिष्ठता के अनुरूप ही विशिष्ट दायित्व है। सोशल इकॉलाजी इन्हीं दायित्वों को निभाने के तौर-तरीकों को विशद् व्याख्या है।

प्राचीन वैदिक ऋषियों की ही भाँति आधुनिक विज्ञानवेत्ता भी यह मानने लगे हैं कि इनसान के प्रकृत से सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ और गहरे ही नहीं, भावुक एवं मार्मिक भी हैं। ‘प्रकृति हमारी माता है’-इस वैदिक सत्य का चार्लीन स्प्रीट नेक ने अपने शोध प्रबन्ध ‘एन इन्ट्रोडक्शन टू इकोफेमीनिज्म’ में विस्तार से विवेचन किया है। उनका कहना है कि नारी व प्रकृति अन्योन्याश्रित हैं। यानि कि नारी प्रकृति का स्वरूप और प्रकृति नारी का। पुरुष प्रधान मानव समाज में प्रकृति का दोहन व नारी का शोषण एक साथ हुआ है स्प्रीट नेक के अनुसार नारी प्रकृति की पीड़ा को अपेक्षाकृत अधिक गहराई से समझ सकती है। उसकी संवेदनशील प्रवृत्ति ही प्रकृति के भावी सम्वर्द्धन का आधार बनेगी।

गुजरे जमाने में यह समझा जाता था कि ‘प्रकृति’ मानव के लिए है। समस्त प्राकृतिक सम्पदा पर एकमात्र मनुष्य का आधिपत्य है। वह जैसे चाहे वैसे उसका उपभोग करें। इसी भोगवादी प्रवृत्ति के चलते हमने उसका इस हद तक शोषण कर डाला कि अब हमारा खुद का अस्तित्व ही संकटग्रस्त लगने लगा है। प्रकृति का विनाश कर इस आधुनिक भोगवादी सभ्यता की जिस अट्टालिका को हमने खड़ा किया है, अब हम उसी के तले दबने लगे हैं और तो और प्रकृति व पर्यावरण का जिस विज्ञान एवं वैज्ञानिकता ने सबसे ज्यादा विनाश किया, आज वही विज्ञान हमें चेतावनी देने लगा है कि प्रकृति, पर्यावरण और पारिस्थितिकी की रक्षा करो, अन्यथा तुम भी बच नहीं सकोगे।

पिछले कुछ ही समय पहले विकसित हुई विज्ञान की आधुनिकतम शाखा ‘डीप इकॉलाजी’ प्राचीन वैदिक ऋषियों के कथनों को ही दुहराती हे, साथ ही नैतिकता एवं मर्यादा की सीमा रेखा खींचते हुए ऐसा जीवन जीने का आग्रह करती है, जिसे सृष्टि के किसी जीवन का शोषण व संहार न हो सके और प्राकृतिक सन्तुलन बना रहे। वर्तमान समय में मानवी बुद्धिमत्ता ही मानवीय मूर्खता का पर्याय बनी हुई है। मनुष्य अब तक अपनी जिन बौद्धिक उपलब्धियों पर इतराता फिरता था, आज वही बौद्धिक उपलब्धियाँ पर्यावरण के आँचल को तार-तार कर रही है। परिस्थितियों की विषमता को देखते हुए विज्ञान की सभी शाखाओं के वैज्ञानिक मिलकर विज्ञान के ‘इकोएथिकल’ आयाम का विकास किया है। इसका मतलब सिर्फ इतना ही है, विज्ञान की किसी भी शाखा में होने वाला वर्तमान एवं भावी अनुसंधान अब केवल बुद्धि पर आधारित न होकर नैतिकता पर भी अवलम्बित होगा।

इस नैतिकता का भावार्थ इतना ही है कि प्रकृति-पर्यावरण एवं मानवीय जीवन के पारस्परिक एवं मानवीय जीवन के पारस्परिक सम्बन्ध बड़े भावपूर्ण एवं गहरे है। भारतीय ज्ञान विज्ञान की प्राचीन सम्पदा में इसका उल्लेख बड़ी काव्यात्मक रीति से होता आया है। प्रातः जागरण बेला में ही पुराण कालीन ऋषिगण प्रार्थना करते थे-

पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः र्स्पशश्च वायुर्ज्वलनः सतेजाः। नभः सशब्दं महता सहैव यच्छन्तु सवे मम सुप्रभातम्॥

लेकिन बुद्धिवाद के दम्भ में हम यह सत्य पूरी तरह भुला बैठे कि हमारे इनसानी जीवन का सुप्रभात पर्यावरण के अनुग्रह पर ही निर्भर है। आज ‘डीप इकॉलाजी’ पर किए जा रहे अनुसंधान हमें पुनः वैदिक, पौराणिक अवधारणाओं की ओर मुड़ चलने के लिए विवश कर रहे हैं। हाल ही में प्रकाशित ‘डीप इकॉलाजी’ नामक पुस्तक में बारबीक फाल्स ने उल्लेख किया है कि प्रकृति संरक्षण की अवधारणा व्यावहारिक तथ्यों के साथ सम्पूर्ण मन एवं भावना से करनी चाहिए। फाल्स ने अपने इस सूत्र की व्याख्या। ‘ट्राँस पर्सनल इकॉलाजी’ के अंतर्गत की है। डीप इकॉलाजी की यह आधुनिकतम मान्यता हमारे प्राचीन ग्रन्थों में बिखरी पड़ी है।

सच तो यह है कि समय, समाज एवं सभ्यता के परिवर्तन के बावजूद पर्यावरण एवं मानव जीवन के सम्बन्ध शाश्वत हैं। इन सम्बन्धों की महत्ता भी अक्षुण्ण हैं। रामकथा के सबसे अधिक लोकप्रिय ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास ने इसे इन शब्दों में उकेरा है- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, यही पंच तत्व है। प्रकारान्तर में इसे ही इकॉलाजी के रूप में जाना गया है। डच मूल के भारतीय विद्वान फादर कामिल बुल्के के शोध ग्रन्थ ‘रामकथा, उद्भव और विकास’ में भी इसे उजागर किया गया है। बाल्मीकि रामायण तो जैसे पर्यावरण की महागाथा है।

वैदिक काल तो जैसे अरण्य संस्कृति का स्वर्ण काल था। उन दिनों वनदेवी अरण्यानी की आराधना अनिवार्य थी। ये वनदेवी प्रकृति माता का पर्याय ही थी। यही जीवों-वनस्पतियों के जीवन, पोषण, संरक्षण व विकास का आधार थी। जंगल को देवता तुल्य माना जाता था और यह आकर्षण का केन्द्र था। सभ्यता का शुभारम्भ यहीं से हुआ। भारतीय आर्य परम्परा में अरण्य, तपोवन और कुँज ज्ञानस्थली, तपस्थली और कर्मस्थली रहे हैं। वृक्षों की पूजा उन दिनों गौरव की बात थी। स्कन्दपुराण और कठोपनिषद् के अनुसार पीपल के पेड़ की जड़ में ब्रह्मा, तने में विष्णु एवं टहनियों में शिव का वास माना गया है। ऋग्वेद में सोमवृक्ष और अथर्ववेद में पलाश वृक्ष की पूजा का वर्णन मिलता है। माँ शीतला को पलाश वृक्ष की देवी माना जाता है।

हमारे ऋषियों ने पेड़ों की पूजा का विधान बनाकर पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्द्धन का पथ प्रशस्त किया था। अनेक संस्कृत ग्रन्थों में कई स्थानों पर प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ मानवीय जीवन के भाव भरे सम्बन्धों का उल्लेख मिलता है। ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में वर्णन मिलता है कि शकुन्तला पेड़ों को जल दिए बिना भोजन नहीं ग्रहण करती थी। वह पेड़ों से इतना प्रेम करती थी कि अपने शृंगार के लिए फूलों एवं पत्तों को नहीं तोड़ती थी, बल्कि पेड़ों के नीचे गिरे फूलों तथा पत्तों से अपना शृंगार करती थी।

प्राचीनकाल की ये भावनाएँ अपने देश के विभिन्न भागों में अभी भी अलग-अलग परम्पराओं का रूप लेकर प्रचलित हैं। कहीं मनोकामना पूर्ति के लिए, तो कहीं देवता का स्वरूप मानकर इनकी पूजा-अभ्यर्थना की जाती है। बिहार प्रान्त के कई इलाकों में आज भी जब वर-वधु गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते हैं, तो वे एक पेड़ जितना हरा-भरा रहता है, उनका दाम्पत्य जीवन उतना ही सुखी, स्वस्थ एवं सम्पन्न होता है। वटवृक्ष की पूजा सुहाग प्रदान करने एवं उसकी रक्षा करने के लिए करने का प्रचलन है। देश के अनेक अंचलों में ज्येष्ठ मास की अमावस्या को उपवास रखकर वटवृक्ष की पूजा की जाती है। कुछ क्षेत्रों में पुत्र प्राप्ति के लिए पीपल की उपासना करने का विधान है।

प्रकृति और आदिवासी तो एक-दूसरे के पर्याय हैं। बहुत से आदिवासियों में यह प्रथा है कि विवाह के समय वधू महुए के पेड़ पर सिन्दूर लगा कर उससे सुहागिन होने का वरदान माँगती है। वर आम के पेड़ को नमन कर अपने वैवाहिक जीवन की सफलता की कामना करता है। कुछ प्रान्तों में हलषष्ठी के दिन महिलाएँ झरबेरी और बाँस के पेड़ों की पूजा करके अपने पुत्रों के दीर्घजीवन का कामना करती हैं। दशहरे पर शमी वृक्ष की पूजा का विधान आज भी देश के अनेक भागों में प्रचलित है। शिवरात्रि के अवसर पर बेलपत्रों से शिव की उपासना फलदायी मानी जाती है। तुलसी को शुद्धि की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, अतः कोई भी भोग तुलसी के बिना पूरा नहीं माना जाता। आम, जामुन, असन, लोध्र, शाल, कटहल, अंकोल, सुन्दर, तिनिश, बेल,तेंदू, बाँस, काशमरी, वरण, महुआ, तिलक, बेर, आँवला, कदम्ब, बेंत, अनार आदि फूलों-फलों और छायादार वृक्षों की महत्ता को दर्शाने वाली अनेकों परम्पराएँ अपने देश के विभिन्न भागों में प्रचलित हैं।

अपने देश एवं समाज में इन परम्पराओं का प्रचलन यह सिद्ध करता है कि हमारे पूर्वज पर्यावरण के प्रति कितने जागरुक थे। उनकी यह जागरुकता प्राचीन ग्रन्थों में भी विविध रूपों में प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए, धर्मशास्त्रों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि जो हरे वृक्ष को काटता है, वह सन्तान से वंचित हो जाता है। यही नहीं पेड़ को पुत्र के समान बताया गया है। शास्त्रों में केवल सूखे पेड़ काटे जाने को उचित माना गया है हरे पेड़ों को काटने से प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ता है, इसलिए इस पर निषेधाज्ञा लागू की गयी थी। यज्ञ-हवन आदि धार्मिक कृत्यों के लिए भी सूखे पेड़ तलाशने की परम्परा थी।

प्राचीन समय में पर्यावरण संरक्षण को हर जन अपना पुण्य-कर्तव्य मानकर चलता था। आज इसी बात का उद्घोष विश्व के शिखर वैज्ञानिक ‘इकोएथिकल’ अवधारणा द्वारा कर रहे हैं। पुरातनकाल में कृषि सभ्यता और वन सभ्यता के सामंजस्य से जीवन सुख और समृद्धि से भरा-पूरा रहता था। मनुष्य जाति का इतिहास प्रकृति के इतिहास का एक सिलसिला है। अतएव मनुष्य जाति के भविष्य को प्रकृति के साथ समाज की अन्तर्क्रिया जैविक और सामाजिक क्रियाओं के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।

विज्ञानवेत्ता भी अपने सतत् अनुसन्धान द्वारा इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानवीय एक-दूसरे से घनिष्ठतापूर्वक जुड़ें है। एक की गड़बड़ी से दूसरा प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। व्यवहार विज्ञानियों ने इन दिनों एक नये आयाम की खोज की है। उनके अनुसार समूचे संसार में फैले मानव समाज की व्यवहार सम्बन्धी गड़बड़ियों का एक महत्वपूर्ण कारण पर्यावरण असन्तुलन है। इनका मानना है कि अच्छे समाज, अच्छे आदमी के लिए जरूरी है कि प्रकृति सम्पन्न और समृद्ध हो।

बात भी सही है। प्रकृति एवं मानव समाज की पारस्परिक अन्तर्क्रिया इतनी व्यापक है कि उससे समूची मानवजाति प्रभावित हो रही है। वर्तमान में दिखाई दे रहे पर्यावरणीय बिगाड़ का कारण बेतहाशा औद्योगीकरण, अन्धाधुन्ध शहरीकरण, ऊर्जा और कच्चे माल के पारम्परिक, साधनों की घटोत्तरी, प्राकृतिक सन्तुलनों के विघटन, विभिन्न जानवरों एवं पेड़-पौधों का भारी विनाश ही है। स्वच्छन्द वैज्ञानिक प्रगति तथा तकनीकी सामर्थ्य ने मनुष्य को काफी ताकत दे दी है। हम पर्वतों को हटा सकते हैं, नदियों का मार्ग बदल सकते हैं। नए सागरों का निर्माण कर सकते हैं। मतलब यह कि हम प्राकृतिक जगत में काफी फेर-बदल कर सकते हैं। परन्तु कौन-सी फेर-बदल उचित है, कौन-सी अनुचित ? क्या करने से सत्परिणाम सामने आएँगे, क्या करने से दुष्परिणाम सामने आएँगे, क्या करने से सत्परिणाम सामने आएँगे, क्या करने से दुष्परिणाम। इसे बिना सोचे-विचारे कुछ भी करने लगा जाए तो इसे मूर्खता के सिवा और क्या कहा जाएगा ?

अमेरिकन विद्वान जे0 एम॰ हाफ ‘बिहेवियर इकॉलाजी’ में कहते हैं कि आज यह जगजाहिर हो गया है कि प्राकृतिक जगत पर अपने अन्तहीन आक्रमण तथा बगैर सोचे-विचारे उसमें बड़े फेरबदल करके इस अधिकार का अविवेकपूर्ण उपयोग नहीं कर सकते और हमें करना भी नहीं चाहिए, क्योंकि इसके परिणाम हानिकारक ही होंगे। आधुनिक अनुसंधानों से यह साबित हो चुका है कि जैवमण्डल पर मनुष्य के अनवरत एकतरफा और काफी हद तक अनियमित प्रभाव से हमारी सभ्यता एक ऐसी सभ्यता में तब्दील हो सकती है, जो मरुभूमियों को मरुद्यानों को रेगिस्तानों में बदल देगी।

इसी सबको मद्देनजर रखते हुए ए व्हाइट का ‘दिह्ममनाइजेशन ऑफ मैन’ में कहना है कि प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए। क्योंकि ऐसी हर विजय हमें अमानव बनाने वालाी होती है। यह सही है कि हरेक विजय से पहले वे ही परिणाम मिलते हैं, जिनका हमने भरोसा किया था। पर दूसरी और तीसरी बार में उसके बिलकुल भिन्न तथा अप्रत्याशित परिणाम होते हैं, जिनसे अक्सर पहले वाले परिणाम का असर जाता रहता है। पिछली सदी तथा मौजूदा सदी के पूर्वार्द्ध में मनुष्य का लालच इतना बढ़ा-चढ़ा नहीं था, जो सारी मानव जाति के अस्तित्व की आवश्यक शर्त के रूप में सोचने को विवश करता । यह तकाजा करता कि समाज और उत्पादन के सिलसिले में प्रकृति पर हमारे हस्तक्षेप के दूरगामी परिणामों पर विचार किया जाए। लेकिन अब यह निहायत जरूरी हो गया है।

इनसान द्वारा भौतिक चीजों के लिए प्रकृति के शोषण की शैली ने पर्यावरण को ही नहीं मनुष्य के जीवन जीने के रंग-ढंग को भी बरबाद कर दिया है। हमारा जीवन सरल, सौम्य और मृदुल बन इसके लिए जरूरी है कि हम पृथ्वी पर जीवन प्रणाली के विभिन्न तत्वों पर अपने प्रभाव को सावधानीपूर्वक देखें, समझें और सुधारें। पर्यावरण को मनुष्य को आवश्यकताओं के अनुरूप रूपांतरित करना एक सीमा तक तो ठीक है। विनाशक प्राकृतिक शक्तियों जैसे भूकम्पों, चक्रवातों, बाढ़, सूखा, चुम्बकीय और सौर औषधियों से भी संघर्ष करना पड़ेगा। परन्तु यह केवल उन नियमों के अनुसार ही किया जा सकता है, जिनके द्वारा जैवमण्डल एक अखण्ड व स्व-नियामक प्रणाली के रूप में काम करता व विकसित होता है। आज का पर्यावरणीय सवाल महज प्रदूषण तथा मनुष्य के आर्थिक क्रियाकलापों के दूसरे नकारात्मक परिणामों तक सीमित नहीं है। यह हमारी जीवनशैली को गढ़ने से भी सम्बन्धित है।

इसे हल करना तभी सम्भव है, जब हम सब समवेत भावनाओं से प्रकृति को वैदिक ऋषियों की भाँति ‘माता’ के रूप में स्वीकारे, समादृत करें। अन्तःकरण में इन भावनाओं के उपजते ही उस नीति में अपने आप बदलाव आने लगेगा, जिसके अंतर्गत प्रकृति पर विजय प्राप्त करने, उसके विभिन्न साधन स्रोतों से मनचाही लूट-खसोट करने को ही मानवीय पुरुषार्थ का प्रतीक और सामाजिक लक्ष्य मान लिया गया था।

हम हँसी-खुशी की जिन्दगी जी सकें, इसके लिए सन्तुलित रीति हर हाल में अख़्तियार करनी होगी। इसके प्रयोग के तौर-तरीके, स्थान-परिवेश और उसकी अवस्थाओं, आवश्यकताओं के अनुरूप अवश्य भिन्न हो सकते हैं सहयोग, संरक्षण सद्भाव का यह प्रवाह हमारे व्यवहारिक विकारों को धीरे-धीरे दूर कर निर्मल करता जाएगा। इसके लगातार बने रहने के लिए जरूरी है, हम सभी का एकजुट प्रयास, जो एक-दूसरे में निरन्तर इसके लिए प्रेरणा भरता रहे। शान्तिकुँज में आयोजित पर्यावरण संवर्ग समारोह में इसी तत्वदर्शन को अभियान का रूप दे दिया गया है।


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