आयुर्वेद को पुनर्जीवित किया है शांतिकुंज-युगतीर्थ ने

September 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आज के इस आधुनिक युग में लोगों की मान्यता यह है कि जैसे आवागमन के तीव्रगामी साधन उपलब्ध हो गए हैं, संचार क्राँति से मनुष्य एक ‘ग्लोबल अम्ब्रेला’ के नीचे आ गया है, ठीक उसी तरह तुरत-फुरत कोई भी अस्वस्थता का आक्रमण होते ही ऐसी औषधि मिल जानी चाहिए, जो रोग को मिटाए न मिटाए, कष्ट जरूरी मिटा दे। आज की भोगवादी सभ्यता का दर्शन ही है, जिसमें ‘एलोपैथी’ के रूप में पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति के माध्यम से ढेरों अच्छाइयों के साथ एक सबसे बड़ा अभिशाप दिया है - वह है दोषपूर्ण-अनियमित जीवन-शैली का समाज में प्रचलन।

वस्तुतः मानवी काया प्रकृति की एक ऐसी रचना है जिस पर न्यौछावर हुआ जा सकता है। स्रष्टा ने इसमें कूट-कूटकर ऐसी विशेषताएँ भरी है कि देखकर आश्चर्यचकित होकर स्तब्ध हो जाना पड़ता है।ऐसा सर्वसमर्थ जीवनी-शक्ति सम्पन्न स्वयं अपने भीतर से ‘हीलिंग’ की सामर्थ्य पैदा करने वाला कोई यंत्र आज तक कोई भी वैज्ञानिक नहीं बना पाया । यदि अनावश्यक छेड़-छाड़ न की जाए, आहार-विहार के सभी नियमों की ठीक तरह से पालन किया जाता रहे, तो इतने मात्र से शरीर को जीवनपर्यन्त स्वस्थ व नीरोग रख ‘जीवेम शरदः शतम्’ की उक्ति सार्थक की जा सकती है। डॉ. एलेक्सिस कैरेल ने ‘मैन द अननोन’ तथा डॉ0 नारमन कजिन्स ने ‘एनाटॉमी ऑफ इलनेस’ पुस्तकों में मानवी काया की विलक्षणताओं-असीम सम्भावनाओं का वर्णन करते हुए यह लिखा है कि बीमार पड़ने पर भी स्वस्थ बनाने के सभी रहस्य इसी काया के गर्भ में छिपे पड़े हैं। काश हम इसके महत्व को समझ पाएँ तो हमारा जीवन जो आज अशक्ति का निवास स्थान बन गया, काफी कुछ ठीक चलाया जा सकता है।

आयुर्वेद एवं एलोपैथी में परस्पर द्वन्द्व या विवाद हम इस लेख में नहीं खड़ा कर रहे। कहने का आशय मात्र यह है कि आयुर्वेद में जीवनी-शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रख शरीर को नैसर्गिक जीवन-पद्धति से पर्यावरण के साथ तालमेल बिठाकर जीवन जीना सिखाया जाता है तो एलोपैथी में मारक-घातक औषधियों के द्वारा सूक्ष्म मर्मस्थलों को चोट पहुँचाकर कभी-कभी चिरस्थायी नुकसान पहुँचा दिया जाता है, भले ही तुरन्त राहत मिल गयी हो। यहाँ’ऐलोपैथी’ -पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति के उस पक्ष की अवमानना नहीं की जा रही, जिसमें कि पेट में या छाती में, सिर में या दाँतों में दर्द होने पर दर्दनाशक दवाओं द्वारा तुरंत राहत पहुँचा दी जाती है अथवा चीर-फाड़ के द्वारा पास से भरे स्थान को खाली या ट्यूमर-ग्लैण्ड्स को निकाल कर मरीज को राहत पहुँचा दी जाती है अथवा चीर-फाड़ के द्वारा पस से भरे स्थान को खाली ट्यूमर-ग्लैण्ड्स को निकाल कर मरीज को राहत पहुँचा दी जाती है, कहा मात्र यह जा रहा है कि एलोपैथी एवं आयुर्वेद परस्पर विरोधी न बनकर एक-दूसरे की पूरक बनकर चलें, तो चिरस्थायी आराम ही नहीं, हीलिंग की प्रक्रिया को और भी सशक्त बनाया जा सकता है। ‘थैलिडोमाइड ट्रेजेडी’ जो 1961-62 में सारे विश्व में एक नींद, तनाव की दवा थैलिडोमाइड के घातक प्रभाव विकलाँग बच्चों के जन्म के रूप में विश्वविख्यात हुई थी, ने सभी समझदार व्यक्तियों के कान, घातक तीव्र औषधियों के विषय में खड़े कर आज से 35 वर्ष पूर्व ही चेता दिया था। आज जब पश्चिम हमारे आयुर्वेद की ओर मुड़ रहा है, वहाँ तेजी से आयुर्वेदीय औषधियों के दैनन्दिन जीवन में प्रयोगों को बढ़ावा मिल रहा है, न जाने क्यों हम पूरी तरह स्वयं को पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति के बंधनों में जकड़ा पाने पर भी स्वयं को सुधारने का, अपनी चिरपुरातन साँस्कृतिक गरिमा को समझने का पुरुषार्थ नहीं कर रहे हैं। हमारे शाँतिकुँज के प्रयास इसी दिशा में है कि इस संबंध में जनजाग्रति लेकर आयुर्वेद की गरिमा स्थापित की जाए।

आज की स्थिति बड़ी विडम्बना से भरी है। रुग्ण मानव समुदाय बहुतायत में है। चिकित्सा की जो पद्धति प्रचलित है-सर्वसुलभ है-वह महँगी ही नहीं-अत्यंत घातक भी है। दूसरी ओर आयुर्वेद मृतप्राय स्थिति में नजर आता है। आयुर्वेद ऐसी स्थिति में क्यों पहुँचा व कौन इसके निमित्त कारण के रूप में माने जाएँ, इसके विस्तार में जाने से पूर्व यह तो मानना ही पड़ेगा कि मानवी काया व मन के स्वास्थ्य की दृष्टि से विगत तीन-चार दशकों में अवनति ही अवनति हाथ लगी है, चाहे मनुष्य की जीवित रहने की आयु में वृद्धि हो गयी हो। जन-साधारण का, तुरन्त आराम देने वाली एलोपैथी चिकित्सा पद्धति की ओर उन्मुख होना इस कारण भी हो सकता है कि वे अब तुरंत लाभ चाहते हैं, उनमें इतना धैर्य नहीं रहा कि वे निराश करने वाले प्रयोगों को करें। जीवनी-शक्ति छूँछ होकर रह जाने का एक प्रमुख कारण यह है कि आज के औद्योगीकरण व प्रदूषण से भरे युग में मनुष्य की जीवनशैली इतनी अप्राकृतिक हो गयी है कि उस पर अब तेज दवाएँ ही असर कर पाती हैं, हलके उपचारों का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता। मानसिक तनाव में वृद्धि विगत का एक दशक में तो इस तेजी से हई है कि ऐसा लगता है यह महामारी की तरह सारे विश्व में फेल गया हैं तनावजन्य मधुमेह, हृदयावरोध, दमा, सिर, पीठ के दर्द, एसीडिटी व पेप्टिक अल्सर तथा पाचन संबंधी अन्य बीमारियाँ एवं कई मनोरोग जिनमें डिप्रेशन एवं एक्वजाइटीन्यूरोसिस-सिजोफ्रेनिया जैसे रोग प्रधान हैं-पिछले एक दशक में तेजी से बढ़े हैं उसी अनुपात में एलोपैथी की दवाओं का प्रचलन भी बढ़ा है, किन्तु आराम फिर भी कहीं किसी को भी नहीं है।न मरीज को न डॉक्टर को। मलेरिया एवं राजयक्ष्मा (टी0बी0) जैसे रोग पुनः उभर कर नयी शक्ल लेकर आ गए हैं। कैंसर, एड्स व अन्य सेक्सुअली ट्राँसमिटेड डिसीजेज (STDs) तथा हृदयावरोध (इस्चीमिक हार्ट डिसीज) आज भी मृत्यु के तीन प्रमुख कारणों में से है। यदि समस्त विज्ञान की उपलब्धियाँ देखी जाएँ तो आज जब हम इक्कीसवीं सदी से मात्र ढाई वर्ष की दूरी पर हैं, यह समझ में नहीं आता कि हम अभी तक इनका समाधान क्यों नहीं खोज पाए। संभवतः परिष्कृत, पुनर्जीवित आयुर्वेद ही इसका समुचित उत्तर दे सकता है।

अथर्ववेद के एक उपाँग के रूप में प्रतिष्ठित आयुर्वेद प्राणशक्ति को जीवन्त बनाए रखकर अंदर से वह सामर्थ्य उत्पन्न करता है कि व्यक्ति कभी रोगी हो ही नहीं। कभी रोग का आक्रमण हो भी जाए तो सामान्यतः उपलब्ध वनौषधियों से ही उनका उपचार किया जा सके। आयुर्वेद का नाम तो आज मौजूद है पर विशुद्धतः आयुर्वेद के आधार पर चिकित्सा करने वालों के नाम पर मात्र एक प्रतिशत चिकित्सक समुदाय दिखाई पड़ता है। शेष सभी समन्वित चिकित्सा पद्धति और उसमें भी घातक-मारक मात्र तृतीय विश्व में प्रयुक्त होने वाली औषधियों का प्रयोग करते देखे जाते हैं, जबकि शिक्षा उन्होंने आयुर्वेद की ली है। यहाँ तक कि वैद्य कहलाने में उन्हें लाज आती है अतः डॉक्टर लिखकर, इंजेक्शन देकर वे स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं एवं मरीज भी मनोवैज्ञानिक रूप से उन्हीं से प्रभावित होते देखे जाते हैं। ‘काँर्टीसोन’ के रूप में अंतिम औषधि के रूप में उपलब्ध एलोपैथी की औषधि को चूर्णों में मिलाकर न जाने कितने आयुर्वेदिक काय-चिकित्सक देते देखे गए हैं। आयुर्वेद के रस चिकित्सक भस्मों के प्रयोग आदि पक्ष की तो हम बात नहीं कर रहें, क्योंकि उनमें तो कच्ची स्थिति में प्रयोग और भी अधिक घातक है। परंतु वनौषधियों को ही हमारे ऋषिगण रसायन के रूप में प्रतिष्ठित कर गए हैं यदि इन्हें ही शुद्ध रूप में लिया जा सके तो आज भी इनमें इतनी शक्ति विद्यमान है कि ये किसी भी व्यक्ति का कायाकल्प करने में समर्थ हैं। अश्वगंधा, मुलहठी, शतावरी, सारिवाँ, बहेड़ा, हरीतकी, आमलकी आदि रसायन ऐसे प्रभावशाली हैं कि नियमित प्रयोग करने पर नीरोग, दीर्घायु वाला जीवन जिया जा सकता है।

पिछले दिनों लोगों में जागरुकता आयी है एवं तेजी से इनके प्रयोगों का प्रचलन बढ़ा है, किन्तु अभी भी इस विषय में एक भ्रान्ति है कि जो चीज जितनी पुरानी, उतनी ही मूल्यवान हो जाती है। यह बात प्राकृतिक रूप में उगने वाली वनौषधियों पर लागू नहीं होती। वे परिपक्व स्थिति में तोड़ी जाने पर अपनी वीर्य कालावधि सुरक्षित रहने तक के समय तक ही लाभ पहुँचा सकती हैं। इनकी भी ‘एक्सपाईरी डेट’ होती है, यह तथ्य अक्सर भुला दिया जाता है । पंसारियों को ही हमारे यहाँ केमिस्ट, फार्मेसिस्ट, ड्रगिस्ट माना जाता है। वर्षों पुरानी, घुन लगी, वीर्यपाक रहित औषधि गुणकारी कैसे होगी- हो सकता है ओर नुकसान पहुँचा दे। औषधि को जब तक एक्सट्रैक्ट बनाकर आसव, अरिष्ट, अवलेह के रूप में सुरक्षित नहीं किया जाता-एक-समय विशेष में उसकी प्रभाव क्षमता नष्ट हो जाती है, यह तथ्य विशुद्धतः समझ लिया जाना चाहिए। एक दूसरी बात यह कि औषधि के किस अंग का उपयोग किस रोग में होता है, उसे कब तोड़ा जाना चाहिए, यह जानकारी भी अमूमन सभी को होनी चाहिए। अब कई वनौषधियाँ अनुपयुक्त रूप से तोड़े जाने के कारण पर्यावरण से मिटती चली जा रही है। फलोरा क्रमशः नष्ट होता चला जा रहा है। जगह-जगह इन्हें जिन्दा बनाए रखने के लिए औषधि उद्यानों, स्मृति उपवनों की अत्यधिक आवश्यकता है। कहाँ किस जलवायु में कौन-सी औषधि लाभकारी घटक अधिकाधिक मात्रा में अपने अंदर समाए पैदा होती है, यह जानकारी भी जन-जन को दी जानी अत्यधिक जरूरी है।

आज के समय की माँग को, मानव मात्र की वेदना को युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने देखा एवं आयुर्वेद की गरिमा को स्थापित करने के लिए उन्होंने गायत्रीतीर्थ एवं ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में इनके पुनर्जीवन हेतु समर्थ प्रयास आज से बीस वर्ष पूर्व 1976-77 से ही आरम्भ कर दिए थे। स्थान-स्थान पर वैज्ञानिक स्वयंसेवी कार्यकर्त्ताओं को भेजकर उन्होंने तथ्यों का संकलन कराया, हिमालय से लेकर समुद्री क्षेत्रों में होने वाली वनौषधियाँ मँगवाकर यहाँ उन्हें वैसी ही जलवायु-मिट्टी देकर उगाया एवं स्थान-स्थान से सूखी रूप में उपलब्ध उन औषधियों का संग्रह कर उन्हें चूर्ण रूप में मानवमात्र के लिए उपलब्ध कराया। आज से पंद्रह वर्ष पूर्व प्रकाशित तीन पुस्तिकाएँ ‘वनौषधि से स्वास्थ्य संरक्षण’ ‘वनौषधि संदर्शिका’ तथा ‘मसाला वाटिका से घरेलू उपचार’ इसी अध्ययन पर आधारित थीं। बाद में वाङ्मय के इकतालीसवें (41) खण्ड जीवेम शरदः शतम् में इन्हें समग्र रूप दे दिया गया। प्रत्येक परिजन को न केवल यह जानकारी इससे मिली है कि शुद्ध वनौषधि हमें किस रूप में कहाँ से उपलब्ध हो सकती है, अपितु उनकी पहचान, गुणधर्म, शुद्धाशुद्ध परीक्षा, प्रयोग-अनुपान संबंधी समस्त विवरण उन्हें इन पुस्तिकाओं के माध्यम से बड़ी सुलभ भाषा में मिल गया। इसे आयुर्वेद की सबसे बड़ी सेवा मानी जानी चाहिए कि आज समाज के एक बहुत बड़े तबके में स्वास्थ्य इस इस विद्या के विषय में जागरुकता शाँतिकुँज के प्रयासों से ही आयी है।

परमपूज्य गुरुदेव ने न केवल शाँतिकुँज फार्मेसी की स्थापना की, ताजी स्थिति में फाण्ट, क्वाथ या कल्क के रूप में उन्हें कैसे दिया जा सकता है, यह ज्ञान सबको उपलब्ध कराया, चूर्ण के रूप में उन्हें कैसे दिया जा सकता है, यह ज्ञान सबको उपलब्ध कराया, चूर्णों के रूप में उन्हें राष्ट्र ही नहीं विश्व के कोने-कोने में पहुँचा दिया। प्रत्येक चूर्ण के पैकेट पर औषधि को किस अनुपात में किस अनुपान भेद के साथ (शहद, दुग्ध, उष्ण या ठण्डा जल) लिया जाए, उसकी एक्सपाईरी डेट भी दी गयी, ताकि लोग वास्तविक लाभ उठा सकें- अनावश्यक रूप से उन पर लाभ न होने की स्थिति में उपालम्भ न लगा सकें। यही नहीं ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में, जहाँ अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय के विभिन्न प्रयोग-परीक्षण चलते हैं, एक सुव्यवस्थित प्रयोगशाला बनाई, जहाँ इन औषधियों की शुद्धाशुद्ध परीक्षा की जा सके तथा चूर्ण रूप में -उबालकर क्वाथ रूप में, ताजी स्थिति में कल्क रूप में अथवा यज्ञ में धूमीकृत स्थिति में ग्रहण करने से क्या लाभ होता है, किन रोगों का निवारण होता है, यह जानने में भी बड़ी मदद मिली है। सबसे बड़ी क्राँतिकारी खोज ‘प्रज्ञापेय’ के रूप में उपलब्ध औषधि संग्रह को माना जा सकता है, जो 12 औषधियों के भिन्न-भिन्न अनुपात में प्रयोग-परीक्षण के बाद चाय व कॉफी के विकल्प के रूप में चुस्ती लाने वाले एक टॉनिक के रूप में विश्व भर में ख्याति प्राप्त कर चुका है। ब्राह्मी, शंखपुष्पी, नागरमोथा, दालचीनी, सौंफ, मुलहठी (मधुयष्टि), लाल चंदन, अर्जुन, आज्ञा घास, तुलसी, तेजपात्र तथा शरपुँखा का सम्मिश्रण यह प्रज्ञापेय न जाने कितने चाय के शौकीनों के खोये स्वास्थ्य को पुनः लौटा सकने में समर्थ हुआ है एवं तनाव शासक, बुद्धिवर्द्धक, बलवर्द्धक पेय के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका है।

शाँतिकुँज द्वारा प्रचारित औषधियों में बीस को प्रारंभिक स्तर पर प्रमुखता दी गयी एवं इनके प्रभावों के आँकड़े एकत्रित किये गए। ये हैं- 1 आमाशय एवं ऊपरी पाचन संस्थान हेतु मधुयष्टि (मुलहठी) तथा आँवला 2 निचले पाचन संस्थान हेतु हरीतकी (हरड़) एवं बिल्व 3 हृदय एवं रक्तवाही संस्थान हेतु अर्जुन तथा पुनर्नवा 4 श्वास संस्थान के लिए वासा एवं भारंगी 5 केन्द्रीय स्नायु संस्थान के लिए ब्राह्मी एवं शंखपुष्पी 6 वात-नाड़ी संस्थान हेतु सुण्ठी (सौंठ-सूखी अदरक) एवं निर्गुण्डी 7 रक्तशोधन हेतु नीम एवं सारिवाँ 8 ज्वर आदि प्रकोपों हेतु एवं प्रति संक्रामक के नाते गिलोय व चिरायता 9 प्रजनन मूत्रवाही संस्थान हेतु अशोक एवं गोक्षर तथा 10 स्वास्थ्यवर्द्धक बल्व रसायन के रूप में अश्वगंधा एवं शतावर। इसके अतिरिक्त सभी रोगों में विभिन्न अनुपान भेद से तुलसी का प्रयोग व बाह्योपचार के लिए नीम, घृतकुमारी, आपामार्ग, हरिद्रा एवं लहसुन के प्रयोग को प्रचारित किया गया। प्रारम्भ में तो महत्व इन्हीं औषधियों को मिल गया था, किंतु कालान्तर में युगऋषि ने उचित समझा कि और भी औषधियाँ विकल्प रूप में उपलब्ध करायी जाएँ ताकि उनकी गुणवत्ता बनाए रख, उनके निर्माण-उत्पादन व खोती पर सभा बराबर ध्यान देते रहें। ये औषधियाँ इस प्रकार हैं- हरड़, बहेड़ा, आँवला के सम्मिश्रण त्रिफला के रूप में, शतपुष्पा (सौंफ), कालमेध, कुटज, दाडिम, अमलतास, शंखपुष्पी, सर्पगन्धा, लालचंदन, कण्टकारी, पिप्पली, भुई आँवला, जटामाँसी, वच, नागरमोथा, रास्ना, बला, बहेड़ा, ज्योतिष्मती, वरुण, लोध, अपामार्ग इत्यादि। इन सबके एकौषधि प्रयोग के अंतर्गत एकाकी एवं सम्मिश्रण के क्वाथ बनाकर उनके प्रयोग शाँतिकुँज के आयुर्वेद प्रकोष्ठ में किए गए तथा परिणामों का विश्लेषण ब्रह्मवर्चस में किया गया।

प्रतिदिन आयुर्वेदिक उपचार हेतु चेकअप कराने वालों की संख्या 1981 से इस प्रकार है:- 8015 वर्ष 1981 में, 8634 वर्ष 1990 में, 7656 वर्ष 19991 में , 8516 वर्ष 1992 में, 11217 वर्ष 1993 में, 7200 वर्ष 1994 में, 7830 वर्ष 1995 में, 10350 वर्ष 1996 में तथा अभी तक 1917 में 6720। प्रतिमाह सत्र में शिविरार्थियों की आयुर्वेदिक दृष्टि से चेकअप कराके लाभान्वित होने वालों की संख्या प्रतिवर्ष अनुसार 1984 से क्रमशः 2118, 1220, 1814, 3745, 1255, 1518, 1172, 83332, 2049, 2080, 2445, 3015, 2482 तथा इस वर्ष 2185 है। जो नौ दिवसीय सत्रों में आते हैं, उनकी संख्या सन् 1984 में क्रमशः 1814, 5530, 3819, 6615, 8010, 12052, 22535, 20151, 14417, 14820, 2396, 2412, 23510 तथा इस वर्ष अब तक 13450 है। यह ध्यान देने योग्य है कि शिविरार्थी जो 1 माह या 9 दिन के लिए आते हैं, की संख्या प्रतिदिन चेकअप कराके परामर्श लेने वालों के अतिरिक्त है।

नानकपुरा नई दिल्ली में श्री ए. के0 खोसला जिन्हें सिरोसिस ऑफ लीवर प्रमाणित कर दिया था, गले में कैंसर संपीड़ित श्री मधुसूदन पटेल (जि0 बड़ौदा), जीभ के कैंसर से ग्रस्त श्री मथुरालाल (जि0 रतलाम), हृदयरोगी श्री राज शर्मा (देहरादून) तथा नेफ्रोटिक सिण्ड्रोम से किडनी फैल्योर की स्थिति में गए श्री मनु अग्रवाल ऐसे रोगियों के नाम हैं जिन्हें विशुद्धतः आयुर्वेदिक औषधियों से ही रोग मुक्त किया गया। ये तो मात्र कुछ उदाहरण मात्र है। औरों की बायपास सर्जरी करने व करने की सलाह देने वाले शल्न्य चिकित्सक जो दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता में कार्य कर रहे हैं, यहाँ की औषधियाँ नियमित रूप से ले रहे हैं ताकि स्वयं को बायपास से बचाया जा सके। इससे ज्यादा इन औषधियों की प्रशंसा में और कहा भी क्या जा सकता है। मधुमेह, दमा, आर्थ्राइटिस, पेष्टिक अल्सर के अनेकों रोगी यहाँ से परामर्श लेकर स्वास्थ्य लाभ को प्राप्त हुए है। यहाँ यह बताना जरूरी है कि शाँतिकुँज कोई दवाखाना नहीं है, यह तो एक तीर्थ है, आरण्यक है- जीवनशैली के शिक्षण की अकेडमी हैं। यहाँ रोगी आकर निष्णात वैद्यों का परामर्श ले सकते हैं, पत्राचार भी कर सकते हैं, किंतु चिकित्सा हेतु ठहर नहीं सकते। स्थान की लब्धि पर हो सकता है अगले दिनों ऐसा केन्द्र कहीं समीप ही बनाया जाए, जहाँ कुछ दिन रहने की भी सुविधा हो, किंतु अभी तो मात्र कुछ घण्टों के लिए ही आया जा सकता है। चिकित्सा परामर्श नितांत निःशुल्क है एवं औषधियाँ बिना लाभ-बिना नुकसान की स्थिति में उपलब्ध हैं। हाँ कोई श्रद्धापूर्वक परामर्श के बदले कोई श्रद्धानिधि देना चाहता है तो वह सहर्ष देकर लेखाविभाग से रसीद प्राप्त कर सकता है।

जहाँ तक उत्पादन क्षमता का प्रश्न है, अभी चार स्वयंसेवक 8 घण्टे मशीन पर सिंगल पिसाई कर हवन सामग्री व प्रज्ञापेय का निर्माण करते हैं, जो प्रतिदिन 700 किग्रा0 के लगभग बैठती है। 4 आदमी आठ घण्टे डबल पिसाई कर कपड़छन पाउडर रूप में जड़ी-बूटियों का चूर्ण तैयार करते हैं, जो कि 350 किग्रा0 प्रतिदिन बैठता है। आठ स्वयंसेवक आठ घण्टे 100 ग्राम के पैकेट्स की पैकिंग कर 3500 पैकेट्स तैयार करते हैं। सारा कार्य पारमार्थिक सेवाभाव से होता है। भावी संभावनाएँ और भी अधिक हैं एवं विकेन्द्रीकृत होने पर कई स्थानों पर निर्माण संभव है।

औषधि संग्रह उत्तर प्रदेश में हरिद्वार, देहरादून, टनकपुर, रामनगर, नेपालगंज, रक्सौल, लखनऊ, कानपुर व ललितपुर से तथा मध्यप्रदेश में मन्दासौर, कटनी, शिवपुरी, रायपुर, धमतरी, नीमच एवं रायगढ़ से किया जाता है। इसके अतिरिक्त हिमालय प्रदेश, दिल्ली, कलकत्ता व मुम्बई से भी औषधि संग्रह कर लायी जाती है। यह सारा वर्णन कार्य की विशालता-विराटता का सबको आभास कराने के लिए दिया गया है।

यह अब ज्योतिर्विज्ञान के आधार पर भी प्रमाणित हो गया है कि विभिन्न वनौषधियाँ, विभिन्न ग्रहों का प्रभाव लेकर धरती पर उपजती हैं एवं अन्तर्ग्रही किरणों के प्रीवों से मनुष्य को भी लाभान्वित करती है। विज्ञान की सभी विधाओं के आधार पर आँकड़ों की दृष्टि से प्रमाणित आयुर्विज्ञान, जो चरक एवं सुश्रुत जैसे महान ऋषियों की हम सबकी देन है, शाँतिकुँज के अधिष्ठाता युगऋषि पूज्य पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा इस युग में हम सबकी समर्थता हेतु पुनर्जीवित किया गया, यह मानव जाति का सौभाग्य है - सबके लिए वरदान है। इसे अधिकाधिक व्यक्तियों तक पहुँचाने का पुण्य अर्जित करना ही सबसे बड़ी समझदारी है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles