प्रदूषण का युग एवं पर्यावरण संवर्द्धन की अनिवार्यता

September 1997

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पर्यावरण प्रदूषण के जलते सवाल की आँच से आज हर कोई बुरी तरह झुलस रहा है। जब इस सर्वनाशी समस्या ने इनसानी अस्तित्व पर ही सँवालिया निशान लगा दिया हो, तब भला कौन इससे स्वयं को अलग रख सकता है। साँस लेने की हवा, पीने का पानी, स्वयं का आवास, आस-पास का वातावरण पूरी तरह प्रदूषित हो चुका है। कभी का सुखी, शान्त व समृद्ध समाज इसके दुष्प्रभावों से, रोग-शोक से जर्जरित है। सब ओर प्रदूषण रूपी भयावह पिशाचिनी ताण्डव नर्तन करती नजर आ रही हैं ध्वनि प्रदूषण ने तो हर किसी की रातों की नींद हराम कर दी है। प्रदूषित परिस्थितियों के भयावह घटाटोप में भविष्य का उजाला कहीं से नजर नहीं आ रहा। दुनिया को वर्तमान तबाही से बचाना तभी सम्भव है जब प्रदूषण के विरोध में जबरदस्त मुहिम छेड़ी जाए और यह मात्र नारों, स्टीकरों एवं सम्मेलनों तक सीमित न रहे बल्कि यह पुकार हर जन के अन्तःकरण से निकले और नैष्ठिक कर्मठता बनकर दिखाई पड़े।

आज हर आदमी साफ हवा में साँस लेने के लिए तरस रहा है। वायुमण्डल में कार्बन डायऑक्साइड की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। एक बिजलीघर से 50 टन सल्फर डायऑक्साइड और उससे भी अधिक कालिख वातावरण में फैल जाती है। अपने पूरे देश में ऐसे 75 से भी ज्यादा ताप बिजलीघर हैं। इसी तरह रासायनिक खाद के बड़े-बड़े कारखानों से अत्यधिक प्रदूषित तत्व उत्सर्जित होते हैं, जिनमें अमोनिया, हाइड्रोकार्बन आदि प्रमुख है। वाहनों से निकलने वाले धुएँ में कार्बन मोनो ऑक्साइड नाइट्रोजन व लेड के ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, अल्डीहाइड आदि होते हैं। जो वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं। दुनिया भर में इन दिनों 50 करोड़ वाहनों का उपयोग किया जाता है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक पर्यावरण नियन्त्रण के सभी नियमों के बावजूद विकसित देशों में 150 लाख टन कार्बन मोनो ऑक्साइड, 15 लाख टन हाइड्रोकार्बन, 10 लाख टन नाइट्रोजन ऑक्साइड प्रतिवर्ष वायुमण्डल में पहुँचते हैं। इसके अलावा ईंधन के जलने से कार्बन मोनो ऑक्साइड की जो मात्रा वायुमण्डल में आती है, वह अरबों टन प्रतिवर्ष है। इस क्रम में संसार में 70 फीसदी प्रदूषण विकसित देशों में हो रहा है।

प्रदूषण के इस दौर में अपना देश भी कुछ पीछे नहीं है। एक अध्ययन के अनुसार विश्व के 41 प्रदूषित शहरों में दिल्ली का स्थान चौथा हैं केन्द्रीय सड़क-अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में वाहनों की संख्या गत बीस वर्षों में दस गुने से भी ज्यादा बढ़ गयी है। वर्तमान समय में यहाँ 25 लाख वाहन हैं। दिल्ली में मोटर वाहनों, कारखानों और अन्य स्रोतों से रोजाना लगभग 2500 टन प्रदूषित पदार्थ निकलते हैं। यहाँ पर कार्बन मोनो ऑक्साइड का गाढ़ापन 35 पी0पी0एम॰ है, जबकि विषाक्तता के लिए 25 पी0पी0एम॰ ही काफी है और स्वीकृत सीमा तो सिर्फ 9 पी0पी0एम॰ की ही है। यहाँ रहने वाला एक व्यक्ति हर दिन साँस लेने के दौरान लगभग एक पैकेट सिगरेट पीने के बराबर प्रदूषित वायु का सेवन कर चुका होता है। मुम्बई, अहमदाबाद, नागपुर जैसे शहरों में वार्षिक प्रदूषण की दर तीन गुना ज्यादा है। जबकि दिल्ली, कलकत्ता और कानपुर में प्रदूषण की वार्षिक औसत दर अंतर्राष्ट्रीय मानक की तुलना में पाँच गुना अधिक है।

‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के अनुसार वायु प्रदूषण इसी प्रकार जारी रहा तो इक्कीसवीं सदी के आने तक विश्व में कम से कम 9,75,000 व्यक्तियों के लिए आपातकालीन कक्ष की जरूरत पड़ सकती है। 8.5 करोड़ लोगों की दैनिक गतिविधियाँ पूरी तरह ध्वस्त हो जाएँगी। 7.2 करोड़ लोगों में श्वसन संबंधी बीमारियों के लक्षण प्रकट होंगे, लगभग 30 लाख बच्चे श्वसन रोग से पीड़ित नजर आएँगे, 90 लाख लोग अस्वस्थ और 2.4 करोड़ लोग फेफड़े सम्बन्धी रोगों से ग्रस्त हो सकते हैं। अभी ही यह स्थिति है कि दिल्ली में प्रदूषण के कारण हर तीसरे परिवार के एक सदस्य के सामने कैंसर का आसन्न संकट मँडरा रहा है। यहाँ का हर छठा आदमी टी0बी0 अथवा दमे का रोगी होने की स्थिति में है।

नाइट्रोजन ऑक्साइड और सल्फर डायऑक्साइड गैसों के कारण संसार के अनेक भागों में तेजाब वर्षा हो रही है। ये आपस में मिलकर हाइड्रोकार्बनों के साथ धूप में ओजोन पर्त को हानि पहुँचाते हैं। यह ओजोन मंडल पृथ्वी के धरातल से तकरीबन 10.15 किलोमीटर ऊँचे आकाश में मौजूद है और इसका काम सूर्य से आने वाली खतरनाक पराबैगनी विकिरणों को पृथ्वी की सतह तक आने से रोकना है। इस ओजोन मण्डल को सबसे अधिक नुकसान औद्योगिक क्षेत्र से उत्पन्न होने वाली क्लोरीन गैस के कारण होता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि प्रदूषण की दर इसी प्रकार बनी रही तो अगले दो सालों में अपनी धरती में सूर्य की पराबैगनी विकिरण का दुष्प्रभाव 8 से 15 प्रतिशत तक बढ़ सकता है। ह्रास की यह दर उत्तरी ओर दक्षिणी मध्य अक्षांश में लगभग पाँच प्रतिशत है। इससे पृथ्वी के तापमान में बढ़ोत्तरी होती है।

इन्हीं दुष्प्रभावों की वजह से गतवर्ष 1996 में पृथ्वी शीतयुग के बाद सबसे अधिक गर्म रही। पिछले दस हजार साल में पृथ्वी का ताप 50 डिग्री से लेकर 90 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है। इसी वजह से इस दौरान समुद्र का जल 100 मीटर ऊँचा हो गया है। इन परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिकों ने नीदरलैण्ड और बंगलादेश के एक बड़े हिस्से के निकट भविष्य में समुद्र में समा जाने की भविष्यवाणी की है। नासा के गोडार्ड इन्स्टीट्यूट ऑफ स्पेस स्टडीज तथा ब्रिटेन के हैडले सेण्टर फॉर क्लाइमेटिक रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार पिछले साल औसतन ताप 15.33 डिग्री सेल्सियस था। अनुमान है कि इसमें अगले सौ सालों में 30 डिग्री से 50 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। भारतीय भू-भाग का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है। वैज्ञानिकों की राय में 20 डिग्री सेल्सियस की तापवृद्धि भी अनेक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक प्रणालियों को तबाह कर देने के लिए पर्याप्त हैं इससे सारे जीव बैक्टीरिया से लेकर इनसान तक प्रभावित होते हैं वर्ल्ड वाच संस्थान के अध्यक्ष लेस्टर ब्राउन के अनुसार धरती के तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी के कारण यूरोप, अमेरिका, रूस और उक्रेन में फसलों को नुकसान पहुँचाने वाली ताप लहर चलने लगी है, जिसके कारण खाद्यान्न उपज में काफी गिरावट आयी है।

पहाड़ी पर बिगड़ते पर्यावरण सन्तुलन ने वायुमण्डल पर और भी बुरा असर डाला है। हाल ही में पहाड़ी वातावरण में कार्बन डायऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है। पेड़ कट जाने से वर्षा कम होने लगी है तथा जलवायु भी अनिश्चित व अनियंत्रित हो गयी है। प्राचीनकाल से औषधीय जड़ी-बूटियों की खान रहे हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में 200 से ज्यादा महत्वपूर्ण पादप प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें से अधिकाँश प्रजातियाँ ऐसी हैं, जो दुनिया भर में केवल यहीं पायी जाती हैं। भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण विभाग कलकत्ता की रेड डाटाबुक के अनुसार हिमालय क्षेत्र में 214 महत्वपूर्ण प्रजातियाँ संकटग्रस्त है। इन संकटग्रस्त प्रजातियों के रूप में चिह्नित पादप प्रजातियों के रूप में चिह्नित पादप प्रजातियों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। पंचमढ़ी वन-क्षेत्र में करीब 800 दुर्लभ पौधों की प्रजाति विलुप्ति के कगार पर हैं। इसी तरह पौधों की 49 प्रजातियाँ मध्य प्रदेश के बस्तर जिले के वनों से समाप्त हो गयी हैं। वनों की कटाई के कारण जमीन के अन्दर का जलस्तर तेजी से घट रहा है। इसके परिणामस्वरूप उत्तर पश्चिम भारत में लगभग 2,50,000 हेक्टेयर भूमि में जल की समस्याएँ उत्पन्न हो गयी है और अगले 30 से 50 वर्षों में 3 लाख हेक्टेयर भूमि, पानी के अभाव में ऊसर हो जाने की समस्या है। एक अध्ययन के अनुसार अपने देश में वर्ष भर में वर्षा से लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर जल प्राप्त होता है। इसकी भूमिगत जलसम्पदा अनुमानतः 300 मीटर की गहराई में 370 करोड़ हेक्टेयर है, जो यहाँ की सालाना बारिश से लगभग 10 गुना अधिक है। भूगर्भवेत्ता जी0सी0 चौधरी के सर्वेक्षण के मुताबिक पता चला है कि प्रदूषण की वजह से उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, बिहार के भोजपुर आदि क्षेत्र में भूमिगत जल में नाइट्रोजन, फास्फेट पोटेशियम के अलावा सीसा, मैंगनीज, जस्ता, निकिल जैसे रेडियो-धर्मी पदार्थ व जहरीले तत्व निर्धारित मान्य स्तर से काफी ज्यादा मौजूद है। यह स्थिति अत्यन्त विस्फोटक एवं खतरनाक है।

पुरातनकाल में पर्यावरण की दृष्टि से अपने देश में ही नहीं विदेशों में भी बड़े-बड़े नगरों को नदियों के किनारे बसाया गया था। आधुनिक समय में औद्योगिक संस्थाओं, कारखानों, मिलों द्वारा बहाए जाने वाले रसायनों, कूड़ा तथा प्रदूषण निकासी वाले पानी से नदियों का पानी इस कदर प्रदूषित हो चुका है कि नदियाँ पर्यावरण को स्वच्छ करने के बजाय भयंकर बीमारियों को जन्म दे रही है। यही नहीं कूड़े की अधिकता की वजह से ये नालों में बदलती जा रही हैं। देश के लगभग 3119 शहर और कस्बों में से आठ में पूरे और 201 में आँशिक मल-जल उपचार संयंत्र हैं। इन सभी शहरों में अनुपचारित मल-जल जिसकी मात्रा प्रतिदिन तकरीबन 1200 करोड़ लीटर से भी ज्यादा होती है, नदियों के जल को प्रदूषित कर रहे हैं उत्तर प्रदेश में लगभग 190 औद्योगिक इकाइयाँ अपना करोड़ों टन कचरा हर रोज नदियों में गिरा रही हैं। पूरे देश की स्थिति तो और भी चिन्ताजनक है। गंगा सहित देश की प्रमुख 17 जीवनदायिनी नदियों का जल औद्योगिक कचरे व गन्दे जल के विसर्जन से इस कदर प्रदूषित हो चुका है कि इनका पानी नहाने के काबिल भी नहीं रह गया है।

देवनदी गंगा गंगोत्री से समुद्र तक अपनी 2500 कि0मी0 की यात्रा में कुल अस्सी छोटे-बड़े शहरों को अपने आँचल में समेटे हुए है तथा लगभग 25 करोड़ व्यक्तियों के जीवन और स्वास्थ्य को यह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। इस पवित्र नदी में हर साल दस हजार मृत मनुष्यों के शव0, साठ हजार मृत जानवरों के शरीर प्रवाहित कर दिए जाते हैं। अस्सी शहरों का करीब 500 करोड़ लीटर प्रदूषित मल-जल प्रतिदिन पवित्र गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। गंगा की सहायक नदी गोमती का हाल तो और भी खराब है। इस नदी में सिर्फ लखनऊ से हर रोज 1800 टन घरेलू कचरा तथा 33 करोड़ लीटर प्रदूषित जल प्रवाहित हो रहा है। इसी तरह यमुना नदी में दिल्ली से 190 करोड़ लीटर प्रदूषित जल हर रोज प्रवाहित किया जाता है। यही हाल बिहार की दामोदर नदी का है, जो अब तक प्रदूषण के खतरनाक स्तर को पार कर चुकी है। गुजरात की प्रसिद्ध नदी साबरमती अहमदाबाद के 74 करोड़ लीटर प्रदूषित जल का भार ढोए जा रही है।

जल प्रदूषण की विषाक्तता की वजह से अपने देश को दो सौ अरब रुपए का नुकसान हर साल झेलना पड़ता है। इसी की वजह से पेचिश, यकृत सम्बन्धी रोग एवं हैजा आदि के कारण अगणित आदमी अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। सन् 1987 में जितनी भी मौतें हुई हैं, उनमें से 60 प्रतिशत का कारण जल प्रदूषण रहा है। प्रदूषण के कारण भूमिगत जल में मौजूद नाइट्रेट के इन-नाइट्रोसो कम्पाउण्ड के रूप में बदलने की आशंका उत्पन्न हो गयी है। इससे पेट का कैंसर होने की सम्भावना रहती है।

प्रदूषण की महामारी को बढ़ाने में कीटनाशकों का भी भारी योगदान है। वर्तमान समय में हमारे देश में 64 कारखाने कृषि रसायनों का उत्पादन करते हैं। 9 वीं पंचवर्षीय योजना में 85 हजार टन कृषि रसायनों की खपत का अनुमान है। हाल ही में किए गए एक अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि प्रतिवर्ष विश्वभर में कीटनाशकों के दुष्प्रभाव के कारण कम से कम 20,000 व्यक्ति असमय ही मौत का ग्रास बनते हैं तथा 20 लाख व्यक्ति हर साल जानलेवा रोगों का शिकार होते हैं। कीटनाशकों के चिरकालीन विषाक्तता के कारण असमय गर्भपात होना, बच्चों में शारीरिक अपंगता, असमय जन्म, मानसिक विकास, स्मरण शक्ति का ह्रास, प्रतिरोधक क्षमता में कमी, गुर्दे तथा यकृत की बीमारियाँ, चर्म रोग तथा कैंसर जैसी बीमारियाँ, उत्पन्न हो रही हैं। इसकी वजह से खेतिहर मजदूरों में आँखों का विकार, थकावट तथा नपुँसकता आदि रोग बढ़ रहे हैं।

मौजूदा औद्योगिक क्रान्ति और आबादी की बढ़ोत्तरी ने अगणित बीमारियों के जनक ‘शोर’ को उपजाया हैं 75 डेसीबल से अधिक का शोर हानिकारक माना जाता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि 85 डेसीबल से अधिक की ध्वनि लगातार सुनने से बहरापन भी आ सकता है।वही 90 डेसीबल शोर के कारण एकाग्रता व मानसिक कुशलता में कमी आ जाती है। 120 डेसीबल से ऊपर का शोर गर्भवती स्त्रियों और पशुओं के भ्रूण को नुकसान पहुँचा सकता है। 155 डेसीबल से अधिक शोर से मानव त्वचा जलने लगती और 180 पर मृत्यु तक हो सकती है। शोर से रक्त में कोलेस्टरोल और कर्टिसीन की स्तर बढ़ जाता है, जिससे हाइपरटेंशन होता है। यह आगे चलकर हृदय रोग व मस्तिष्क रोग सरीखी घातक बीमारियों को जन्म देता है। आस्ट्रिया के डॉ0 ग्रिफिथ का दावा है कि शोर से दिमाग के तन्तु कमजोर हो जाते हैं और आदमी असमय ही बूढ़ा हो जाता है।

शोर के कारण श्वसन गति, रक्तचाप, नाड़ी गति में उतार-चढ़ाव, पाचन तन्त्र की गतिशीलता में कमी आदि दुष्प्रभाव भी देखे गए हैं। एक अनुसन्धान के अनुसार ध्वनि प्रदूषण के कारण मुर्गियों ने अण्डे देना बन्द कर दिया और मवेशियों के दूध में कमी आ गयी। अनिद्रा और कुण्ठा जैसे विकारों का कारण भी शोर ही है। इससे पाचन विकार, सिर दर्द, झुँझलाहट आदि होना सामान्य बात हैं इसी कारण विज्ञानवेत्ताओं ने ध्वनि प्रदूषण को मानवता के लिए स्लोप्वायजन (धीमा जहर) की संज्ञा दी है।

एक अध्ययन के अनुसार भारी ट्रेफिक में 90 डी0बी0, रेलगाड़ी से 10 कार के हार्न से 100 से 110, हवाई जहाज से 140 से 170 तथा मोटर साइकिल से 90 डी0बी0 की ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं। सुपर सोनिक जेट और कंकार्ड विमानों से उत्पन्न 150 डी0बी0 से अधिक शोर के कारण ओजोन पट्टी को सर्वाधिक क्षति पहुँचती है। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ0 हरेला जान्सन का दावा है कि इन विमानों के कारण कुछ ही सालों तक यदि यही पट्टी नष्ट हो जाएगी। इससे मानव शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के बुरी तरह प्रभावित होने की सम्भावना है।

पर्यावरण का हमारे स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है। यहाँ तक कि प्रदूषण से अजन्मा बच्चा तक प्रभावित होता है। गर्भस्थ शिशु बाह्य पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होता है। कीटनाशकों, घातक रसायनों व अन्य विषैले पदार्थों के मिश्रणों में गर्भस्थ शिशुओं के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को तहस-नहस करने की पूर्ण क्षमता है। संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वेक्षणानुसार वर्तमान में कोई गर्भ सुरक्षित नहीं है। आधुनिक जीवनशैली व औद्योगिक क्रियाकलापों के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले दूषित तत्व माँ के गर्भ में पल रहे भ्रूण पर कहर बरपा रहे हैं। माँ के गर्भ में सांसें ले रहा गर्भस्थ शिशु प्रदूषित पर्यावरण के कारण खतरों के बीच पल रहा है।

नई दिल्ली के अपोलो अस्पताल की एक स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ0 मधुराय के अनुसार कुछ प्रदूषित तत्वों का भार व रासायनिक संरचना गर्भस्थ शिशुओं के आहार से मिलती-जुलती है। परिणाम स्वरूप ये तत्व प्लेसेण्टा के द्वारा गर्भ में पहुँच जाते हैं। इनमें टेराटोजेन्स नामक रसायन भ्रूण की संरचना ही चौपट कर सकता है। जिसके प्रभाव से बच्चा मरा हुआ पैदा हो सकता है या जन्म के पश्चात् तुरन्त मर जाता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन के अनुसार स्पान्टेनियस एबार्शन की दर 14 से 30 प्रतिशत तक है। सन् 1975-77 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किए गए अध्ययनों के मुताबिक यह स्थिति प्रमुख रूप से पर्यावरणीय कारणों से उत्पन्न जीन संबंधी गड़बड़ी से होता है। नई दिल्ली के गुय तेगबहादुर अस्पताल के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ0 एम0ए॰ फरीदी के मतानुसार तीव्र औद्योगीकरण, असुरक्षित वातावरण, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों के कारण पर्यावरणीय प्रदूषण बढ़ा है तथा घर की चहारदीवारी के अन्दर वायु की गुणवत्ता घटी है। इन सबसे गर्भस्थ शिशु बुरी तरह प्रभावित होता है। विकासशील एवं अविकसित राष्ट्रों की इस सम्बन्ध में स्थिति कुछ ज्यादा ही खराब है।

‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ की रिपोर्ट बताती है प्रदूषित वातावरण में उपस्थित रहने वाले तत्व लेड व कैडमियम क्रमशः पुरुषों की प्रजनन क्षमता एवं प्लेसेण्टा पर बुरा असर डालते हैं 1956 में जापान में मिथाइल मरकरी प्रदूषण ने महामारी का रूप धारण कर लिया था, जिसकी वजह से 10 वर्षों तक इस क्षेत्र में 6 प्रतिशत बच्चे सेरीब्रल पाल्सी के शिकार होते रहे । इसी तरह की घटना 1956 व 60 के बीच ईराक में हुई। आर्गेनोक्लोरीन पेस्टीसाइड छठवें दशक में पश्चिम में प्रतिबन्धित कर दिए गए थे लेकिन दक्षिण राष्ट्रों में इनका प्रचलन अभी भी है। डी0डी0टी0डी0बी0सी0पी0 लिण्डेन, डाइएल्ड्रिन व हेक्साक्लोरो प्रभावित टेरानोजोन्स हैं। पी0सी0बी0(पाली क्लोरीनेटेड बाइफेनिल) एक ऐसा रसायन है जो भ्रूण के विकास को अत्यन्त प्रभावित करता है। गर्भस्थ महिलाओं पर कार्बन मोनोऑक्साइड एवं बेन्जोपायरिन का प्रभाव अधिक देखा गया है। जो महिलाएँ ऐसे वातावरण में रहती हैं वे 100 से अधिक सिगरेट से उत्पन्न धुएँ की मात्रा प्रतिदिन साँस के द्वारा अन्दर लेती हैं।

कार्बन मोनोऑक्साइड भ्रूण को प्राणदायी ऑक्सीजन से वंचित करने का कार्य करता है। शुद्ध वायु में इसकी मात्रा 0.1 से 0.5 पी0पी0एम॰ होती है। लेकिन शहरों एवं औद्योगिक क्षेत्रों में यह मात्रा 50 पी0पी0एम॰ तक हो सकती है। लेकिन शहरों एवं औद्योगिक क्षेत्रों में यह मात्रा 50 पी0पी0एम॰ तक हो सकती है। यह कार्बन मोनोऑक्साइड प्लेसेण्टा में फैलकर भ्रूण के रक्तसंचार से जुड़ जाता है। रक्त में उपस्थित होमोग्लोबिन में इसके बेधने की दर ऑक्सीजन से 200 गुना अधिक होती है। अगर भ्रूण में कार्बोक्सी होमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ती है तो मस्तिष्क व हृदय बुरी तरह प्रभावित होते हैं। इसे मीकोनयम कहते हैं। मीकोनियम भ्रूण के मुँह या फेफड़ों में पहुँचकर बच्चे को मौत के मुँह में सुला देता है। सीसा एवं मैग्नीज धातु भी कम हानि नहीं पहुँचाते।

थियोकोलर्बोन द्वारा रचित ग्रन्थ ‘अवर स्टोलेन फ्यूचर’ में प्रदूषण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं की विशद् विवेचना की हैं उनका कहना है कि प्रदूषण की वजह से शुक्राणुओं की संख्या 2.1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से कम हो रही है तथा इसकी गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है। टेस्टीक्यूलर कैंसर की दर अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है। इण्डोक्रइन व्यतिक्रम के कारण पुरुषों का स्त्रीकरण एवं स्त्रियों का पुरुषीकरण हो रहा है। इन्हें जेण्डर वेर्ण्डस के नाम से जाना जाता है। ये रसायन मानव सेक्स हार्मोन की नकल करते तथा इन्हें प्रभावित करते हैं। नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्सिया के मतानुसार लड़कियाँ समय से पूर्व यौवनावस्था को प्राप्त कर रही है। इसके लिए ओस्ट्रेन नामक हार्मोन जिम्मेदार माना जाता है। चिकित्सा वैज्ञानिकों के अनुसार आज का ज्वलन्त विषय पर्यावरण प्रदूषण से होने वाले ओस्ट्रेजन हार्मोन के व्यक्तिक्रम को रोकना है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जो सैकड़ों रसायनों की खोज और इस्तेमाल हुआ है, उन्होंने जीवन को ही बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है। इनमें से सैकड़ों रसायन ओस्ट्रेजन की तरह है। पी0सी0बी0 जैसे रसायनों की संरचना इससे काफी हद तक मिलती है। ये रसायनों की संरचना इससे काफी हद तक मिलती है। ये रसायन वर्तमान में हमारी जीवनशैली के अभिन्न अंग बन चुके हैं। साबुन, सौंदर्य प्रसाधन सामग्री, रंग-रोगन, प्लास्टिक, कीटनाशक व अन्य प्रयोग में आने वाले रसायनों में यह विद्यमान रहता है। दुनिया में डी0डी0टी0 की सर्वाधिक मात्रा दिल्ली निवासियों की वसा में पायी जाती है। यही नहीं माँ के दूध में पेस्टीसाइड्स की मात्रा भी सर्वाधिक भारत में ही पायी जाती है। ये प्रदूषणकारी तत्व जेनेटिक संरचना को भी परिवर्तित करने में समर्थ हैं।

प्रदूषण की इस विनाशकारी समस्या से जूझने एवं बचने के लिए विश्वभर में पर्यावरण संरक्षण व संवर्द्धन के अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू0एन0ई0पी0) ने 5 जून 1997 के दिन को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया। इसे ‘पृथ्वी सम्मेलन धन पाँच’ के रूप में जाना जाता है। सन् 1992 में आयोजित रियो डी जेनेरो के पृथ्वी सम्मेलन की यह पांचवीं वर्षगाँठ थी। इस पृथ्वी सम्मेलन में 160 से भी अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्षों व शासनाध्यक्षों के साथ महान पर्यावरणविद् उपस्थित हुए थे। सभी ने वर्तमान प्रदूषण पर चिन्ता व्यक्त करते हुए इसके विकास और संवर्द्धन को अपने युग के महत्वपूर्ण कार्य की संज्ञा दी। सम्मेलन में मनुष्य के विनाशकारी व्यवहार को ठीक करने तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए सैकड़ों अरब डालर आवंटित करने की एक कार्ययोजना पारित की । यू0एन0ई0पी0 के निदेशक एलिजाबेथ डाइसबेल ने अपने सन्देश में विश्वसमुदाय का आह्वान करते हुए कहा-”पर्यावरण की सुरक्षा विश्व की सुरक्षा है। अतः विश्व के हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह इस ओर कटिबद्ध हो। विकासशील दुनिया के प्रमुख राजनीतिज्ञ एवं राष्ट्रकुल के पूर्व महासचिव श्री दत्त रामफल ने वर्तमान पर्यावरण संकट को अति गम्भीर बताते हुए स्पष्ट किया है कि पर्यावरण संरक्षण हो आज का युगधर्म है।

पृथ्वी सम्मेलन धन पाँच में अमेरिकी उपराष्ट्रपति अलगोरे ने संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में कहा है कि जलवायु में परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए अपने संकल्प में एकजुट रहना चाहिए। ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर तथा नीदरलैण्ड के प्रधानमंत्री विमकाफ ने पर्यावरण संरक्षण को प्रथम मानवीय कर्त्तव्य का नाम दिया और अनेक योजनाएँ सुझायीं । अमेरिका में कोलोराडो की एक संस्था ‘ग्लोबल रिस्पाँस’ के अलग अहोशी ने कहा है कि पृथ्वी को बचाने के लिए हमें तीव्र तथा अनुरूप बदलाव करना चाहिए। ‘ग्लोबल रिस्पाँस’ ने विकसित औद्योगिक देशों के संगठन ग्रुप सात और रूस के शिखर बैठक के समय डेनवर में ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के क्रियाकलापों पर सुनवाई के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय पंचायत का आयोजन किया था। इसमें एशिया, अफ्रीका, दक्षिण और उत्तरी अमेरिका के संगठनों ने यूरोप, अमेरिका और जापान की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को कड़ी चेतावनी दी, साथ ही पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक कार्य योजनाएँ बनायीं, जिन पर क्रियान्वयन भी हो रहा है।

यूरोपीय संघ के देश विश्व भर में ऐसे उपाय करने के पक्ष में हैं जिससे कार्बन डायऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करने वाली गैसों के उत्सर्जन में 2010 तक 1990 के स्तर के मुकाबले 15 प्रतिशत की कमी आ जाए। ये गैसें वायुमण्डल के तापमान को बढ़ाती हैं। रियो सम्मेलन में सन् 2000 तक रियो कार्ययोजना यानि ‘एजेण्डा 21’ को लागू करने पर सहमति जतायी गयी। इसके लिए 600 अरब डालर का प्रस्ताव था। दुनिया में पर्यावरण सुरक्षा के लिए धन का मूल स्त्रोत वैश्वीय पर्यावरण व्यवस्था में करीब 2.8 अरब डालर की धनराशि 6 साल के लिए जमा की गयी थी, जो जलवायु परिवर्तन, जैवविधिता और जल के संरक्षण जैसे वैश्विक मुद्दों सम्बन्धी योजनाओं पर खर्च किया जाता है। 25 करोड़ डालर का एक दूसरा फण्ड ओजोन परत पर हुए माण्ट्रियल समझौते के लिए रखा गया है। पर्यावरण संरक्षण की समीक्षा और आकलन के लिए 23 से 26 जून तक न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा का विशेष अधिवेशन आयोजित किया गया था। वायुमण्डल में गर्मी बढ़ने से रोकने के उपायों के बारे में सन्धि हेतु क्योटो (जापान) सम्मेलन निकट भविष्य में तय है। इसके पूर्व स्वीडन में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में मानव और पर्यावरण रक्षा पर जून 1972 में एक सम्मेलन हुआ था, जिसमें स्पष्ट चेतावनी दी गयी थी कि पर्यावरण के विनाश से मानवजाति का विनाश अवश्यम्भावी है।

इतने सारे सम्मेलनों, चेतावनियों एवं पर्यावरण सुरक्षा का विशालकाय तन्त्र खड़ा करने के बावजूद प्रश्न यथावत् है, समस्या की विकरालता घटने के स्थान पर बढ़ी है। क्योंकि जन भावनाएं) जाग्रत नहीं की गयी। प्रकृति के साथ मनुष्य के भाव भरे सम्बन्धों का मर्म नहीं समझाया गया। इसकी सारगर्भित व्याख्या नहीं की गयी। आज की वर्तमान पीढ़ी इस बात से अनजान है कि प्रकृति से उसके कुछ वैसे ही भावनात्मक रिश्ते हैं, जैसे कि उसके अपने परिजनोँ एवं सगे सम्बन्धियों से। इस भावनात्मक सत्य का मर्मोद्घाटन विज्ञान के दायरे के बाहर की चीज है। सम्भवतः इसीलिए अपनी सारी तार्किकता एवं मेधा नियोजित करने के बावजूद उसे वैज्ञानिक हल नहीं कर पाए। मानव एवं प्रकृति के बीच उलझी यह गुत्थी वैज्ञानिक होने की बजाय साँस्कृतिक अधिक है। इसका सुलझाव और समाधान भी साँस्कृतिक प्रयत्नों से ही सम्भव है।

भारत मानवीय भावनाओं का उद्गम बिन्दु, मानवीय संस्कृति का जन्मदाता एवं मानव-प्रकृति एवं परमेश्वर के पारस्परिक भाव भरे सम्बन्धों का चिरकाल से दार्शनिक व्याख्याता रहा हैं यहीं के महर्षियों के मुख से कभी ओजस्वी गूँज उठी थी-

गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु। बभ्रुँ कृष्णाँ रोहिणीं विश्वरुपाँ ध्रुवाँ भूमिं पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम्। अजीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्यठाँ पृथिवीमहम्। -अर्थव 12, 1-11

आज जबकि पर्यावरण संकट के कारण धरती पर अक्षत खड़ा रहना मुश्किल हो गया है, ऐसे क्षणों में साँस्कृतिक क्रान्ति के जन्मदाता वेदमूर्ति तपोनिष्ठ परमपूज्य गुरुदेव की पराप्रेरणा से संचालित शान्तिकुँज ने पर्यावरण की साँस्कृतिक गुत्थी को सुलझाने का संकल्प लिया हैं। इस संकल्प में पुरातन ऋषिगणों की वाणी ध्वनित होते अनुभव की जा सकती है। श्रावणी महापर्व पर शान्तिकुँज में सम्पन्न हुए पर्यावरण संवर्ग समारोह में यह निश्चित किया गया कि पर्यावरण संरक्षण पाँच स्तरों पर सम्भव होगा-

1- मानव-प्रकृति एवं परमेश्वर के सम्बन्ध, 2- मानव और अन्य जीव-जन्तुओं का सम्बन्ध, 3-मानव और प्रकृति के विविध रूपों का सम्बन्ध 4- मनुष्यों के आपसी सम्बन्ध, 5- वर्तमान पीढ़ी का भविष्य की पीढ़ी के सम्बन्ध। जीव-जन्तुओं पर एक समग्र सोच न बनने से छोटे-छोटे निरीह एवं मूक प्राणी उपेक्षित रह जाते हैं और संरक्षण एकाँगी रहता है। पर यह तभी संभव है जब हम स्वयं में एवं प्रकृति के समस्त घटकों में परमेश्वर की पराचेतना अनुभव करें। तभी सभी जन्तुओं एवं वनस्पतियों के प्रति संवेदना का भावविकास सम्भव हो सकेगा। प्रकृति के विविध रूपों के प्रति मनुष्य का सम्बन्ध इसी समझ पर आधारित होना चाहिए कि इनसे हमें केवल अपने उपयोग की वस्तुएँ ही नहीं लेनी है बल्कि इसके संरक्षण कीर जिम्मेदारी भी हमारी है। जमीन, जंगल, नदी और भूजल के प्रति आक्रामक रवैया छोड़कर हमें इनके सहज विकास पर ध्यान देना होगा।

कृत्रिम वृक्षारोपण के साथ प्राकृतिक वन संरक्षण भी जरूरी है, क्योंकि जलवायु सन्तुलन, जल एवं भू-संरक्षण तथा जैव विविधता की वास्तविक सुरक्षा प्राकृतिक वनों में ही सम्भव है। यह भी ध्यान दिया जाना जरूरी है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से प्रकृति भी प्रभावित होती है। शोषक अपनी विलासिता के लिए आदतन प्रकृति को विनष्ट करता है। मनुष्यों में पारस्परिक सौहार्द एवं मर्यादा पर्यावरण संरक्षण के लिए अतीव आवश्यक है। शोषण एवं विषमता जितनी कम होगी पर्यावरण उतरा ही समृद्ध होगा। पर्यावरण की समृद्धि ही संसार की समृद्धि है अपनी भावी पीढ़ी को जीवन की सम्पन्नता तभी सौंपी जा सकती है, जब वर्तमान पीढ़ी पर्यावरण संरक्षण के लिए पूर्ण जागरुक एवं कटिबद्ध हो। युगनिर्माण मिशन के प्रत्येक कार्यकर्त्ता को न केवल स्वयं जानना चाहिए बल्कि द्वार-द्वार जाकर घर-घर पहुँच कर जन-जन को यह चेताना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण केवल वृक्षारोपण नहीं है, अपितु वह प्राकृतिक आधार है, जिस पर मानव जीवन व जीव-जन्तु जीवित रहते हैं । इसी पर कृषि एवं औद्योगिक क्रान्ति भी निर्भर है। पर्यावरण ही सृष्टि का आधारभूत जीवन तत्व है। इसका संरक्षण-संवर्द्धन हमारे, हम सबके जीवित रहने की अनिवार्य शर्त है।


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