महाक्रान्ति श्रद्धावानों के बलबूते ही संपन्न होगी

September 1997

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श्रद्धा क्रान्ति का मूल तत्व है। यह उस आस्था का नाम है जो उत्कृष्ट आदर्शवादिता को अत्यधिक प्यार करे और उस स्तर के चिन्तन तथा कर्तृत्व के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में आनन्द अनुभव करें श्रद्धा अन्तःकरण की श्रेष्ठतम उपलब्धि है। इसका जहाँ जितना अंश स्फुरित होता है, उतना ही महानता दृष्टिगोचर होती है। उतने ही अंशों में आदर्शवादी चिन्तन की तरंगें उमगने लगती हैं, उत्कृष्ट क्रिया-कलाप स्वयमेव पनपने लगते हैं। इसी उपलब्धि के सहारे सामान्य परिस्थितियों में जन्में पले व्यक्ति भी ऐतिहासिक महामानवों की भूमिका निभाते और विश्वनिर्माण में असाधारण योगदान देते हैं।

क्रान्ति के प्रेरक एवं प्रवर्तक जन-जन के अन्तःकरण में इसी श्रद्धातत्व को जाग्रत करके आदर्शवादी चिन्तन एवं क्रिया-कलापों का तूफान खड़ा करते हैं। प्रज्ञावतार से उत्पन्न युगान्तरीय चेतना की विशेषता यही है कि अनायास ही जन-जीवन के अंतःकरण में मुरझाए और सूखे पड़े श्रम के बीज अंकुरित हो। श्रद्धा का समुद्र हिलोरें लेने लगे, ताकि उनकी अन्तःप्रेरणा वह कार्य कर सके जो सामान्य व्यक्ति के लिए सामान्य परिस्थितियों में सम्भव नहीं होता। असम्भव को सम्भव बना देने वाला अवतार प्रक्रिया का यह चमत्कार श्रद्धा के बलबूते ही बन पड़ता है।

रावण का आतंक दसों दिशाओं में संव्याप्त था। उसके विरोध-प्रतिरोध की बात कोई सोचता तक न था। उसके विरोध-प्रतिरोध की बात कोई सोचता तक न था। इतने दुर्दान्त दानव परिवार की शक्ति-सामर्थ्य का अनुमान लगाने वाले बेतरह निराशा और भयभीत हो जाते थे। अनीति सहते-सहते मरते तो असंख्य थे, पर लड़ते हुए मरने का साहस किसी में भी जगता न था। सीता अपहरण जैसी हृदयद्रावक घटना हो गयी, पर उन दिनारें के महाबली कहे जाने वाले आदर्शपरायण श्रद्धा के अभाव में चुप खड़े रहे । ऐसे आतंक को चीरते हुए अशिक्षित और अनगढ़ समझे जाने वाले रीछ-वानरों की भावनाएँ उमड़ी और वे प्रत्यक्ष मरण के लिए प्राण हथेली पर लेकर चल दिए। जन-श्रद्धा ने जनक्रांति का रूप ले लिया । अन्य प्राणियों पर भी प्रभाव पड़ा। गिद्ध ने श्रद्धा अतिरेक में प्रत्यक्ष काल से लड़ने में सम्भावित मरण का उल्लासपूर्वक वरण किया। गिलहरी उस धर्मयुद्ध में सहायता करने के लिए बालों में भर-भर कर बालू लाई। घटनाएँ अत्यधिक महत्व की भले ही न हों, पर एक तथ्य स्पष्ट होता है कि आतंक को चीरते हुए जब जन-श्रद्धा समग्र क्रान्ति का बिगुल बजा दे तो समझना चाहिए कि कोई दैवीचेतना कार्य कर रही है और परिवर्तन अब दूर नहीं है।

कृष्णकाल में इन्द्र के आतंक से वज्र जलमग्न हुआ जा रहा था। सामान्य बुद्धि भाग खड़े होने के अतिरिक्त और कोई उपाय सोच ही नहीं सकती थी। असम्भव को सम्भव बनाने वाली श्रद्धा का ज्वार उभरा। ग्वाल-बाल शिला-खण्ड को दूर-दूर से समेट कर हाथ और लाठियों के सहारे लाने लगे। विशालकाय बाँध बना। बाढ़ और वर्षा से होने वाली हानि टली। इन्द्र हारा, मनुष्य जीता। असम्भव लगने वाला कार्य सम्भव हुआ। सामान्य क्षुद्रबुद्धि इस प्रकार के दुस्साहसों में अनर्थ होने का ही निष्कर्ष निकलती है और ऐसे झंझट में उलझने से दूर रहने का ही परामर्श देती है। इसके विपरीत महान उद्देश्य के लिए, जोखिम भरे दुस्साहस के लिए, कटिबद्ध हो जाना असाधारण आदर्शवादिता का ही काम है। ऐसी प्रेरणा श्रद्धा के अतिरिक्त और कोई नहीं दे सकता।

दुर्योधन के पास राजशक्ति और साधनशक्ति असीम थी। पाण्डव अज्ञातवास में जान बचाते फिर रहे थे। कोई सहायक न था। सहायता करने में किसी को अपनी खैर नहीं दिखती थी। पाण्डव अपने बूते न सेना खड़ी कर सकते थे, न शस्त्र जुटा सकते थे। ऐसी दशा में निरीह पाण्डवों का कौरवों की अनीति से लड़ना सम्भव न था। फिर भी असम्भव सम्भव हुआ। न्यायपक्ष के समर्थन में महाभारत रचा गया और उसमें पराजय की सम्भावना को समझते हुए भी असंख्यों आदर्शवादी धर्मयुद्ध लड़ने के लिए जा पहुँचे। जनश्रद्धा एवं जन-भावनाओं के बल पर पाण्डवों ने साधनहीन होते हुए भी साधनों की विपुलता को पछाड़ा। इससे श्रद्धावानों की साहसिकता देखते ही बनती है। यह चमत्कार मात्र युगावतार के द्वारा लाए गए जनश्रद्धा के उफान से ही सम्भव है।

बुद्धकाल के दुर्दिन में जन-मानस को कुत्साओं और कुण्ठाओं ने बेतरह पाप-पंक में डुबो रखा था। पुरोहित वर्ग इस अनाचार का मूर्धन्य मार्गदर्शन कर रहा था। ऐसी दशा में विचार-क्रांति का शंख-नाद दुहरे संकट से भरा था। वातावरण की प्रतिकूलता में समर्थकों और सहयोगियों की सम्भावना क्षीण थी। विपक्षियों का निहित स्वार्थों में आँच आने से क्रुद्ध होना और घातक आक्रमण करना स्वभाविक था। ऐसे घोर निराशा भरे वातावरण में परिस्थितियों को उलट देने वाला उभार जनश्रुति से ही उमड़ा। एक अप्रत्याशित जन-क्रांति का सूत्रपात हुआ। श्रद्धावानों ने बुद्ध के अभियान में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का संकल्प किया। लाखोँ लोग सुख-सम्पदा को लात मारकर चीवर धारी परिव्राजक बने। सम्पन्नों से लेकर निर्धनों तक में श्रद्धा का ज्वार उमड़ पड़ा। हर किसी ने स्थिति के अनुसार उनका सहयोग किया। न जनशक्ति की कमी रही न धनशक्ति की। श्रद्धा प्रेरित आदर्शवादी पराक्रम आँधी-तूफान की तरह उफनता चला गया और प्रतिकूलताएं इस प्रकार अनुकूल होती चली गयीं, मानों मनुष्य को निमित्त बनाकर भगवान ने सारा विधान पहले से ही रचकर तैयार रखा हो।

गाँधी युग में भी श्रद्धा का ऐसा ही चमत्कार हुआ अँग्रेजों की समर्थता और कुशलता पहाड़ जितनी ऊँची थी। उनके राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था। युद्ध-कौशल में वे अपना सानी नहीं रखते थे। निहत्थे मुट्ठी भर सत्याग्रहियों की टोली उनका कुछ बिगाड़ सकेगी, इसकी आशा-अपेक्षा किसी को भी न थी। हजार वर्ष की गुलामी से अस्त-व्यस्त जन-समुदाय में ऐसा साहस भी न था कि इतने सशक्त विपक्ष के साथ लड़ मरने के लिए अभीष्ट त्याग-बलिदान का परिचय दे सके। ऐसी निराशाजनक परिस्थितियों में जन-श्रद्धा का एक अप्रत्याशित उभार उमड़ा है। स्वतंत्रता संग्राम ठना और अन्ततः विजयी होकर रहा। राष्ट्रीय भावनाओं से भरे हुए जन-साधारण ने उस संदर्भ में जिस पराक्रम का परिचय दिया, वह अवर्णनीय है।

नवयुग के अवतरण में भी उसी परम्परा का निर्वाह होने जा रहा है । श्रद्धा इन दिनों युगशक्ति बनकर प्रकट हो रही है। जनभावनाएँ महाकाल के इंगित पर आदर्शवादी दुस्साहस को अपनाने के लिए उतारू है। युगावतार परमपूज्य गुरुदेव ने इस महाक्रान्ति को स्पष्ट करते हुए कहा था- बलिष्ठता शरीर की, बुद्धिमत्ता मस्तिष्क ओर श्रद्धा अन्तरात्मा की शक्ति है। यही चेतना क्षेत्र की सर्वोपरि क्षमता है। श्रद्धा ही मनुष्य को अनन्त सामर्थ्य प्रदान करती है। उत्कृष्टता को व्यवहार में उतारने वाला दुस्साहस उसी उद्गम से प्रस्फुटित होता है। जिन्हें श्रद्धा की जितनी मात्रा मिल सकी, उन्होंने उतने ही उच्चस्तरीय, उतने ही सुविस्तृत महान कार्य सम्पन्न किए हैं। अपने युग की यह महाक्रान्ति भी श्रद्धावानों के बलबूते ही सम्पन्न होगी।

युग परिवर्तन बड़ा काम है। लोक-मानस को अवाँछनीयता से विरत करके उत्कृष्टता से प्रति भाव-विभोर हो उठने की स्थिति को समष्टि व्यक्तित्व का कायाकल्प ही कहा जा सकता है। यह बड़ा काम है, इसके लिए बड़ी शक्ति चाहिए। चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति एकमात्र श्रद्धा ही हैं इसी को गँवा बैठने से अपने समय में दुर्दशाग्रस्त होना पड़ा है। श्रद्धा का संवर्द्धन ही प्रकारान्तर से नवयुग का अवतरण है। जनसमुदाय में श्रद्धा का अतिरेक ही आदर्शवादी परंपराओं को स्थापित करने वाला जन-क्रान्ति का विस्तार करेगा और इक्कीसवीं सदी इस क्रान्ति के प्रेरक-प्रवर्तक एवं अनुगामियों को उज्ज्वल भविष्य का वरदान देने वाली सिद्ध होगी।


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