बड़ी चिरपुरातन है आयुर्वेद की परम्परा

September 1997

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आर्यों की सभ्यता की तरह आयुर्वेद की परम्परा भी चिरपुरातन है। वैदिक वाङ्मय में इसकी उत्पत्ति ब्रह्म से मानी गयी है। इस विवरण के अनुसार प्रजापति ने ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेद का मन्थन करके आयुर्वेद बनाया। यह पाँचवाँ वेद उन्होंने भास्कर ने स्वतन्त्र संहिता बनाकर इसे अपने शिष्यों को पढ़ाया। ये सभी शिष्य वेद-वेदाँग को जानने वाले और रोगों का नाश करने में निपुण थे। इन सबने अपने-अपने तंत्र बनाए। इन सब में धन्वंतरि ने चिकित्सा तत्व विज्ञान, दिवोदास ने चिकित्सा दर्शन, काशिराज ने चिकित्सा कौमुदी, अश्विनौ ने चिकित्सा सार तंत्र एवं भ्रमग्न को विकसित किया। इसी तरह नकुल ने वैद्यक सर्वस्व, सहदेव ने व्याधि सिन्धु विमर्दन, यम ने नार्णव, च्यवन ने जीवनदान, जनक ने वैद्यक सन्देह भंजन, चन्द्रमा के पुत्र बुध ने सर्वसार, जाबाल ने तंत्रसार, जाजलि ने वेदाँग सार, पैल ने निदान, करथ ने सर्वधनर, अगस्त्य ने द्वेघ निर्णयतंत्र का प्रतिपादन किया। ये सोलह तंत्र ही चिकित्साविज्ञान को प्रकाशित करने वाले एवं सभी बीज रोगों नष्ट करने वाले और बल देने वाले है। इसका विस्तृत विवेचन ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड में मिलता है।

आयुर्वेद को परिभाषित करते समय चरक ने अपने सूत्रों में आयु को चेतनानुवाद एवं जीवानुबंध का पर्याय माना है। यह आयु, शरीर, इन्द्रिय, मन, और आत्मा इन चारों का संयोग है। इन चारों का सम्यक् ज्ञान आयुर्वेद है। सुश्रुत ने इसे इस प्रकार कहा है- “आयुरनिमन विद्यतेऽनेन वायुऽऽयुर्विन्दतीत्यायुर्वेदः।” शरीर आत्मा का भोगायतन, पंच महाभूत विकारात्मक है, इन्द्रियाँ भोग का साधन हैं, मन अन्तः- कारण है, आत्मा मोक्ष या ज्ञान प्राप्त करने वाला है। इन चारों का अदृष्ट कर्मवश जो संयोग होता है, वही आयु है। इसके लिए हित-अहित, सुख-दुःख का ज्ञान तथा आयु का मान जहाँ कहीं हो उसे आयुर्वेद कहते हैं।

कश्यप के अनुसार “ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेदाथर्ववेदेभ्यः पंचमोऽयभायुर्वेदः।” वेदों में अन्यान्य देवताओं के साथ अश्विनौ भी देवता है। चरक की मान्यता है कि अश्विनौ मुख्यतः देवताओं के चिकित्सक थे। आयुर्वेद परम्परा में अश्विनौ ने प्रजापति से आयुर्वेद सीखा और अश्विनौ से इन्द्र ने सीखा। इन्द्र से यह तीन शाखाओं में विभक्त माना जाता है। सुश्रुत, चरक तथा काश्यप् ने फिर तीन संहिताओं का निर्माण किया। सुश्रुत संहिता के अनुसार धन्वंतरि तथा इनसे सुश्रुत, औपधनु, करवीर्य, वैतरण, औरभ्र, पीपकलावर्त, गोपरक्षित ओर भोज हुए। इन्होंने शल्य चिकित्सा तंत्र का विस्तार किया। चरक संहिता की मान्यता है कि भारद्वाज से आत्रेय, पुनर्वसु, अग्निवेश, जातुकर्ण, पराशर, सारपाणि, हारीत आदि नरे काय चिकित्सा को आगे बढ़ाया। काश्यप् संहिता में काश्यप्, वशिष्ठ, अत्रि, भृगु तथा इनके पुत्रों और शिष्यों द्वारा कौमार भृत्य के प्रचलन का वर्णन है।

चिकित्सा का सम्बन्ध यद्यपि आयुर्वेद से अधिक है, लेकिन अन्य वेदों में भी इस विषय के मंत्र मिलते हैं। ऋग्वेद में आपः जल औषधियों आदि का उल्लेख मिलता है। औषधियों में वनस्पतियों का पृथक्-पृथक रूप में वर्णन हुआ है। इसमें वनस्पतियों का मिश्रण नहीं मिलता, जबकि आयुर्वेद संहिताओँ में औषधियों का उपयोग मिश्रण के रूप में अधिक मिलता है। अतः कहा जा सकता है कि आयुर्वेद का प्रारंभिक ज्ञान ऋग्वेद में ऋजास्व को अश्विनौ का आँख प्रदान करना, च्यवन ऋषि का पुनः युवा होना आदि कथनों के साथ वैद्य के लक्षणों की भी विस्तृत चर्चा है।

यजुर्वेद में भी औषधियों के लिए बहुतेरे मंत्र मिलते हैं। इन मंत्रों की व्याख्या से स्पष्ट होता है कि औषधियों का उपयोग यज्ञ, कर्म तथा स्वास्थ्य के लिए विशेषतौर पर होता था। यही नहीं इसमें औषधियों से अनेक प्रकार प्रार्थनाओं का भी उल्लेख आता है यजुर्वेद के ऋषि ने औषधियों को माता की प्रतिकृति कहने के साथ ही ‘सर्वेषाँ रुग्णानाँ निष्कर्षों’ यदि कि सब रोगों को निकालने वाली कहकर प्रार्थना की है। यजुर्वेद में औषधियों के स्वरूप को बताते हुए उल्लेख है आपतन्तीरवद-न्दिवऽओषंधयस्परि। यं जीवमश्नवामहहै न स रिष्याति पूरुषः यानि कि औषधियाँ कहती हैं कि आकाश, द्युलोक से आती हुई जिस व्यक्ति के पास पहुँच जाती है, उसे किसी तरह का कष्ट नहीं होता है।

अथर्ववेद हमें आयुर्वेद का विषय विशेष विस्तार से विवेचित किया गया है। सच तो यह है कि अथर्ववेद का सम्बन्ध ही आयुर्वेद उपाँग से है। इसमें वनस्पतियों का स्पष्ट नामोल्लेख, कृमि सम्बन्धी जानकारी, शल्य चिकित्सा एवं प्रसूति विज्ञान आदि विषय मिलते हैं। अथर्ववेद का सम्बन्ध मनुष्य जीवन के साथ क्रियात्मक रूप से होने से आयुर्वेद का सम्बन्ध इसी से विशेष है। इसमें वनस्पतियों का उपयोग अलग-अलग स्वतंत्र रूप में ही मिलता है। उन दिनों इनको मिश्रित रूप में नहीं बरता जाता था। यही नहीं भिन्न-भिन्न अंगों में होने वाले रोगों के नाम भी स्पष्ट रूप में मिलते हैं। इसमें एक स्थान पर कहा गया है, ‘अथर्वणीरंगिरसी दैवीर्मनुष्यता उत। औषधयः प्रजायन्ते यदा त्वं प्राणं जिनवसी।

अर्थात् हे प्राण ! जब तक तू प्रेरणा देता है, तब तक आथर्वणी, आँगिरसी, दैवी और मानुषी औषधियाँ फल देती हैं।

वैदिक उल्लेख के अनुसार औषधियाँ प्राण सृष्टि से पहले उत्पन्न हुई। “या औषधीःपूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा।” ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मणों में भी आयुर्वेद परम्परा का विशिष्ट वर्णन मिलता है। उपनिषदों में भी आयुर्वेद के विचारों की छाया दिखती है। चरक की परिपाटी में साफ तौर पर उपनिषदों का प्रभाव है। चरक संहिता में रोग ओर पुरुष की उत्पत्ति का निर्णय करने में जितने मत या वाद बताए गए हैं वे सब उपनिषदों में मिलते हैं। इन सभी का प्रचलन बुद्ध के समय तक भी रहा। वे वाद (सम्प्रदाय) लगभग 62 थे। जैन ग्रन्थों में इनकी संख्या 363 है। वैद्यक शास्त्र में स्वभाव, ईश्वर, काल, इच्छ, नियति और परिणाम इनको स्थूल रूप में कारण मानते हैं। यही वाद चरक संहिता में स्पष्ट रूप से भिन्न-भिन्न ऋषियों के मुख से सुनने में आता है। इन्हीं सब वादारें का समावेश श्वेताश्वेतर उपनिषदों में किया गया है।

रामायण में भी आयुर्वेद सम्बन्धी उद्धरण मिलते हैं। बाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड में हनुमान जी द्वारा औषधि पर्वत लाने का उल्लेख है। इस लायी गयी ‘औषधि’ को सुषेण वैद्य ने लक्ष्मण एवं वानरों को दी थी। ‘वैद्य’ शब्द सम्भवतः रामायण में सबसे पहले आया है। इस समय शल्य चिकित्सा एवं औषधि चिकित्सा पर्याप्त उन्नति पर थी। आयुर्वेद उन दिनों आठ अंगों में विभक्त था। ये आठ अंग शल्य, शाकल्य, विषगर विरोधिक, कौमारभृत्य, भूतिवद्या, रसायन, बाजीकरण एवं काय चिकित्सा के रूप में प्रचलित थे। महाभारत के लोकपाल समाधान प्रकरण में नारद युधिष्ठिर संवाद से स्पष्ट पता चलता है कि उस समय तक ये आठों अंग पूर्णतया विकसित हो चुके थे। गीता के विभूतियोग में भगवान श्रीकृष्ण ने गंधर्वों में अपने को चित्ररथ का उल्लेख वैभ्राज शब्द आता है। इसी चित्ररथ वन का उल्लेख चरक संहिता में अत्रिपुत्र ने किया है, जहाँ पर ऋषियों ने एक साथ बैठकर रस विनिश्चय किया था।

पाणिनि व्याकरण में भी आयुर्वेद साहित्य का परिचय मिलता है। गोल्ड स्टूकर के अनुसार पाणिनि निघण्टु से पूर्ण परिचित थे। जातक में उल्लेख मिलता है कि अनेक चरणों में घूम-घूम कर ज्ञान प्राप्त करने वाला छात्र चरक कहलाता था। शिष्य तीन प्रकार के होते थे-माणव, अन्तेवासी और चरक। पाणिनि ने माणव और चरक का एक साथ भी उल्लेख किया है। (माणवचरकाम्याँखञ-5/1।11) वैशम्पायन का एक नाम चरक भी था। सम्भवतः एक से दूसरे स्थान पर जाकर ज्ञान प्राप्त करने या ज्ञान प्रचार करने के कारण उनकी यह संज्ञा थी।

बौद्धकाल में आयुर्वेद विज्ञान अपना पूर्ण विकास कर चुका था। बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर इसका विस्तृत परिचय मिलता है। ‘नावनीतकम्’ ग्रन्थ तो पूर्ण आयुर्वेद की ही रचना है। सर्द्धम पुण्डरीक के सत्ताइसवें अध्याय में औषधि परिवर्तन का सम्बन्ध आयुर्वेद से है। तीसरा मुख्य ग्रन्थ ‘विनय पिटक’ है। इसमें भिक्षुओं के आचरण संबंधी नियम हैं इसका सम्बन्ध भी मुख्यतः आयुर्वेद साहित्य से ही है। इसी के आधार पर चरक संहिता के कुछ शब्द एवं उस समय की चिकित्सा का सही परिचय मिलता है। इससे पता चलता है कि उस समय आयुर्वेद के आठों अंग पूरी तरह से अपने पूर्ण यौवन में थे। चौथा ग्रन्थ ‘मिलिन्द प्रश्न’ आयुर्वेद का परिचय कराता है। इसमें जीवक ने आयुर्वेद के उत्कर्ष का वर्ण किया है। वह उस समय का कुशल वैद्य था।

वेद, उपनिषदों एवं बौद्ध धार्मिक ग्रन्थों की तरह स्मृतियों में भी आयुर्वेद की गौरवपूर्ण परम्परा का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति में उद्भिजों का भेद, औषधि, वनस्पति, वृक्ष एवं वल्लीद के रूप में किया गया है। मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम के लिए आचार वर्णित है, वही तथा उससे मिलता-जुलता वर्णन आयुर्वेद की वृहत्रयी संहिता में आता है। विष्णु स्मृति के अध्याय 60, 61, 63 और 64 में दी हुई स्वास्थ्य सम्बन्धी सूचनाएँ ‘अष्टाँग संग्रह’ में दिए गए विवरण से मेल खाती है। याज्ञवल्क्य स्मृति में आयुर्वेद विषय तथा चरक संहिता में से बतायी गयी अस्थि गणना का उल्लेख है। चरक संहिता में अस्थि गणना तीन सौ साठ ही कही गयी है।नारदीय स्मृति में भी शल्य चिकित्सा का उदाहरण सन्निहित है। बोधायन स्मृति जो काफी बाद की मानी जाती है, इसमें चक्रचर का एक अन्य भेद भी बताया है, जो कि उपनिषद् के ‘चरक’ संज्ञा वाले ऋषियों की ओर संकेत करता है।

ये स्मृतियाँ कालक्रम की दृष्टि से प्रागैतिहासिक काल एवं ऐतिहासिक काल के मध्य से ही हैं। आयुर्वेद की वैदिक परम्परा इन्हीं से गुजरकर मौर्यकाल में प्रवेश करती हैं मौर्यकाल 363-211 ई॰ पूर्व माना जाता है । उस समय उत्तरी भारत में मगध और कलिंग दो राज्य थे। इन दोनों राज्यों में आयुर्वेद प्रचलित था। मैगस्थनीज ने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में चंद्रगुप्त के राज्यकाल के आयुर्वेद व भारतीय चिकित्सकों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि वे अपने आयुर्वेद ज्ञान के बल पर निःसन्तानों को संतान उत्पन्न करा सकते थे तथा दवाइयों द्वारा इच्छानुसार नर या मादा बच्चे पैदा करा सकते थे।

इस काल के एक महत्वपूर्ण ग्रंथ चाणक्यकृत ‘अर्थशास्त्र’ की भाषा और शैली चरक से मिलती है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार से चरक संहिता में भिन्न-भिन्न आचार्यों के मत दिखाकर अन्त में आत्रेय ने अपना मत प्रस्थापित किया है, उसी प्रकार इसमें भी है। यही नहीं सुश्रुत संहिता और कौटिल्य की तंत्र युक्तियाँ समान है। इसके निशान्त प्रविधि तथा आत्मरक्षा का प्रकरण आयुर्वेद में बहुत अधिक मिलते हैं। चन्द्रगुप्त के पश्चात् मौर्यवंश का दूसरा प्रतापी राजा अशोक था। इसने भी आयुर्वेद पर विशेष कार्य किया। जहाँ पर औषधियों के पौधे नहीं थे, वहाँ पर दूसरे स्थानों से पौधे मँगवाकर लगवाए। शिलालेख के अनुसार अशोक ने मनुष्य और पशुओं दोनों की चिकित्सा का प्रबन्ध सारे देश में किया। इसी प्रकार उसने दक्षिण के पड़ोसी राज्यों चोलों, पाँड्य, शालिपुत्रों, केलपुत्रों और ताम्रपर्णी तथा यवन राज्यों में भी आयुर्वेद का ज्ञान फैलाया।

मौर्यकाल के बाद कृष्णकाल 290 ई॰ पूर्व से 176 ई॰ तक रहा। कनिष्क इस काल का सबसे प्रतापी राजा था। चरक परम्परा के ही एक महामनस्वी के इनके राजवैद्य होने का उल्लेख मिलता है। इन्होंने ही सिंधु जनपद, सौवीर, सौराष्ट्र, वाहलीक आदि राज्यों में चरक संहिता का प्रचलन किया। इस काल में प्रचलित चरक संहिता के दार्शनिक सिद्धान्तों पर श्री सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलॉसफी’ के भाग 1 व 2 में प्रकाश डाला है। उनके अनुसार चरक का दर्शन किसी एक दर्शन के ऊपर नहीं हैं साँख्य, योग, न्याय और वैशेषिक इन सबका स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है।

चरक मौलिक साँख्यों के चौबीस तत्वों को मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अनात्मवाद, दक्षिण विचार तथा निर्हेतुक विनाश इसमें परिलक्षित होते हैं। वैशेषिक दर्शन में आत्मा का लक्षण चरक संहिता में वर्णित आत्मा के लक्षणों का पूर्णतः अनुकरण ही हैं मन का लक्षण तथा उसका अस्तित्व न्यायदर्शन में चरक के अनुसार ही है। न्यायदर्शन की भाँति ईश्वर की पृथक् सत्ता चरक में नहीं है।

176 से 340 ईसवी के नागवंश में सुश्रुत संहिता में उपदेष्टा काशिराज धन्वन्तरि हैं श्रोता रूप में सुश्रुत औपधेनव वैतरणी, औरभ्र, पौपकलावत, करवीर्य, गोपुरक्षित आदि है। इसमें शल्य विषय ही प्रधान है। धन्वन्तरि एक सम्प्रदाय है, जो शल्य शास्त्र को इंगित करता है। इस सुश्रुत के प्रतिसंस्कर्ता, डल्हण के अनुसार नागार्जुन है। नागार्जुन कई हुए है। अंतिम नागार्जुन राजा सातवाहन के मित्र थे। चरक संहिता का भौगोलिक क्षेत्र मुख्यतः भारत का पश्चिमोत्तर प्रान्त है। सुश्रुत का परिचय लगभग सार भारत से है। इसका सम्बन्ध पूर्व में कलिंग देश, उत्तर में काश्मीर नाम उत्तर कुय से हैं इसमें हिमालय पहाड़ की चोटी, सहृद्रि, महेन्द्र पर्वत, मलयाचल, श्रीपर्वत, देवगिरि, सिन्धु नदी का नाम विशेष रूप से वर्णित है। सुश्रुत के समय तक उत्तर भारत का सम्बन्ध दक्षिण से अच्छी प्रकार हो गया था। लोगों का परस्पर आवागमन व्यापार था। इसलिए इसमें देश की हर जगह की औषधि का उल्लेख प्रमाण सहित स्पष्ट रूप से मिलता है।

कश्यप संहिता में भी चरक, सुश्रुत के समान परम्परा हैं जिस प्रकार चरक संहिता के मूल उपदेशक पुनर्वसु आत्रेय हैं, उसी प्रकार कश्यप संहिता के उपदेष्टा मारीच काश्यप है। ऋचीक के पुत्र जीवक ने काश्यप के बनाए तंत्र का संक्षेप किया है। बाद में यह तंत्र नष्ट हो गया था। जीवक के वंशज वात्स्य ने इसका प्रतिसंस्कार किया। आयुर्वेद की यह काश्यप परम्परा कुरुक्षेत्र, कुरु, नैमिषारण्य, पाँचोल, माणीचर, कौशल, हाराोतपाद, चर, शूरसेन, मत्स्य, दशार्ण, शिशिराद्रि, सारस्वत, सिन्धु, सौवीर, विपाद, काश्मीर, अपरचीन, खश, बाहीक, दासेरक, रामण आदि राज्यों में प्रचलित थी।

समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल स्वर्णयुग के नाम से भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। यह समय केवल शासन एवं समृद्धि की दृष्टि से ही स्वर्णयुगीन नहीं था, बल्कि आयुर्वेद की उन्नति भी इस काल में पराकाष्ठा पर थी। इसी समय प्रसिद्ध आयुर्वेद शास्त्र ‘अष्टाँग संग्रह’ की रचना वागभट्ट ने की थी। चरक एवं सुश्रुत के बाद यही प्रामाणिक संहिता है। अष्टाँग हृदय इसी का संक्षिप्त रूप है। गुप्तकाल का आयुर्वेद ग्रंथ ‘नावनीतकम्’ भी प्रसिद्ध है। इसकी रचना चतुर्थ शती के लगभग मानी जाती है। इसमें आत्रेय, सारपाणि, जतुकर्ण, पराशर, भेल, हारीत तथा सुश्रुत का उल्लेख है। योग संग्रह सम्बन्धी ग्रंथों का यही से आरम्भ होता है। वात्स्यायन कृत कामशास्त्र तथा अन्य ग्रंथ अनंगरोग, पंचसायक, कुचमारतन्त्र में भी आयुर्वेद का वर्णन मिलता है। इसी काल में प्रतिपादित वराहमिहिर की वृहत संहिता यद्यपि ज्योतिष शास्त्र का ग्रन्थ है। इसके बावजूद इसमें आयुर्वेद सम्बन्धी कई विषय जैसे वज्रलेप, पटराग आदि का उल्लेख है।

उत्तरगुप्त साम्राज्य का समय 455-696 ई॰ हैं इस काल में बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थ हर्षचरित में हर्ष का और अपना वर्णन करने के साथ आयुर्वेद सम्बन्धी कुछ प्रसंग दिए हैं। यही नहीं बाणभट्ट ने कादम्बरी में पारे से सोना बनाने, पारे के सेवन, असुर विवर प्रदेश और श्री पर्वत का वर्णन किया है। प्रभाकर वर्धन की चिकित्सा पौनर्वसु में, रसायन नामक अठारह वर्ष के वैद्य आयुर्वेद के आठों अंगों में निपुण थे। इन्होंने आयुर्वेद की परम्परा का अच्छा प्रसार किया था। आयुर्वेद साहित्य पर प्रकाश डालते हुए गौरीशंकर रीराचन्द्र जी ओझा ने लिखा है कि इसी समय इन्दुकर के पुत्र माधवकर ने रुगविनिश्चय या माधवनिदान नामक एक उत्कृष्ट ग्रंथ लिखा। इसमें रोगों के निदान आदि पर बहुत विस्तार से विचार किया गया। चक्रपाणि दत्त के चिकित्सा संग्रह, शंकरधर की शंकरधर संहिता में आयुर्वेद परम्परा की विस्तृत विवेचना हुई है। अरबी के लेखों में बहला, मनका, बाजीगर, फलवर फल, सिन्दबाद आदि का उद्धरण मिलता है। ये सभी आयुर्वेदाचार्य थे। इनको याहिया बिन खालिद बरमकी ने भारत से बगदाद बुलाया था।

पाल और सेनवंशी राजाओं के समय में भी बंगाल में वैद्यक शास्त्र के नए-नए ग्रन्थ बने। चक्रपाणि दत्त, मदनपाल, बंगसेन आदि प्रसिद्ध ग्रन्थकार इन्हीं वंशों के शासनकाल में हुए और राज्यशासन के सहयोग से आयुर्वेद साहित्य व परम्परा की श्रीवृद्धि कर सके। इनमें सबसे प्रथम चक्रपाणि दत्त हुए हैं, जो वैद्य कोष, आयुर्वेद दीपिका नामक चरक की टीका, भानुमती नामक सुश्रुत टीका, त्यग्दरिद्रशुभंकरणाम्, चिकित्सा संग्रह, द्रव्यगुण संग्रह, सार संग्रह आदि वैद्यक शास्त्र की रचना की। चरक की प्रांजल विशद व टीका के कारण इनको चरक चतुरानन कहा जाता है।

इन ग्रंथों के प्रकाश में आने तक भारत में मुगलकाल की स्थापना हो चुकी थी। इस दौरान आयुर्वेद का प्रचार काफी मन्द पड़ गया। हालाँकि इस समय निघण्टु और रसशास्त्र का विकास भली प्रकार हुआ। इन दोनों विषयों पर स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थ रचनाएँ भी हुई। नाड़ी विज्ञान का प्रारम्भ भी इसी समय की विशेषता है। मुगलकाल में रसौषधियों तथा बाजीकरण की परम्परा चल पड़ी थी। शासकों, बादशाहों की विलासप्रियता उन दिनों बाजीकरण एवं पौरुष वृद्धि करने वाले रसायनों तक सिमट कर रह गयी थी। यद्यपि अकबर ने आयुर्वेद के अन्य अंगों के विकास में काफी रुचि दर्शायी थी। उसने कासिम खाँ को थल सेनापति इसीलिए बनाया कि फूल-पत्तों, जड़ी-बूटियों की उन्नति हो सके। इस काल की आयुर्वेद चिकित्सा का उल्लेख लेखक व चिकित्सक निकोलियों मैन्यूसी ने अपनी पुस्तक ‘मुगल इण्डिया’ में विस्तार से किया हैं सत्रहवीं शताब्दी के कोलिम्ब राजवैद्य तथा अठारहवीं शती के प्रसिद्ध ग्रंथ योगरत्नाकर इसका और अधिक खुलासा करते हैं।

आयुर्वेद के प्रचलन एवं परम्पराओं की जानकारी 13 वीं शती में डलहणचार्य, शंकरधर, 14 वीं शताब्दी के वाग्भट्ट चतुर्थ, वाचस्पति वैद्य, विश्वनाथ कविराज, नरहरी पण्डित, जयदेव कविराज, 15 वीं शताब्दी के माधवाचार्य, रुद्रधर भट्ट, चिन्तामणि शास्त्री, 16 वीं शताब्दी के भावमिश्र, टोडरमल, रामचन्द्र दास गुह, 17 वीं शताब्दी में विमल भट्ट, रामाणिक्य सेन, 18 वीं शताब्दी में विद्यापति, राजवल्लभ, देवदत्त, 11वीं शताब्दी में गंगाधर कविराज, धनपति तथा नारायणदास वैद्य ने विस्तार से दी है। यही नहीं इन सबने अपने-अपने समय में आयुर्वेद की परम्परा को प्रचलन में लाने, गौरवशाली बनाने में अपना सर्वस्व होम दिया। साथ ही अनेक ग्रन्थों की रचना की।

दक्षिण भारत में संस्कृति का विस्तार करने वाले अगस्त्य ऋषि माने जाते हैं। वही हिमालय की दुर्लभ आयुर्वेद परम्परा को वहाँ ले गए। उन्होंने चुलस्त्य को और उसने तेरायर को आयुर्वेद का ज्ञान दिया। बाद में उससे अठारह या बाईस सिद्धों को वैद्यक विद्या प्राप्त हुई। इस परम्परा में अगस्त्य के उपदेशक धन्वन्तरि हैं, जो कि उत्तर भारत की परम्परा से मेल खाती है। दुर्गाशंकर केवलराम शास्त्री के आयुर्वेद साहित्य के अनुसार केरल में अष्टवैद्य नाम से प्रसिद्ध आठ वैद्य कुटुम्ब हैं। इनके मूलपुरुष परशुरामजी से अष्टाँग आयुर्वेद के एक-एक अंग में पारंगत हुए थे। इसके पश्चात् भदन्त नागार्जुन द्वारा लिखित रस वैशेषिक सूत्र तथा नरसिंह कृत भाष्य केरल में प्रसिद्ध हुआ। कर्नाटक में आयुर्वेद के प्रणेता थे-जैन आचार्य पूज्यपाद। केरल में आयुर्वेद की स्थिति 400 ई॰ में उत्कर्ष में थी। आन्ध्रप्रदेश के वैद्य, चिन्तामणि और वसवराजीयम नाम के दो संस्कृत ग्रन्थों का मुख्यतः उपयोग करते हैं। इनकी चिकित्सा में चूर्ण, गुटिका, अवलेह आदि के साथ रसयोग भी है। दक्षिण भारत की आर्युद परम्परा का उल्लेख पं0 डी0 गोपालाचार्लु ने अपने आयुर्वेद सूत्र में विशेष रूप से किया है।

आयुर्वेद में रसशास्त्र के आद्यकर्ता नागार्जुन चौरासी महासिद्धों में से एक थे। 11 वीं शताब्दी में भारत आए अलबरूनी ने इसका उल्लेख खासतौर पर किया है। इस विद्या के पारंगत थे- नाथ सम्प्रदाय के मत्स्येनद्रानि एवं गोरखनाथ। अनेक नाथ पंथियों के लिए रस ग्रंथ आज भी वैद्यों में प्रचलित है। सिद्ध नागार्जुन का नागार्जुन तंत्र,

नित्यानाथ का रस रत्नाकर, रसरत्नमाला आदि का इस संदर्भ में विशेष महत्व है। गोरखनाथ को रसायन विद्या का आविष्कारक कहा जाता है। रसतंत्र का विकास आठवीं सदी से प्रारम्भ हुआ और 11-12 वीं सदी में अपनी पूर्णता को प्राप्त हुआ।

आयुर्वेद में द्रव्य, रस, वीर्य, विपाक और प्रभाव पर ही समस्त चिकित्सा प्रणाली टिकी हुई है। ये तत्व ही भारतीय चिकित्सा शास्त्र की रीढ़ है। इसका वर्णन चरक एवं सुश्रुत दोनों ने किया है। आहार विधि को आयुर्वेद के ग्रन्थों ने बहुत महत्व दिया है। इसकी उपमा पवित्र होमविधि से की है। अलग-अलग क्षेत्रों व देशों के जलवायु के अनुकूल ही यह नियमावली मिलती है।

आयुर्वेद की यह पुरातन परम्परा ब्रह्मा से इन्द्र तक तथा बाद में चरक, सुश्रुत व काश्यप् में एक समान है।इन्द्र से इसकी पृथक् शाखाएँ निकलती है। धन्वन्तरि ने इंद्र से सम्पूर्ण आयुर्वेद सीखा, परन्तु उपदेश केवल शल्य अंग का किया है। धन्वंतरि ने अपना उपदेश सुश्रुत को सम्बोधन करके दिया हैं इसी से इसका नाम सुरुत संहिता हो गया। दिवोदास उपदेष्टा और सुश्रुत श्रोता यही दो व्यक्ति इस ग्रंथ की पृष्ठभूमि हैं। इन्द्र से काश्यप्, वशिष्ठ, अत्रि और भृगु ने आयुर्वेद सीखा। इस संहिता के कर्ता काश्यप् है। यह ग्रन्थ जब कालप्रवाह में लुप्त हो गया तब जीवक के संशात्पन्न वात्स्य ने अनायास ही यह संहिता प्राप्त की थी। एक अन्य शाखा में चरक संहिता विनिर्मित हुई ।

ऋषिप्रणीत आयुर्वेद को शाश्वत व नित्य कहा जाता है। यह अनादि होने से, स्वभाव से, सिद्ध लक्षणों के कारण और पदार्थों के स्वभाव के नित्य होने से आयुर्वेद भी नित्य है। इस दृष्टि से यह ज्ञान भारत में विकसित हुआ और देश-देशान्तरों में प्रचलित-प्रचलित हुआ। ग्रीक के वैद्य हिप्पोक्रेट्स भारतीय आयुर्वेद के प्रशंसक थे। इसी तरह मिश्र, ईरान, बेबीलोनिया, तिब्बत, चीन तथा वर्मा में आयुर्वेद की परम्पराएँ अपनी झलक दिखाती हैं।

अँग्रेजों के शासनकाल में आधुनिक चिकित्साशास्त्र के ज्ञान के लिए 1835 ई॰ में बंगाल में मेडिकल कॉलेज खोला गया। आयुर्वेद के अध्यापन के साथ आधुनिक विज्ञान का संसर्ग तथा आयुर्वेद ग्रन्थों का प्रथम प्रकाश इसी समय हुआ। इस काल में आधुनिक अँग्रेजी शिक्षा का समावेश हुआ। यह बात मेघदूत की मल्लिका नाथ की टीका तथा प्रोफेसर काले की टीका से स्पष्ट होती है प्राचीन चिकित्सा की व्याख्याएँ या टीकाएँ पूर्णतया शास्त्रीय होती थीं। इसके विपरीत आधुनिक आयुर्वेद की व्याख्या सरल तथा प्रकरण से सम्बन्धित होती थी। इस काल में आधुनिक चिकित्सा शास्त्र के बावजूद आयुर्वेद प्रसिद्ध एवं प्रचलित रहा। इसका प्रमाण है-श्री यादव जी की, त्रिकम जी की ‘सिद्धयोग संग्रह’ का प्रसिद्ध होना। योग नुस्खा, रसतंत्रसार की भी अधिक खपत हुई । आधुनिक काल में माधव उपाध्याय, योगानन्दनाथ, जयराम, श्रीनाथ, शंभुनाथ, आनन्दराय माखी, वेंकट कृष्णराव, मोरेश्वर भट्ट आदि आयुर्वेद ग्रन्थों के रचनाकार एवं वैद्यों ने काफी प्रचार-प्रसार किया।

बंगाल के कविराज गंगाधर ने आयुर्वेद का गहन अनुसंधान किया। इनकी शिष्य परम्परा बहुत लम्बी है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध आयुर्वेद कॉलेज के प्राध्यापकों ने अपनी स्थापना के बाद से आयुर्वेद के क्षेत्र में काफी काम किया है। इसी क्रम में 1902 में हरिद्वार में गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना हुई थी। देश को स्वाधीनता मिलने के साथ आयुर्वेद कॉलेजों की स्थापना होने लगी। परन्तु अँग्रेजियत के प्रभाव के कारण उसकी गरिमा का वांछित विस्तार न हो सका। यद्यपि आज भारत में लगभग 97 आयुर्वेद कालेज, 76 फार्मेसियाँ तथा 624 के आस-पास इसकी लघु इकाइयाँ है। आयुर्वेद फार्मेसी की अपनी 500 शाखाएं हैं।

स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् पं0 नेहरू जी के समय भारत सरकार ने आयुर्वेद की स्थिति जाँचने के लिए 29 जुलाई, 1959 में एक कमेटी डॉक्टर के0 एन॰ उडूप्पा की अध्यक्षता में बनाई थी। इस कमेटी ने सम्पूर्ण भारत का परिभ्रमण करके आयुर्वेद संस्थाओं, फार्मेसियों और राज्यों में आयुर्वेद की स्थिति का निरीक्षण कर अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को दी थी। इसके पहले भी समय-समय पर अन्य कमेटियाँ बैठाई गयी थी। सबसे प्रथम 1945 ई॰ में भारे कमेटी, 1946 ई॰ चोपड़ा कमेटी, पण्डित कमेटी, 1955 में दवे कमेटी का गठन किया गया था।

विभिन्न कमेटियों द्वारा अपनी रिपोर्ट जरूर प्रस्तुत की गयीं, परन्तु उनके वाँछित फलितार्थ नहीं प्राप्त हो सके। अभी कुछ ही समय पहले स्वाधीन भारत देश ने अपनी स्वाधीनता की स्वर्ण-जयन्ती मनायी है। जो इस बात की घोषणा है कि हमने स्वाधीनता के पचास वर्ष पूरे कर लिए। परन्तु हम अभी भी विदेशी चिकित्साप्रणाली के पराधीन हैं। इन पचास सालों के अन्तराल में अपने पूर्व पुरुषों से वसीयत के रूप में मिली आयुर्वेद को परम्परा को गौरवपूर्ण ढंग से नहीं विकसित कर सके। यह असफलता सिर्फ चिकित्सीय असफलता होने तक सीमित नहीं है। इसे राष्ट्रीय व साँस्कृतिक असफलता के रूप में भी आँकना होगा।

शान्तिकुँज के संचालकों ने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया है और स्वाधीनता के स्वर्णजयंती पर्व के तीन दिनों बाद 18 अगस्त, 1917 श्रावणी पर्व पर आयुर्वेद संरक्षण एवं पर्यावरण संवर्द्धन के रूप में विशिष्ट सम्मेलन आयोजित किया। जिसमें आए युगनिर्माण मिशन के कर्मठ परिजनों ने समवेत स्वरों में संकल्प किया कि आयुर्वेद की चिरपुरातन गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित करेंगे। स्थान-स्थान पर जड़ी-बूटी उद्यान लगाने, घरेलू उपचार पद्धति को पुनर्जीवित करने के साथ ही आयुर्वेद को प्रचारित करने का निश्चय किया गया है। शान्तिकुँज का केन्द्रीय तन्त्र इस क्रम में अपने यहाँ आयोजित एकमासीय शिविरों में जड़ी-बूटियों के विशेष प्रशिक्षण के साथ ही आयुर्वेद की पुरातन परम्परा से परिचित कराएगा। इस पुरातन परम्परा का संवर्द्धन न केवल अपने राष्ट्र के नागरिकों एवं विश्व-परिवार के स्वजनों का स्वास्थ्य-संवर्द्धन करेगा, बल्कि उनमें साँस्कृतिक गौरव का भी बोध कराएगा।


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