विचार-कण

June 1953

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(श्री मुरलीधर दिनोदिया, बी.ए., एल.एल.बी.)

-एक आदमी चींटियों को दलिया डालने नित्य जंगल में जाता है, उसके पड़ौसी का लड़का बीमार पड़ा है लेकिन उसका हाल चाल पूछने वह कभी नहीं जाता।

-एक आदमी नित्य स्नान करता और साफ-सुन्दर कपड़े पहनता है। लेकिन वह जहाँ तहाँ थूक देता है और पान की पीक से दीवारों को रंगता रहता है।

-एक आदमी सैकड़ों वर्ष पुरानी कब्र पर मत्था टिकाता है, फूलों का हार चढ़ाता है। लेकिन वह अपने बूढ़े माता-पिता को बात-बात पर झिड़क देता है।

-एक महिला नित्य घण्टों कथा कीर्तन में गाती है। परन्तु वह अपनी अंधी बूढ़ी सास का हाथ पकड़कर उसे पखाने तक नहीं छोड़ सकती।

-रेल गाड़ी चलते समय अंदर बैठे हुए यात्री आपके साथ जो व्यवहार करते हैं, ठीक वही व्यवहार आप अंदर बैठते ही पीछे आने वालों के साथ करते हैं। अंदर आने वाले यात्री आपको मानवता से गिरे हुए लगते थे, पर भीतर जाते ही क्षण मात्र में आप भी वैसे ही बन जाते हैं।

-श्रीमान् जी ने जंगल में प्याऊ लगाई है पर तपती दुपहरी में कोई राह चलता घर के दरवाजे पर आकर पानी माँगता है तो उसे दूसरा घर बताते हैं।

-सीताजी, रुक्मणी जी, पार्वतीजी आदि की मूर्तियों को नित्य सिर झुकाने वाला व्यक्ति बस से यात्रा करते हुए, स्त्रियाँ बैठी होने पर गंदे अश्लील शब्दों को जोर-जोर से बोलते हुए तनिक नहीं संकुचता।

-महाशय जी औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता के लिये उसे भर पेट कोसते रहते हैं लेकिन मित्रों में कट्टर सुधारवादी कहलाने के प्रलोभन में अपने घर में ही छोटे-मोटे औरंगजेब स्वयं बने हुए हैं। अपनी माताजी एवं पत्नी को मूर्ति पूजा आदि नहीं करने देते हैं। वे बेचारी अशिक्षित पुराने विचारों की हैं और उनके ऊपर लादी गई इस विवशता के कारण उनका जीवन विषाद मय बना हुआ है। नतीजा सारे घर का वातावरण ही सदा अप्रिय बन रहता है।

-आप शायद सिनेमा देखते होंगे। पैसे खर्च कर सिनेमा भवन के दूषित वातावरण में घण्टों बैठ सकते हैं, पर यदि स्वाध्याय के लिए, चाहे आधा घण्टे के लिए ही, आपको कहा जाये तो सम्भवतः आपका उत्तर होगा “समय नहीं मिलता”।

-यह कैसी विडम्बना है। मैं सोचता हूँ- काश, मनुष्य कुछ अधिक विचारवान् हुआ होता!

वर्ष-13 संपादक-श्रीराम शर्मा, आचार्य अंक-6


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