मानसिक स्वास्थ्य की आवश्यकता

June 1953

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(श्री वीरनरायण दलेला, एम. ए.)

आज के युग ने मनुष्य को निराशावादी बना दिया है। गम्भीरता, एकाग्रता तथा हृदयता आदि गुण कोसों दूर जा पड़े हैं और उनका स्थान भावुकता, छोटी छोटी बात पर उत्तेजना और उदर-पूर्ति की चिन्ता ने ग्रहण कर लिया है। आज का मानव जीवन ईश्वर का वरदान नहीं प्रत्युत अभिशाप प्रतीत होता है। इसका कारण मुख्यतः मानसिक स्वास्थ्य का अभाव है।

हमारे पंच तत्वों द्वारा निर्मित शरीर में मन का स्थान प्रधान है, शरीर का गौण, क्योंकि मन चेतन है, शरीर जड़। गीता में भी चैतन्य को ही प्रधान माना है। मानसिक स्वास्थ्य पर ही अधिक सीमा तक शारीरिक स्वास्थ्य निर्भर है। स्वर्गीय महात्मा गाँधी जी ने अपनी पुस्तक “निरोग साधन” में लिखा है- “पाश्चात्य देशों में इस मत का एक पंथ ही है कि जिसका मन शुद्ध होता है उसके शरीर में रोग होते ही नहीं, और हुए भी, तो वह शुद्ध मन के जोर से अपना शरीर निरोग कर सकता है। सार यह है कि आरोग्य का दृढ़ साधन हमारा मन ही है, मन की शुद्धि से ही आरोग्य प्राप्त होता है।”

वर्तमान मनोवैज्ञानिक भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। इसी सिद्धाँत पर उन्होंने चिकित्सा की एक नवीन प्रणाली भी निकाली है जिसे हम “मनोवैज्ञानिक चिकित्सा” के नाम से पुकारते हैं। इस चिकित्सा द्वारा, देश और विदेशों के अनेक भागों में आधुनिक युग में, अनेक प्रसिद्ध चिकित्सक जनता को आरोग्य लाभ करा रहे है। सिद्धाँत है भी उचित। क्योंकि मन विचारों की उत्पत्ति का स्थान है, प्रत्येक भले बुरे विचार का प्रभाव हमारे शरीर के प्रत्येक अवयव पर पड़ता है। जब तक हमारा मन संतुलित है और पड़वत्रडडडडडड एवं सुचारु रूप से कार्य करता है, तब तक शरीर की किसी भी क्रिया में दोष नहीं आता, शरीर पूर्ण स्वस्थ रहता है, फिर हम किसी भी असफलता से व्यथित होकर किंकर्तव्य विमूढ़ नहीं हो सकते, प्रत्युत हम खड़े रहते हैं इनके बीच अचल हिमालय की तरह मुस्कराते हुए।

मन की प्रधानता बताते हुए बुद्ध भगवान ने कहा है “इस समय हम जो कुछ भी हैं, उसके निर्माण कर्ता हमारे विचार हैं। यदि मनुष्य के मन में पवित्र विचार हैं तो सुख परछांई की तरह उसके पीछे चलता है”। एक दूसरे विद्वान का कथन है-”कार्य विचार का फूल है, और सुख दुख उसके फल हैं। मनुष्य जिस प्रकार की खेती करता है उसी प्रकार के मीठे और कडुए फल पीता है।

मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त करने का एकमात्र साधन है मन पर अधिकार प्राप्त करना एवं उसे शक्तिशाली बनाना। पौष्टिक भोजन एवं औषधियों से नहीं किंतु पड़वत्रडडडडडड एवं उच्च विचारों से मन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।

जिस प्रकार वैद्य औषधि देने के पूर्व, रोग का पता लगाने के लिए रोगी की नाड़ी की परीक्षा करता है, उसी प्रकार हमें मानसिक रोगों का पता लगाने के लिए आत्म परीक्षण करना चाहिए। तदुपरान्त उचित संकेत रूपी औषधि लेनी पड़ेगी। जैसे यदि कोई मनुष्य रोगी है तो उसे यह आत्म संकेत लेना उचित होगा- “मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, मैं पूर्ण निरोगी हूँ, मेरे मन एवं शरीर का प्रत्येक अवयव पूर्ण स्वस्थ एवं शाँतिशील है और सुचारु रूप से कार्य कर रहा है।” मन की चंचलता पर अधिकार प्राप्त करने के लिये यह आत्म संकेत उचित हो सकता है- “मैं मन का गुलाम नहीं, मन मेरा गुलाम है अतः इसे मेरी आज्ञा को मानना पड़ेगा।” कहने का अभिप्राय यह है कि मन एवं शरीर के जिस विकार को ठीक करना है, उसके विरोधात्मक आत्म-संकेतों का लगातार इतना मनन करना चाहिए कि उसे यह आभास होने लगे कि जैसा वह आत्म संकेतों द्वारा कर रहा है, वैसा ही वास्तव में वह है। कुछ ही दिनों में आश्चर्यजनक सफलता प्रतीत होगी। यह बात केवल कल्पित ही नहीं है प्रत्युत हमें इसके अनेकों उदाहरण देखने को मिलेंगे। संसार के प्रायः सभी महापुरुषों ने मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त करके ही अपने जीवन का निर्माण किया था।

मनोविकारों पर विजय प्राप्त करना एक अतिदुष्कर कार्य है, परन्तु सफलता पर विजेता को सर्वत्र ही सुख का सागर लहराता हुआ दृष्टिगोचर होगा। मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त करने का सबसे सुगम उपाय है कि दैनिक जीवन के छोटे से छोटे कार्य जैसे कपड़े पहनना, पुस्तकें यथास्थान रखना, वार्तालाप करना इत्यादि में भी सावधानी प्रदर्शित करें। आज हमारे सम्मुख सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सभी प्रकार की गहन समस्याएं उपस्थित हैं जिन्हें उत्तम और स्वस्थ विचार ही सुलझा सकते हैं।


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