भाग्य और पुरुषार्थ

June 1953

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(श्री कृष्ण मुरारी महारिया, बाँदा)

भाग्य हमारे कर्मों का फल है, कोई ईश्वर इच्छित वस्तु नहीं। हम नित्यप्रति कुछ न कुछ किया करते हैं और उसका परिणाम भी हमें मिला करता है। बस, यही परिणाम हमारा भाग्य होता है। जैसे यदि कोई नटखट बच्चा चारपाई आदि पर चढ़ कुछ शैतानी करने लगे और गिर पड़े तो उसे कुछ न कुछ चोट अवश्य ही आवेगी। इस घटना पर यह कहा जा सकता है कि चोट उसके भाग्य में बदी थी। परन्तु यदि इस चोट के अनुकूल कार्य न किया गया होता तो बच्चे को चोट भी न आती। अतः चोट लगनी ही थी यह बात अनुचित है अर्थात् भाग्य को मनुष्य स्वयं ही बनाता है, ईश्वर नहीं।

ठीक इसी प्रकार यदि एक विद्यार्थी परीक्षा के लिए कठिन परिश्रम करता है तो अवश्य उत्तीर्ण होगा, परन्तु यदि वही विद्यार्थी परिश्रम बिल्कुल नहीं करता तो उसका उत्तीर्ण होना असम्भव है। यहाँ पर हम देखते हैं कि एक ही विद्यार्थी उत्तीर्ण भी हो सकता है और अनुत्तीर्ण भी। इस विषय पर कोई भी निश्चित रूप से यह नहीं बता सकता कि वह उत्तीर्ण होगा अथवा अनुत्तीर्ण। इसका केवल यही कारण है कि विद्यार्थी जैसा चाहे वैसा ही होगा।

आगे हम यह भी देखते हैं कि ईश्वर ने मनुष्य को कोई भी व्यर्थ की वस्तु नहीं दी है। किसी न किसी रूप में प्रत्येक वस्तु का उपयोग मनुष्य द्वारा होता ही रहता है। ईश्वर ने मनुष्य को मस्तिष्क इसलिए दिया है कि वह अपने प्रयत्न और पुरुषार्थ द्वारा अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करे, यदि सब कुछ पूर्व निर्धारित ही होता तो मस्तिष्क बुद्धि और चेतना की क्या आवश्यकता थी। फिर उसकी विचार शक्ति, क्रियाशीलता और पुरुषार्थ की आवश्यकता और उपयोगिता ही क्या रह जाती?

इसके बाद हमें यह भी दिखाई देता है कि कोई दुखी है कोई सुखी, कोई धनवान है, कोई दरिद्र और कोई बुद्धिमान है कोई मूर्ख। यदि यह कहा जाय कि यह भी ईश्वर की देन है या ईश्वर ने किसी के भाग्य में ऐसा ही लिख दिया था तो यह सरासर मूर्खता होगी। ईश्वर तो सच्चा न्यायी है, वह ऐसा अन्याय कर ही नहीं सकता। ईश्वर तो न्यायपूर्वक सभी को एक दृष्टि से देखता है। वह न किसी को नीचा समझता है और न ऊँचा। वह सभी को एक सा चाहता है और सभी को बराबर देता है।

यह प्रश्न उठ सकता है कि जब ईश्वर सभी को बराबर शक्तियाँ और सम्पत्तियाँ देता है तो कोई साधन-सम्पन्न और कोई साधन-हीन क्यों दिखाई देता है? हमें जानना चाहिए कि ईश्वर तो सबको बराबर शक्तियाँ और संपत्तियां देकर भेजता है परन्तु कोई उनका सदुपयोग करता है। कोई उपयोग करता ही नहीं और कोई उनका दुरुपयोग करता है। इस समय एक सीधे सिद्धाँत द्वारा सदुपयोग करने वाला उन्नति करता है, दुरुपयोग करने वाला अवनति करता है और जो उपयोग करता ही नहीं उसकी शक्तियाँ तथा संपत्तियां बेकार हो जाती हैं। यहाँ भी मनुष्य ही अपने भाग्य का विधाता दीखता है।

तुलसीदास जी ने अपनी रामचरित मानस में लिखा है ‘होइ है सोइ जो राम रचि राखा”। इसी प्रकार अन्य विद्वान भी भाग्य को ईश्वर के आधीन बतलाते हैं तो क्यों? ऐसा सन्देह करने से भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। तुलसीदास जी या अन्य विद्वानों का भाग्य को ईश्वराधीन बताने के दो कारण हो सकते हैं-पहला यह कि मनुष्य कर्म के फल को ईश्वराधीन समझे और कर्त्तव्य को अपने आधीन। इस प्रकार मानकर चलने से मनुष्य का मन फल की ओर आकर्षित होता है और वह अपने कार्य को अधिक सरलता एवं पूर्णता से कर सकता है। दूसरा कारण यह हो सकता है कि यदि किसी मनुष्य को कर्तव्य करते हुए भी कुछ कारणों से असफलता प्राप्त हो तो वह यह जानकर अपना धैर्य न छोड़े कि ऐसा होना ही था, और पुनः उसी कार्य को करे। इस प्रकार अनेकों प्रयत्नों के पश्चात उसे सफलता मिल ही जावेगी, क्योंकि प्रत्येक असफलता उसे उसकी त्रुटियाँ बता देगी, जिनसे कि वह मनुष्य भविष्य के लिए सावधान हो जावेगा।

जैसे पहले दिन जमाया हुआ दूध दूसरे दिन दही बन जाता है वैसे ही कल का किया हुआ कर्म आज हमारे लिये प्रारब्ध या भाग्य के रूप में उपस्थित होता है। इसलिए भाग्य को कर्म लेख या कर्म रेख भी कहते हैं, यह कर्म लेख, ईश्वर ने अपनी इच्छा से हमारे ऊपर नहीं थोपा है वरन् हमारे किये हुए भूतकाल के कर्मों का फल है शराब पीने का परिणाम नशा, सनाय खाने का परिणाम दस्त और विष खाने का परिणाम प्रशांत होता है उसी प्रकार भले बुरे हमारे ही कर्म कुछ समय उपरान्त भाग्य रूप में उपस्थित हो जाते हैं। वस्तुतः अपने भाग्य के निर्माता हम स्वयं ही हैं, ईश्वर यदि किसी का भाग्य भला, किसी का बुरा बनाता तो उस पर अन्यायी होने का, पक्षपाती होने का दोषारोपण किया जा सकता है जिससे कि वह सर्वथा रहित है।

प्रभु ने मनुष्य को कर्म करने की पूर्ण स्वाधीनता दी है। वह हमारी गतिविधि एवं कार्य पद्धति में कोई हस्तक्षेप नहीं करता। यह अन्तर आत्मा में बैठकर सदा शुभ कार्य पर चलने की ही प्रेरणा करता है। बुरा काम करते ही भीतर से एक आवाज उसे बन्द करने की आती है। लोग उस ईश्वरीय आवाज को अनसुनी करके पाप एवं कुकर्म करते हैं और पीछे बुराई प्रकट होने पर इसका दोष ईश्वर पर मढ़ते हैं। कहते हैं ईश्वर की ऐसी ही मर्जी थी। यह केवल आत्म वंचना है। ईश्वर की मर्जी यह कभी नहीं हो सकती कि हम दुष्कर्म करें और उसके फल स्वरूप दुःख, शोक के समुद्र में गोते लगावें। वह तो हमें सन्मार्ग गामी और सुख शान्तिमय जीवन व्यतीत करता हुआ देखना चाहता है। इसी दशा में यह अन्तर आत्मा के भीतर से सदैव संकेत भी करता है। आप बुराई करना और दुष्परिणाम के लिए ईश्वर को दोषी ठहराना एक उपहासास्पद बात ही कही जा सकती है।

भाग्य का रोना अक्सर आलसी, अकर्मण्य और कायर प्रकृति के मनुष्य अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए रोया करते हैं। पुरुषार्थी लोग अपना रास्ता पहाड़ और समुद्र को चीर कर बनाते हैं। जो कठिनाइयाँ प्रारब्ध वश सामने आती हैं उनका वे वीरतापूर्वक मुकाबला करते हैं और आगे के लिए अपना भविष्य बनाने में सदैव संलग्न रहते हैं। यदि कोई अमिट घटना घटित होने वाली भी हो तो उससे निराशा होने को कोई कारण नहीं। पुरुषार्थ हमारा कर्तव्य है। इस कर्तव्य पथ पर आरुढ़ रहने से वह समय अवश्य आवेगा जब अभीष्ट परिणाम की प्राप्ति होगी। प्रारब्ध की कोई त्रासदायक बदली पुरुषार्थ रूपी सूर्य को कुछ समय के लिए ढकेले तो भी उसका अंधेरा देर तक नहीं रह सकता।


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