योग विद्या का रहस्य

June 1953

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(डॉ. शिवराज लाल त्रिपाठी गोला गोकरनाथ)

युजिर ‘योगे’ धातु से योग शब्द सिद्ध होता है जिसका तात्पर्य जोड़ या मेल है। मनुष्य का मेल मनुष्य, पशु पक्षी तथा जड़ पदार्थों से भी होता है, परन्तु उसका नाम योग नहीं, बल्कि संयोग है। अध्यात्म विद्या में जीव-ईश्वर संयोग को योग कहते हैं। परमात्मा इस जीवात्मा से सदैव सर्व स्थल में मिला हुआ है कभी पृथक नहीं रहता, यहाँ तक कि जब मनुष्य भौतिक शरीर त्यागकर बाहर निकल जाता है तथा गर्भ में निवास करता है या मोक्ष को प्राप्त होता है तब भी जीव-ईश्वर की आवश्यकता नहीं होती। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब जीव और ईश्वर का वियोग किसी देश, काल तथा अवस्था में होता नहीं तो फिर योग कैसा? इसका सरल उत्तर यह है कि यों तो आत्मा को ईश्वर का योग प्रत्येक दशा, काल तथा अवस्था में उसी परम देव की परम दया से होता है, यही जीवन है। परन्तु यह स्वाभाविक योग जीव की ओर से नहीं होता और न उसको उस योग का ज्ञान होता है और न उसका अनुभव व आनन्द जीव को प्राप्त होता है। अस्तु।

जीव को ईश्वर के मेल का ज्ञान होना ही योग है और इस अनुभव द्वारा प्रयत्नशील योगीजनों का साक्षात्कार हो जाना ही परमानन्द है। परमानन्द प्राप्त हो जाने के पश्चात शेष प्राप्त करने के लिये कुछ नहीं रहता यही परमपद और मोक्ष दशा है। जब तक इस अवस्था को मनुष्य प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक अनेकों शरीरों में घूमता हुआ नानाप्रकार के कष्टों को भोगता हुआ बहुत जन्मों के पश्चात शुभ कर्मों और शुभ संस्कारों एवं ईश्वर की परम कृपा से योग साधन करने के लिए मनुष्य शरीर की प्राप्ति होती है। परमानन्द अर्थात् जिसे प्राप्त कर लेने के बाद कभी भी जीव-दुःख को प्राप्त नहीं होता और न दुःख स्वरूप शरीरों को प्राप्त होता है अर्थात् सर्वदा परमानन्द में निवास करता है। यही परम आवश्यकता है।

जीवात्मा को इस बात का यथार्थ ज्ञान और अनुभव व साक्षात्कार हो जाना कि वह घट-घटवासी सर्व व्यापक मेरे पास है और मैं उसकी गोद या शरण में हूँ ऐसी अवस्था का नाम जीवन का ईश्वर से योग है। और इसके उपाय व क्रिया का नाम योगानुष्ठान या योगाभ्यास है। और इस योग से जो दुःख निवृत्ति तथा सुख प्राप्ति रूप फल मिलता है उसको योग विभूति आदि समझना चाहिए।

इस जीवात्मा का दो पदार्थों से सम्बन्ध रहता है अर्थात् प्राकृतिक जगत व माया से या यों समझिये कि प्राकृतिक जगत व अप्राकृतिक जगदीश्वर से, क्योंकि मनुष्य का मन एक है और वह एक समय में, एक ही विषय को ग्रहण तथा अनुभव करता है। और मन प्रकृति का पुत्र है, इसलिये वह अधिकार अपनी माता माया देवी से ही नियुक्त रहता है। यही कारण है कि वह जगत पिता परम देव मायापड़त की आज्ञा तथा अनुभव से विमुख तथा वियुक्त रहता है।

जब इसको परमपिता की सत्ता का ही ज्ञान नहीं है तो उससे प्यार व योग का ज्ञान कैसे हो सकता है परन्तु माया की गोद में क्षणिक अस्थिर सुखाभास प्राप्त होता है। परमपिता के योग से स्थिर तथा चिरकाल तक रहने वाला चिरानन्द प्राप्त होता है।

जैसे माता के क्षीर पान करने से थोड़ी देर के लिये क्षुधा तृषा से तृप्ति हो जाती है। यथार्थ तृप्ति रूप शान्ति नहीं। थोड़ी देर पश्चात फिर भूख प्यास आकर सताती है, परन्तु योगाभ्यास करते करते इस भौतिक शरीर के रहते हुए भी जब योगाभ्यासी कण्ठ कूप में जो तालू के कान के समीप एक कूप जैसा गढ़ा है, जब योगी उसमें संयम करता है, तो बहुत काल तक उसकी भूख प्यास जाती रहती है अर्थात् जब तक योगी इसका संयम करता रहेगा तब तक भूख प्यास न लगेगी। तथा :-

“कण्ठे कूपे क्षुति पिपासा निवृतिः”

योग दर्शन वि. पा. सू. 29

अब समझो कि जब भौतिक माया माता का शरीर विद्यामान होते हुये भी मानस यज्ञ का दीक्षित यजमान (योगी) उस परम ज्योतिर्मय भगवान का ध्यान करता है तो उसकी भूख प्यास पयान कर जाती है। यदि स्थूल भौतिक शरीर को त्याग कर सूक्ष्म दिव्य शरीर से केवल परमपिता का ही सेवन मुक्त पुरुष करता है तो फिर उसको भूख प्यास से तनिक सम्बन्ध नहीं रहता।

जैसे एक बालक अपनी माँ की गोद से पृथक होकर रोता और बिलबिलाता है उसको भूख ने सता रखा है, बिल्ली, कुत्ते व अन्धकार आदि ने डरा रखा है और वह अपनी प्यारी माता को नहीं देखता इसलिए दुःखी होकर रोता है और चिल्लाता है। परन्तु जब जननी अपने लाडले और सलौने पुत्र को अपनी प्रेममई गोद में उठा लेती है तो वह कैसा प्रेम पुलकित हो जाता है और छाती से लिपट कर दूध पीता है, उस समय पहले सारी पीड़ा को भूल जाता है। यही दशा हम सब जीवों की परम जननी और जनक परम पिता परमेश्वर के सामने है। जब हम जगत के झगड़ों में फंसे हुए बहुत थककर व्याकुल हो जाते हैं तब पिता जी गहरी नींद देकर अपने गोद अंगों में भर लेते हैं। उस समय लेशमात्र भी क्लेश नहीं रहता-यह “वैत्तिक योग” है जो सुषुप्ति अवस्था में हमको प्राप्त होता है। परन्तु शोक कि इसके महत्व को नहीं समझते है इसीलिए इसका भान नहीं करते। इसका भी मुख्य कारण है कि जैसे किसी सोते हुए बालक को उसकी माता प्यार करती है परन्तु सुप्त सपूत को उसकी कुछ भी सुति नहीं है इसलिए वह उसके प्यार की न प्रतिष्ठा करता है और न उसका धन्यवाद देता है यही दशा सुषुप्ति अवस्था में हमारे साथ परम प्रेमी के प्यार व योग की है। इसका प्रयोजन यह है कि परमेश्वर अपने योग द्वारा अपनी दशा दर्शाते और प्यार दिखाते हैं। परन्तु हम कपूत कृतघ्न बालक उनके प्यार की कुछ परवाह नहीं करते, न उसको धन्यवाद देते हैं।

जब हम दुःखमय दुनिया में बहुत दुःखी हो जाते हैं और प्रभु से मिलने की सत्य उत्कण्ठा हमारे मन में उत्पन्न होती है और हम प्रयत्न करके अपने मन मंदिर हृदयाकाश में उस प्यार को विराजमान देखते हैं और समस्त संसार की सामग्री की सुध−बुध अपने मन से भुला देते हैं, तब हमको अपने अन्तःकरण में उस विभु के विराजमान होने का ज्ञान होता है और चक्षु से अपने आत्माराम के समक्ष जाज्वल्यमान देखते हैं उसका नाम योग है।


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