व्यवसाय में आदर्श की आवश्यकता

June 1953

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(श्री भगवानदास केला)

युग की पुकार है कि हम अपने को बदलें और कुछ दिन घाटे की बिजनिस करना सीखें। हमारे पत्रकार यह न सोचें कि आगामी तीन वर्षों में हमें अपनी कोठी बना लेनी है। वे सोचें कि इन वर्षों में इसे इस क्षेत्र में अपने विचार भर देने हैं। प्रकाशक यह न सोचें कि हमें तीन वर्ष में अपना प्रेस लगा लेना है। वे सोचें कि हमें अपनी भाषा के इतने अभाव पूरे कर देने हैं। मिल का मालिक यह न सोचे कि हमें एक नयी मिल लगानी है, वे सोचें कि हमें मिल एरिया को नया जीवन देना है।

-कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’

हर एक र्स्वथडडडडड और समर्थ आदमी को यथा सम्भव कोई व्यवसाय करना और स्वावलम्बी होना चाहिये। बिना परिश्रम किये मुफ्त की रोटी खाना, अपने निर्वाह के लिए दूसरों पर भार-स्वरूप बने रहना उचित नहीं है। अच्छा, हमारे व्यवसाय का लक्ष्य या आदर्श क्या हो? अपने व्यवसाय में हम किन-किन बातों का ध्यान रखें।

व्यवसाय का आदर्श स्थिर करना हमारे लिए ऐसा ही है, जैसे किसी यात्री के लिए अपनी दिशा निश्चित कर लेना। अगर हम यात्रा आरम्भ करने से पहले अपना लक्ष्य या दिशा निश्चय नहीं करते तो हम कभी एक ओर चलेंगे, कभी दूसरी ओर, कभी दाँयी ओर, कभी बाँयी ओर, कभी आगे और कभी पीछे। इसका परिणाम यह होगा कि हम बहुत समय तक घूमते रह कर अपनी यात्रा में विशेष प्रगति न कर पायेंगे। हमने जिस स्थान से चलना आरम्भ किया है, उसके आस-पास ही चक्कर लगाते रहेंगे अथवा यह भी सम्भव है कि अपने रवाना होने की जगह से कुछ पीछे हट जाएं। यात्री के लिए यह जरूरी है कि वह पहले से यह स्थिर करले कि उसे किस दिशा में जाना है और कहाँ पहुँचना है जिससे उसे व्यर्थ इधर-उधर न भटकना पड़े। इस तरह जो आदमी व्यवसाय आरम्भ करें उसे यह भली भाँति सोच समझ लेना चाहिए कि इस व्यवसाय का आदर्श क्या है और मुझे इसमें किन सिद्धान्तों का ध्यान रखना आवश्यक है।

सम्भव है कि कुछ आदमी इस तरह की चर्चा को अनुपयोगी समझें। वे कह सकते हैं कि व्यवसाय का उद्देश्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक से अधिक धन कमाना है। जबकि हमारे व्यवसाय से हमारा गुजर अच्छी तरह हो सकता है तो वह व्यवसाय अवश्य ही अच्छा है, फिर हमें यह सोचने की कोई जरूरत नहीं रहती कि उसका आदर्श क्या है। इस तरह की विचारधारा बहुत एकाँगी है। ये लोग सिर्फ अपने हित या स्वार्थ की बात सोचते हैं। वे भूल जाते हैं कि आदमी समाज में रहता है, उसके कार्यों और विचारों का प्रभाव दूसरों पर पड़े बिना नहीं रहता। यदि हम दूसरों से छल कपट करके उनका पैसा हड़पने का विचार करें और दूसरे अपनी चालाकी से हमें धोखा देते रहें तो समाज का जीवन कितना संकटमय हो जायगा। समाज का कार्य अच्छी तरह होता रहने के लिए यह बात आवश्यक है कि उसका प्रत्येक अंग अपना अपना कार्य करते हुए दूसरों के सुख और सुविधा का ध्यान रखें। हमारे काम का दूसरों के उचित स्वार्थों से संघर्ष न हो, हम किसी को हानि न पहुँचावें।

यह ठीक है कि आदमी कोई व्यवसाय इसलिये करते हैं कि उससे उनका भोजन, वस्त्र आदि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। परन्तु मनुष्य की केवल शारीरिक आवश्यकताएं ही नहीं होतीं, उसे मन या आत्मा की जरूरतें रहती हैं। आदमी की इच्छा होती है कि वह दूसरे से प्यार करें,वह दूसरों की सेवा और सहायता करें और दूसरे आदमी उसकी सेवा और सहायता करें। आदमी की स्वाभाविक इच्छा है कि वह दूसरों से मिलजुल कर सहानुभूति और सहयोग का भाव रखते हुए सामाजिक जीवन व्यतीत करें। आदमी की इन इच्छाओं की पूर्ति उसके व्यवसाय से कहाँ तक होती है यह भी उसके लिए विचारणीय प्रश्न है।

आदमी का अपने व्यवसाय में काफी समय लग जाता है। कुछ विशेष अवस्थाओं को छोड़कर उसे हर रोज कई कई घण्टे अपने व्यवसाय में लगाने पड़ते हैं इस समय उसके मन में जो विचार रहते हैं उनका उसके जीवन पर बहुत असर पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि अपना व्यवसाय करते समय हमारे विचार ऊँचे हों। ऐसा न हो कि उस समय हमारे जीवन में संकीर्ण स्वार्थ भरा हो, हम दूसरों को कष्ट या हानि पहुँचाकर भी अपने लिए सुख के साधन की फिक्र में हों। अपना काम धन्धा करने के साथ साथ हम अपने मन में प्रेम, दया सहानुभूति, सहयोग और सेवा-सुश्रूषा आदि गुणों का विकास करते रहें। हमारा व्यवसाय हमारी शारीरिक आवश्यकताओं की ही पूर्ति में सहायक न होकर हमारी मानसिक और आत्मिक उन्नति में भी सहायक होना चाहिये।

जब तक ऐसा नहीं होता, हमें अपने व्यवसाय से यथेष्ट सुख शान्ति नहीं मिल सकती। हमें समय समय पर कुछ ऐसे आदमियों से मिलने का अवसर आता है, जिन्हें उनके व्यवसाय से काफी आमदनी है, वे दूसरे आदमियों की दृष्टि में खुद सुखी जीवन बिताने वाले है। समाज में वे अच्छी मान प्रतिष्ठा पाते हैं। पर ये सब होते हुए भी वे वास्तव में सुखी नहीं हैं, उनके मन में बड़ा संघर्ष और असंतोष रहता है। हाँ इस तरह की बातें वे सर्वसाधारण में प्रकट नहीं करना चाहते, जो कोई उनका बहुत घनिष्ठ मित्र होता है, उसे ही यह भीतरी रहस्य मालूम हो सकता है।

हमारा व्यवसाय हमारे पूरे जीवन का निर्माण करने वाला हो केवल अधूरे जीवन का नहीं। आदमी केवल शरीर नहीं है, उसके साथ मन और आत्मा है। जो व्यवसाय निरे स्वार्थ की दृष्टि से किया जायगा उससे हमारे मन और आत्मा की आवश्यकताएं पूरी नहीं हो सकतीं। इसके लिये तो हमें अपना व्यवसाय इस तरह का रखना होगा जिससे दूसरों का भी हित हो। तभी हमारे मन और आत्मा की उन्नति करने वाले गुणों की वृद्धि होगी और हमारे जीवन का विकास होगा। जो आदमी अपने व्यवसाय से पहले तो जैसे-जैसे धन कमाता है और उससे अपनी शारीरिक सुविधाएं या सुख प्राप्त करता है और फिर थोड़ा बहुत रुपया गरीबों को दान देता है, या सार्वजनिक उपयोगों के लिए औषधालय, विद्यालय, धर्मशाला या मंदिर आदि की स्थापना करके अपने मन या आत्मा को सुख पहुँचाने की चेष्टा करता है, वह अपने जीवन को अलग-अलग भागों में देखता है और उनकी आवश्यकताओं की जुदा-जुदा समय में और जुदा-जुदा उपायों से पूर्ति करता है। परन्तु मनुष्य जीवन को इस प्रकार अलग-अलग टुकड़ों में विभाजित करना ठीक नहीं है। उसके विकास का कार्य यथासम्भव इकट्ठा ही होना चाहिए।


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