कुछ श्रेयष्कर धर्म-सिद्धाँत

June 1953

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(श्री स्वामी सत्य भक्त जी वर्धा)

1- हम सर्व धर्म समभावी बनें। अगर हमारा किसी धर्म संस्था से ज्यादा संपर्क है, तो हम भले ही उस संस्था का अधिक उपयोग करें और आत्मीयता प्रकट करें, परन्तु दूसरी धर्म-संस्थाओं को अपनी धर्म-संस्था के समान पवित्र मानें। उनसे लाभ उठाने का मौका मिलने पर उनसे लाभ उठावें। ये सभी धर्म-संस्थाएं मनुष्य समाज को उन्नत बनाने के लिये थीं। उनकी रीति नीति में अगर अन्तर मालूम होता है, तो उस अन्तर से उन्हें भला बुरा न समझें किन्तु उसको देश काल का असर समझें। करीब सवा हजार वर्ष पहले अरब के लोगों की उन्नति के लिये इस्लाम ने जो नियम बनाये यदि वे आज किसी देश के लिए निरुपयोगी हैं। तो इसी से इस्लाम को बुरा न समझें। हम इतना ही कहें कि यह नियम आज के लिये उपयोगी नहीं हैं, इसलिए दूर कर देना चाहिये परन्तु अपने समय के लिए अच्छा था। इसी उदारता से हमें वैदिक, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी, आदि धर्मों पर विचार करना चाहिये। हम उनकी आलोचना करें। परन्तु पूर्ण निष्पक्षता से आलोचना करें। उनमें से वैज्ञानिक सत्य को खोज लें। बाकी को वर्तमान काल की दृष्टि से निरुपयोगी कहकर छोड़ दें। परन्तु इससे उस धर्म का निरादर न करें। जिस सम्प्रदाय को इसने अपना सम्प्रदाय बना रखा है, उसकी आलोचना करते समय हमारे हृदय में जितनी भक्ति रहती है वही भक्ति हम दूसरे सम्प्रदायों की आलोचना करते समय रखें। अपने सम्प्रदाय के दोषों पर तो हम नजर ही न डालें, और दूसरे सम्प्रदाय के दोष ही दोष देखें यह बड़ी से बड़ी भूल है। इससे हम किसी भी धर्म के अनुयायी नहीं कहला सकते- धर्म का लाभ हमें नहीं मिल सकता।

2- जो कार्य सार्वजनिक और सार्वकालिक दृष्टि से अधिकतम प्राणियों के अधिकतम सुख का कारण है, उसे ही धर्म समझें। इसके विरुद्ध कोई भी कार्य क्यों न हो,- भले ही बड़े से बड़ा महान पुरुष या बड़े से बड़ा आगम ग्रंथ उनका समर्थन करता हो, परन्तु उसे हम धार्मिक न समझे। हमारे प्रत्येक कार्य में यह उद्देश्य जरूर रहे। इस सिद्धान्त को हम अपने जीवन में उतारने की कोशिश करें।

3- उपर्युक्त सिद्धाँत के अनुसार सभी सम्प्रदायों में कुछ न कुछ हितकर तत्व रहते हैं। हम उन्हीं को मुख्यता देने की कोशिश करें, जिससे सब सम्प्रदायों में तथा उनके अनुयायी वर्गों में आदर और प्रेम बढ़े और सबके जुड़े-जुड़ें संगठन बनें। हिन्दू धर्म का कर्मयोग, जैन धर्म की अहिंसा और तप, बौद्ध धर्म की दया, ईसाई धर्म की सेवा, इस्लाम का भ्रातृत्व ये सब चीजें सभी के लिए उपयोगी हैं। अन्य सम्प्रदायों में भी अनेक भलाई मिलेंगी। इन्हीं को मुख्यता देकर अगर हम विचार करें, तो सब धर्मों से हमें प्रेम भी होगा आपका द्वेष भी नष्ट होगा, तथा सबका एक संगठन भी बन सकेगा। इसके लिये हमें जहाँ तक बन सके सभी सम्प्रदायों के धर्मस्थानों का उपयोग करना चाहिये। अपने सम्प्रदायों के मंदिरों में भी अन्य सम्प्रदायों के महात्माओं के स्मारक रखना चाहिये, सभी सम्प्रदायों महात्माओं के स्मारक जहाँ बराबरी से रह सकें, ऐसे स्थान बनाना चाहिए। इस प्रकार सर्व-धर्म समभाव को व्यावहारिक रूप देने और उसे जीवन में उतारने की पूरी कोशिश करनी चाहिये।

4- बहुत सी ऐसी बातें हैं जो एक समय अच्छी थीं, उपयोगी थीं, क्षन्तव्य थीं, इसलिये शास्त्रों में या रूढ़ि में स्थान पा गई हैं। परन्तु आज वे उपयोगी नहीं हैं। इसलिये उन्हें हटा देना चाहिये। सिर्फ इसी बात को लेकर कि वे हमारे शास्त्रों में लिखी हैं, या पुरानी हैं, उन्हें चालू रखना अन्याय है। जो सर्व-धर्म समभावी है, वह किसी एक धर्मशास्त्र की दुहाई देकर किसी अनुचित बात का समर्थन क्यों करेगा? एक सम्प्रदाय के शास्त्र में किसी बात का विधान हो सकता है और दूसरे सम्प्रदाय के शास्त्र में उसका निषेध हो सकता है, तब सर्व-धर्म समभावी के सामने एक जटिल प्रश्न खड़ा हो जाता है कि वह किसकी बात मानें? ऐसी हालत में उसे यह देखना चाहिये कि कल्याण किस में है? अगर कोई बात सभी शास्त्रों में एक सी मिलती है अथवा उसमें जितने मत हों वे सभी वर्तमान में हितकारी न हों, तो उन सबको छोड़कर उसे कल्याणकारी बात पकड़ना चाहिये। जैसे वर्तमान में संकुचित जातीयता, स्त्रियों के पुनर्विवाह का निषेध, पर्दा की अधिकता, छुआछूत का अनुचित विचार, भूत, पिशाच आदि की मान्यता, अविश्वसनीय अतिशय आदि बहुत से अहितकर तत्व आ गये हैं जोकि प्रगति के नाशक तथा ईर्ष्या और दुरभिमान को बढ़ाने वाले हैं, इन सब कुतत्वों को हटाकर विवेकी बनाना चाहिये। एक जैन कहे कि महावीर के जन्म समय इन्द्रादि देवता पूजा करने आये थे, बौद्ध कहें कि बुद्ध के जन्म समय ब्रह्मा, विष्णु महेश मौजूद थे, वैष्णव कहे कि राम के जन्म समय शिव इन्द्र आदि अयोध्या की गलियों के चक्कर काटते थे, तो ये सब बातें अंध विश्वास और मूढ़ता के चिह्न हैं इनसे विज्ञान की हत्या होती है, समभाव नष्ट होता है, ईर्ष्या और दुरभिमान बढ़ता है। हमें धर्म को अधिक से अधिक विज्ञान संगत बनाना चाहिये और इसी बुनियाद पर धर्म तथा समाज का नव-निर्माण या जीर्णोद्धार करना चाहिये।

5- आज मानव - समाज कई तरह के भेदों में बंटा हुआ है। साम्प्रदायिक भेद तो हैं ही साथ ही और भी अनेक तरह के वर्ग बना लिये गये हैं और इस प्रकार वर्गयुद्ध चालू हो गया है। मनुष्य अपना पेट भर के सन्तुष्ट हो जाता तो गनीमत थी, परन्तु वह इतने में सन्तुष्ट नहीं होता, वह यह कोशिश करता है कि हमारी जाति के सब मनुष्यों का पेट भरे और हम सब संगठित होकर दूसरों को लूटें। इसीलिए एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को पीस डालना चाहता है। लाखों करोड़ों मनुष्य दूसरे देश पर शासक बनकर मौज करना चाहते हैं। दूसरे जाति के अच्छे से अच्छे सदाचारी, त्यागी, गुणी, विश्वसनीय व्यक्ति से उतनी आत्मीयता प्रकट नहीं करना चाहते जितनी कि अपने वर्ग के पतित से पतित व्यक्ति के साथ करना चाहते हैं। इस राष्ट्रीय जाति -भेद से आज दुनिया की राजनीति- अर्थनीति भयंकर ताँडव कर रही है और उससे मनुष्य जाति त्राहि त्राहि पुकार रही है। जरूरत इस बात की है कि मनुष्य जाति एक ही मान ली जाय जैसी कि वह है। शासन की सुविधा के लिए राष्ट्रीय भेद रहें, परन्तु एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर पशुबल से तथा किसी और ढंग से आक्रमण न करें। अगर किसी देश में मनुष्य संख्या ज्यादा है, तो कम संख्या वाले देश में जाकर वे इस शर्त पर बस जायें कि अपने को हर तरह उसी देश का बना लेंगे, वहाँ की भाषा आदि को अपना लेंगे। उन देशों पर आक्रमण करके, उन्हें दलित करके अपने वर्ग का पोषण करना मनुष्यता का नाश करना है। इससे संसार में शान्ति नहीं हो सकती। इस नीति से कोई चैन से नहीं बैठ सकेगा और बारी बारी से सबको पिसना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त एक राष्ट्र के भीतर भी अनेक तरह के राष्ट्र बने हुए हैं। जैसे भारतवर्ष में हिन्दू मुसलमानों के जाति-भेद और सम्प्रदाय-भेद से घोर संग्राम छिड़ा रहता है। इसके अतिरिक्त हिन्दू समाज में ही करीब चार हजार जातियाँ है, इनमें परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार नहीं, इससे पारस्परिक सहयोग का लाभ नहीं मिल पाता है। पड़ौस में रहते हुए भी न रहने के बराबर कष्ट उठाना पड़ता है। ये वर्ग-भेद भी ईर्ष्या और दुरभियान के बढ़ाने वाले है। इन सब भेदों को तोड़ देने की जरूरत है। हाँ, जीवन में मित्र-वर्ग या सम्बन्धी वर्ग बनाने की जरूरत होती है, सो वहाँ चाहे सो बनाना चाहिए। अमुक वर्ग में से ही चुनाव कर सकें यह भेद न होना चाहिए। इस प्रकार जब हममें सर्व जाति समभाव आ जायगा, तो हममें से वर्ग युद्ध के तथा ईर्ष्या और दुरभिमान के बहुत से कारण नष्ट हो जाएंगे, तथा हमें प्रगति के लिए तथा सुविधापूर्वक जीवन बिताने के लिए बहुत से साधन मिल जाएंगे, इसलिए हमें अपने दिल से जाति, उपजाति का मोह निकाल देना चाहिए, जातीय और साम्प्रदायिक विशेषाधिकारों की माँग छोड़ देना चाहिए, जाति के नाम पर रोटी-बेटी-व्यवहार का विरोध न करना चाहिए इस प्रकार सर्व-धर्म-समभावी के समान सर्व जाति समभावी भी बनना चाहिए।

6- सर्व-जाति समभाव की तरह नर नारी समभाव भी अत्यावश्यक है। यह सर्व जाति समभाव का एक अंग है। नर नारी की शारीरिक विषमता है, परन्तु वह विषमता ऐसी नहीं है जैसी कि एक शरीर दो अंगों में होती है। नर नारी एक दूसरे के लिए पूरक हैं। इसलिए एक दूसरे का उन्नति में एक दूसरे की बाधक नहीं होना चाहिए और जहाँ तक बन सके अधिकारों में समानता होनी चाहिए। अनेक स्थानों पर स्त्री की अवस्था गुलाम सरीखी है। उसके आर्थिक अधिकार पूरी तरह छिने हुए हैं। फूटी कौड़ी पर भी उसका स्वामित्व नहीं है। यह दुःपरिस्थिति मिटनी चाहिये। जहाँ तक बन सके, स्त्री पुरुषों में अधिक समता का प्रचार होना चाहिए, अगर विषमता रहे भी, तो वह कम से कम हो। सामाजिक अधिकारों में भी विषमता न होनी चाहिए। स्त्री सिर्फ इसलिए किसी कार्य से वंचित न हो सके कि वह स्त्री है। धार्मिक अधिकारों में तो विषमता का कोई मतलब नहीं है। फिर भी पुरुष ने धार्मिक क्रियाकाण्डों में नारी के अधिकार छीने हैं। उससे पुरुष को कोई लाभ भी नहीं हुआ। इसलिए यह विषमता भी दूर करनी चाहिए। इस प्रकार सर्वजाति समभाव के समान नर नारी समभाव की भी जरूरत है।

इस प्रकार यदि हम सर्व धर्म समभाव, सर्व जाति समभाव, विवेक या समाज सुधारकता, निःस्वार्थता आदि गुणों को लेकर धर्म की मीमाँसा करेंगे तो सच्चे धर्म को प्राप्त कर सकेंगे। उस धर्म को जीवन में उतारने से हमारा भी कल्याण होगा और जगत का भी कल्याण होगा।


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