प्रार्थना हमारा आवश्यक कर्तव्य है।

June 1953

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(श्री दानेश्वर शर्मा बी. ए. रामपुर)

यह नितान्त सत्य है कि मानव स्वतः पूर्ण नहीं। अध्यात्मवादियों के अनुसार मानव उस अखण्ड एवं पूर्ण ब्रह्म का एक अंश मात्र ही है। आधुनिक कवियों ने ‘तुम उच्च हिमालय शृंग और मैं चंचल गति सुर सरिता’ कह कर मानवता की अपूर्णता का विश्लेषण किया है। ईश्वर अखण्ड बुद्धि है और मनुष्य खण्ड बुद्धि का अपूर्ण प्राणी। यही है वह वस्तु जो प्रार्थना की आवश्यकता इंगित करती है।

प्रार्थना की आवश्यकता पूर्वीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने समान रूपेण प्रदर्शित की है। भारतीय साधकों ने कहा है कि प्रार्थना के द्वारा हम अपनी पात्रता का पड़रचय उस अखण्ड बुद्धि का देते है। ईश्वर जो देगा वह तो निर्धारित ही है। प्रार्थना के द्वारा हम अनिर्धारित वस्तु छीन नहीं सकते लेकिन पात्रता का परिचय देकर कृपा दृष्टि अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर की दृष्टि में सब प्राणी समान हैं। अतः वे समदर्शी कहलाते हैं। किन्तु उस समदर्शी को भी विवश होकर एक बार कहना पड़ा-

“समदर्शी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥”

प्रार्थना की महत्ता विज्ञ पाठक इस चौपाई में ढूँढ़ सकते हैं। दूसरा उदाहरण लीजिये। माता का स्नेह सभी बच्चों पर समान रहता है चाहे बच्चे कपूत हों या सपूत। ‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति”। किन्तु आज्ञाकारी एवं स्वेच्छाचारी पुत्रों की पात्रता में अन्तर है। माता दोनों को मिठाई देती है लेकिन एक पुत्र प्रेम रस युक्त अमृत मिष्ठान प्राप्त करता है तो दूसरा केवल शक्कर और खोये का सम्मिश्रण।

प्रार्थना जब मानसिक एवं आध्यात्मिक अनुरोध पर आश्रित रहती है तभी अभीष्ट सिद्धि होती है। जहाँ तक व्यक्तिगत अनुभव का प्रश्न है, इन पंक्तियों के लेखक को कुछ अनुभव है। गायत्री के प्रातः कालीन आद्य स्वरूप की प्रार्थना करना मेरा कुछ नियम सा है। बी ए. और एल. एल. बी. परीक्षा की आशातीत सफलता को मैं दैवी अनुग्रह मानता हूँ। हमारे आस्तिक बन्धु इस पर मेरा समर्थन करेंगे और नास्तिक बन्धु कोरा प्रलाप समझ उपहास करने से कदापि नहीं चूकेंगे। कुछ भी हो मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं। किन्तु मुझे कुछ विश्वास सा हो गया है कि यदि आप सच्चे एवं शुद्ध मन से प्रार्थना करेंगे तो आपकी पुकार उस सर्वव्यापी एवं अन्तर्यामी तक अवश्य पहुँचेगी और आपकी मनोकामना पूर्ण होगी।

कवींद्र रवीन्द्र ने शान्ति निकेतन की स्थापना की है। उन्होंने एक स्थान पर लिखा है- “शाँति निकेतन में प्रार्थना का समय नियत है। प्रातः कालीन प्रार्थना में छात्रों की उपस्थिति अनिवार्य है, मुझे आवश्यकता उनकी शारीरिक उपस्थिति से है, मानसिक उपस्थिति से नहीं। यदि वे प्रार्थना के समय वृक्षों पर गिलहरी की उछल कूद भी देख रहे हों तो मुझे कोई ऐतराज नहीं। नियमित प्रार्थना क्रम से एक ऐसा समय अवश्य आएगा जबकि उनकी मानसिक एकाग्रता अवश्य होगी और वह एकाग्रता प्रार्थना का रूप होगी।” नव-अभ्यासियों के लिए रवीन्द्र नाथ जी का यह सिद्धाँत अनुकरणीय है।

राग द्वेष, क्रोध, लोभ मोहादि मानव जाति के जन्म जात शत्रु हैं। इनसे मुक्त रहने के लिये प्राचीन ऋषि महर्षियों ने प्रार्थना का तरीका अपनाया था। कितनी श्रद्धा, कितना विश्वास एवं कितनी नम्रता थी उसमें। उनकी प्रार्थना थी -

“अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय मृग- तृष्णम्। भूतमयाँ विस्तास्य तास्य संसार सागरतः।

अर्थात्- हे विष्णु! हमारी अविनयता को हर करो, चंचल मन का दमन करो। विषयक्रमी मृग तृष्णा को शान्त करो। मेरे ही हृदय से सब प्राणियों पर दया का विस्तार करो ओर संसार सागर से हमें पार करो।”

बताइए ऐसा कौन मनुष्य होगा जो इस नम्रता पर न पिघल उठे और फिर यह तो उस महान विभूति के लिये प्रयुक्त है जो अपनी दयालुता के लिये ‘दया सागर’ के नाम से विख्यात है। मैं नहीं समझता कि इस प्रार्थना के बाद भी चिन्ता, दुःख द्वेषादि टिक सकते हैं। गीता के इस श्लोक पर प्रार्थना करने वालों को विश्वास रखना चाहिए-

अनन्याश्चिन्तयन्तोमाँ ये जनः पर्यु पासते। तेषाँ नित्याभियुक्तानाँ योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

अर्थात्- जो मनुष्य अनन्य भाव से मुझे पर-आत्मा की उपासना करता है उसके योगक्षेम का बोझ मैं अपने ऊपर ले लेता हूँ।

आपके विषम-युग में भी प्रार्थना की महत्ता छिपी नहीं। युग-पुरुष गाँधी इस व्रत के महान व्रती थे। वे नियमित रूप से प्रातः एवं सायंकाल में प्रार्थना किया करते थे। अपने अन्तिम समय में भी वे प्रार्थना मंत्र की सीढ़ी पर प्रार्थनोद्यत थे। गाँधी जी के प्रधान शिष्य श्री बिनोवा भावे भी इस देश के महापुरुष सदा से ही प्रार्थना के महत्व को समझते और अनुभव करते आ रहे हैं। भारतीय तत्व वेत्ताओं ने प्रार्थना को मनुष्य का एक आवश्यक नित्यकर्म माना है। इसलिये प्रार्थना से विमुख रहने वालों की स्थान-स्थान पर उन्होंने भर्त्सना भी की है।

प्रार्थना के समय साधारणतया चित्त को एकाग्र कर आत्म विश्वास के साथ ईश्वर के सम्मुख कुछ संकल्प करना चाहिए। इस संकल्प का अर्थ साधारणतया यह हो-

“ हे जगत्पिता! मेरे पूर्वकृत पापों को क्षमा करो। मेरा हृदय शुद्ध करो। लालसा एवं वासना अब मुझे जीत न सकें। मेरी जितेन्द्रिय आत्मा तेजोमय हो। कामादि शत्रु उसकी तेजाग्नि से ही जल जाएं। मुझे अब कोई विकार न हो। मैं शुद्ध बनूं। मैं पवित्र हूँ। मैं मुक्त होऊँ। मैं तुम्हारी शरण में पड़ा हूँ। भवव्याधियों से मेरी रक्षा करो।” सच्चे हृदय से की हुई, आत्म कल्याण की प्रार्थना को प्रभु तत्काल सुनते हैं और उसका प्रत्युत्तर प्राप्त होने में देर नहीं रहती।


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