वर्तमान शिक्षा पद्धति का सुधार होना चाहिए।

June 1953

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री स्वामी सत्यदेव जी परिव्राजक)

शिक्षित मनुष्य में अपना टुकड़ा कमा खाने की योग्यता का होना भी परमावश्यक है। जो मनुष्य अपने आपको पढ़ा लिखा कहकर स्वतंत्र टुकड़ा कमाने की जो शक्ति नहीं रखता उसका पढ़ना लिखना व्यर्थ है।

आज हमारे स्कूल और कालेजों में पढ़ने वाले छात्र किस प्रकार इधर उधर मारे मारे फिरते हैं। छः वर्ष के हुए, माँ बाप ने पढ़ने को भेजा, दस वर्ष मेहनत करके परीक्षा पास की, चार वर्ष दिमाग खाली कर बी.ए. की डिग्री ले ली, डिग्री लेने पर भी प्रश्न वही सामने है- हमें रोटी कैसे मिलेगी? माता-पिता ने अपनी जायदाद नीलाम कर-कर लड़के को पढ़ाया, हजारों रुपये खर्च हो गये कर्ज पर कर्ज हो गया, जब पढ़ लिख कर बाहर निकला, और माता-पिता की आशा हुई कि अब सारा दरिद्र दूर हो जायगा उस समय नया दृश्य क्या? अब नौकरी की सिफारिश करने वाला चाहिये। कहीं सिफारिश लगे, किसी साहब के आगे जाकर गिड़गिड़ाया जाये, उसको गालियाँ दी जायं, किसी गरीब की नौकरी हटवाकर अपना उल्लू सीधा किया जाय, तब कहीं जाकर नौकरी लगे और उस बी.ए. पढ़ने वाले का ‘सब्ज बाग’ देखने में आवे। उस सब्ज बाग में भी क्या आनन्द है? वहाँ उस बी.एस., एम.ए. की डिग्री का बड़ा भारी पुरस्कार मिलता है। आप जानना चाहते हैं?

अच्छा सुनिए, पहला पुरस्कार तो मिला- (योर मोस्ट ओबिडेण्ट सर्वेन्ट) आपका निहायत ताबेदार गुलाम? यह लो पहला पुरस्कार। अब इसके आगे जिसने सिफारिश लड़ाकर नौकरी दिलवाई है, उसके घर की हाजिरी भरना- यह नम्बर दो पुरस्कार है। तीसरा पुरस्कार है अफसरों की दिन-रात गालियाँ सहना, चौथा पुरस्कार है अपनी आत्मा के विरुद्ध काम करना। आज हजारों लाखों भारतीय इन पुरस्कारों से लदे हुए हैं। उनसे आकर पूछ देखिये। कैसे कैसे झूठ कैसी कैसी मक्कारियाँ उनको नौकरी की खातिर करनी पड़ती हैं। अपने अफसरों को प्रसन्न रखने के लिए उनको कैसे कैसे स्वाँग रचने की जरूरत पड़ती है। लड़का घर में बीमार है, छुट्टी चाहिये अब छुट्टी कैसे मिले? अपने अफसर से जाकर छुट्टी माँगते हैं। वह काम अधिक है का डर दिखाता है छुट्टी नहीं मिलती। अब क्या करें? डॉक्टर के पास जाकर, दस पाँच रुपये दक्षिणा दें, उससे अपनी बीमारी का सर्टिफिकेट लेते हैं और अपनी बीमारी की झूठी अर्जी भेजकर आत्मा का हनन करते हैं। जानते हैं कि पाप कर रहें है पर क्या करें-मरता क्या नहीं करता- लड़के के इलाज के लिए छुट्टी चाहिए। जब हाकिम छुट्टी न दे तो उसकी आँखों में धूल झोंकने के लिए कुछ बहाना बनाना ही पड़ता है।

कौन समझदार इस स्कूली, स्वतंत्रता का हरण करने वाली शिक्षा को शिक्षा कह सकता है। यह शिक्षा नहीं है यह मकड़ी का ताना बाना है। जो इसमें फंसा सो गया। एक बनिया का लड़का चार आने के चने खरीदता है। वह उनको उबालकर नमक मिर्च लगाकर बाजार में बेच आठ आने के पैसे पैदा करता है। वह उस कलमघिस्सू, कुर्सी तोड़ने वाले तथा अफसर की हाँ में हाँ मिलाने वाले जी हुजूर के सम्पादक से लाख दरजे अच्छा है। उसको अपनी आत्मा का हनन तो नहीं करना पड़ता? वह जब चाहे स्वेच्छानुसार घूम सकता है। वह अपनी मरजी का मालिक है। उसको किसी के सामने गिड़गिड़ाना नहीं है। उसको छुट्टी माँगने की जरूरत नहीं। वह देश-सेवा कर सकता है, देश भक्तों से मिल सकता है उनके व्याख्यानों का आनन्द ले सकता है पर हमारा कालेज का ग्रेजुएट बेचारा मिल और स्पेन्सर पढ़कर भी अपने गले में जंजीर बाँधे हुए है और अपनी शक्तियों को वेश्याओं की भाँति बेच रहा है।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली के ऐसे जहरीले फल क्यों हैं? उत्तर स्पष्ट है। स्कूल और कालेजों की शिक्षा असल में शिक्षा नहीं है, यह केवल परीक्षा पास कराने की मशीन है। खूब रट रट कर, घोटा लगाकर परीक्षा पास कर लेना ही इसका मुख्य उद्देश्य है। प्रत्येक कालेज का अधिवक्ता परीक्षोत्तीर्ण विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाना-फीसदी अधिक लड़के पास कराना- ही अपना उद्देश्य समझता है। स्कूलों के अध्यापक निरीक्षकों को बड़े गौरव से कहते हैं।-देखिये महाशय हमारे स्कूल में से इतने लड़के पास हुए। बस मतलब पूरा हो गया शिक्षा की इतिश्री हो गई! लड़कों की तन्दुरुस्ती, उनका चरित्र बिगड़ जाय तो बिगड़ जाय, पर पास होना चाहिए। लड़के परीक्षा पास करना अपना मुख्य कर्त्तव्य समझ सब कुछ उसके लिए बलिदान कर देते हैं और परीक्षा पास कर लेने पर समझ बैठते हैं- बस अब मैदान मार लिया। अब संसार के दुखों से छूट गये।

बेचारे यह नहीं जानते कि जीवन का सबसे अच्छा समय गुजर गया और अब मुसीबतों का आरम्भ होने लगा है। फोनोग्राफ की भाँति उनको पढ़ाई की सब बाते याद हैं और जब चाहें तभी उगल कर दूसरों का मनोरंजन कर सकते हैं। मिल और स्पेन्सर के उपदेश तो उन्हें कण्ठ हैं पर उनसे रोटी कमाने में कुछ भी सहायता नहीं मिल सकती।

सहायता हो कैसे? पहले तो इस शिक्षा द्वारा शरीर खो दिया- तन्दुरुस्ती नष्ट हुई- जो कुछ बचा उससे आर्थिक-स्वतंत्रता लाभ करने को सर्वथा असमर्थ हैं। चौदह वर्षों की शिक्षा नवयुवकों को इस योग्य नहीं बना सकती कि वे स्वतंत्रता पूर्वक जीवन निर्वाह कर सकें। घर की पूँजी स्वाहा हो गई और परिणाम निकला-नौकरी यदि उसी पूँजी से कालेजों में समय नष्ट न किया जाता तो अच्छे रहते। दुकान खोलकर मजे में गुजारा कर सकते थे। धन भी गया, शक्ति भी गई, स्वतंत्रता भी बेच डाली, अब जीवन का साधन केवल दूसरों पर निर्भर रहने पर ही गया है। दस रुपये की नौकरी के लिए जूतियाँ चटकाते फिरते हैं। मगर हाथ से कोई उद्योग धंधा नहीं करेंगे। अंग्रेजी पढ़कर धंधा! स्वतंत्रता की खानि ‘उद्योग’ से इन्हें घृणा है। पढ़ने लिखने के अर्थ यह है कि केवल क्लर्की की जाय और अपने देश के अनपढ़ भाइयों का गला काटकर रुपया पैदा हो। अब बढ़िया सूट बूट चाहिये। घर में खाने को न रहे मगर फैशन पूरा हो। जहाँ अंग्रेजी की गिटपिट आई वहीं भेष बदला और जेंटलमेनी का भूत सिर पर सवार हुआ। यदि बाप अपने मिडल पास बेटे को बाजार से आटा खरीद लाने को कहता है तो बेटा बाजार जाकर सौदा खरीदने से हिचकिचाता है। यदि किसी प्रकार मान भी लिया तो दो चार, दस सेर आटा उठाने के लिए उसे एक नौकर चाहिए। अंग्रेजी पढ़ने से हाथों में मेहन्दी लग जाती है, और वे सुन्दर बनकर जेबों में रखने लायक रह जाते हैं।

भारतीय बच्चों के सामने हमें शिक्षा का नया आदर्श रखना है। उनको कर्मवीर बनाने की शिक्षा देनी है। उनके अंदर की स्वावलम्बन संजीवनी शक्ति भरनी है। यह सच तभी होगा जब मजदूरी की महत्ता को शिक्षा में प्रथम स्थान दिया जायगा, जब देश के लोग चरित्र की कसौटी से ऊँच-नीच की परख करेंगे। अकर्मण्यता का जहर जो आज हमारी समाज में फैल रहा है, उसको निकालना है। वह केवल एक प्रकार का बपतिस्मा है। उससे मनुष्य केवल किसी भलेमानस की बात समझने लायक बनता है उसको मैं शिक्षा नहीं कहता, शिक्षा दूसरी वस्तु है। वर्तमान शिक्षा से उलटा भीरुता, कायरता और अकर्मण्यता फैल गई है और हमारा बल वीर्य नष्ट हो गया है। इसलिए हमें सच्ची शिक्षा की ओर आना चाहिए और अपनी पिछली भूलों को सुधारने का यत्न करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118