अंतः शुद्धि की आवश्यकता

June 1953

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

दुनिया में कई दुनिया हैं और आदमी में कई आदमी। वास्तव में मनुष्य की चेतना में पर्त पर पर्त है। एक पर्त शुभ है तो दूसरा अशुभ। अतः वह निश्चित नहीं कर पाता, वह एक रूप नहीं हो पाता। क्या है, सो कहा नहीं जा सकता। हम प्रायः यह नहीं जानते कि प्रत्येक व्यक्ति में एक दूसरा व्यक्ति छिपा बैठा है। आदमी के अन्दर भी एक दूसरा आदमी है। यह हमारा दूसरा गुप्त आँतरिक व्यक्तित्व है। इसी में एक वृत्ति उत्पन्न होती है, जिसे हम कहते हैं- द्विविधा वृत्ति।

‘द्विविधा वृत्ति’ क्या है? हम मुँह से कहते हैं कि उच्च साँस्कृतिक, नैतिक जीवन निर्वाह करना चाहिए, भजन, पूजा करनी चाहिए, व्रत एवं उपवास रखना, सत्संग और स्वाध्याय करना चाहिए। किन्तु आश्चर्य, महा आश्चर्य, हम ऐसे ऐसे गन्दे विषयों, कार्यों, वासनाओं के विषय में सोचने लगते हैं, ऐसे ऐसे आसुरी प्रवृत्ति वाले विकार हमारे मन में ताण्डव मचाने लगते हैं, जिस पर हम प्रायः विश्वास नहीं करते, सात्विक प्रवृत्ति के मन में ये दुर्भावनाएं कहाँ से उत्पन्न हो गई?

ये दुर्भावनाएँ हमारे गुप्त आन्तरिक व्यक्तित्व से उत्पन्न हुई हैं। इसका स्रोत हमारा अतृप्त, असंस्कृत, असभ्य, गुप्त आँतरिक व्यक्तित्व है। ऊपरी व्यक्तित्व कुछ कहता है, तो आँतरिक व्यक्तित्व दूसरी सर्वथा विपरीत आज्ञा दिया करता है। ऊपरी व्यक्तित्व संयम की आज्ञा दिया करता है, तो आँतरिक व्यक्तित्व मौज उड़ाने, मस्त रहने से प्रवृत्ति उत्पन्न करता है। इन दोनों व्यक्तित्वों का निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। एक मनुष्य को शुभ कार्यों के प्रति खींचती है, तो दूसरा उसे अशुभ की और आकृष्ट किया करता है। ऊपरी पर्त में ज्ञान, वैराग्य, संयम, तेज, भरा रहता है, तो नीचे की पर्त में गन्दगी, असंयम, उत्तेजना भरी रहती है।

मनुष्य जो कहता है, वह वास्तव में अनुभव करता भी है, या नहीं- यह नहीं कहा जा सकता। वह दीखता तो एक है किन्तु है उससे सर्वथा भिन्न-अनेक विरोधी तत्वों का सम्मिश्रण, माया का पुतला।

हमारी यह भीतरी दुनिया की हमारी उलझनों, नाना कष्टों और आन्तरिक क्लेशों का कारण है। जो कुछ हमें अपने शरीर में परिवर्तन प्रतीत होता है, यह हमारे अन्दर बैठे हुए आदमी की करामात है।

डॉक्टर कोयू अपनी पुस्तक ‘सेल्फ मास्टरी थ्रू कानशस आटो सजेशन’ में लिखते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि चेतना की आँतरिक पर्तों की सफाई करें, उनमें विश्वास पैदा करें, उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न करें। ऊपरी पर्त को संकेत देने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा। वास्तव में मनुष्य की उन्नति की आधारशिला यह आँतरिक पर्त ही है। मनुष्य की बाहरी कठिनाइयाँ एक छाया मात्र हैं बाह्य कठिनाइयाँ आँतरिक कठिनाइयों का आरोपण मात्र हैं। जो व्यक्ति इस अंदरूनी पर्त में शक्ति उत्पन्न कर लेता है, वह अपार शक्ति का अनुभव करता है। उसे संकटों को पार करने के लिये यहीं से शक्ति प्राप्त होती है।

इस आन्तरिक पर्त में आप आत्मविश्वास उत्पन्न करें। ऊपरी विश्वास से कोई लाभ नहीं है। जो बात आप मन में अन्दर से महसूस करते हैं, वही आप वास्तव में हैं आपका शरीर, आपके वस्त्र, डील-डौल नहीं, ये आन्तरिक पर्त में जमे हुए आपके विश्वास, आपकी भावनाएँ, विचार, संकेत ही जीवन निर्माण करते हैं।


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