कबिरा गर्व न कीजिये काले गहे कर केस। ना जानौं कित मारि है क्या घर क्या परदेस॥
हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी केस जरै ज्यों घास। सब जग जरता देखि कर भये कबीर उदास॥
झूठे सुख को सुख कहैं मानत हैं मन मोद। जगत चबेना काल का कुछ मुख में कुछ गोद ॥
पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जात। देखते ही छिपि जायगा ज्यों तारा परभात॥
रात गँवाई सोय करि दिवस गँवायौ खाय। हीरा जन्म अमोल था कौड़ी बदले जाय॥
आज कहे कल भजूँगा काल कहे फिर काल। आज काल के करत ही औसर जासी चाल॥
आछे दिन पाछे गये गुरु से किया न हेत। अब पछतावा क्या करै चिड़ियाँ चुग गई खेत॥
काल करै सो आज कर आज करै सो अब। पल मैं परलै होयगी बहुरि करैगा कब।
कबिरा नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय। यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखौ जाय॥
पाँचों नौबत बाजती होत छतीसौ राग। सो मंदिर खाली पड़ा बैठन लागे दाग॥
यह तन काँचा कुम्भ है लिए फिरै हैं साथ। टपका लागा फूटिया कछु नहिं आया हाथ॥