अपनी भूलों को स्वीकार कीजिए।

April 1946

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जब मनुष्य कोई गलती कर बैठता है, तब उसे अपनी भूल का भय लगता है। वह सोचता है कि दोष को स्वीकार कर लेने पर मैं अपराधी समझा जाऊँगा, लोग मुझे बुरा भला कहेंगे और गलती का दंड भुगतना पड़ेगा। वह सोचता है कि इन सब झंझटों से बचने के लिए यह अच्छा है कि गलती को स्वीकार ही न करूं, उसे छिपा लूँ या किसी दूसरे के सिर मढ़ दूँ।

इस विचार धारा से प्रेरित होकर काम करने वाले व्यक्ति भारी घाटे में रहते हैं। एक दोष को छिपा लेने से बार-बार वैसा करने का साहस होता है और अनेक गलतियों को करने एवं छिपाने की आदत पड़ जाती है। दोषों के भार से अन्तःकरण दिन-दिन मैला, भद्दा और दूषित होता जाता है और अन्ततः वह दोषों की, भूलों की खान बन जाती है। गलती करना उसके स्वभाव में शामिल हो जाता है।

भूल को स्वीकार करने में मनुष्य की महत्ता कम नहीं होती। वरन् उसके महान आध्यात्मिक साहस का पता चलता है। गलती को मानना बहुत बड़ी बहादुरी है। जो लोग अपनी भूल को स्वीकार करते हैं और भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा करते हैं वे क्रमशः सुधरते और आगे बढ़ते जाते हैं। गलती को मानना और उसे सुधारना यही आत्मोन्नति का सन्मार्ग है।


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