(लेखक- अविज्ञात)
अधिक अनसुनी कर न सकूँगा दर्द भरी चीत्कार सुकेशी।
भूख भूख रोटी रोटी की व्यापक करुण पुकार सुकेशी॥
हिल उट्ठे हैं विन्ध्य हिमाचल सुन यह हाहाकार सुकेशी।
बाँध सकेगा कब तक कवि करुणा का पारावार सुकेशी॥
मैंने कब चाहा परियों का साथ छोड़ भूतल पर जाऊँ।
मैंने कब चाहा सुमनों का प्यार छोड़ काँटों पर धाऊँ॥
मैंने प्रणय छोड़ कब चाहा सजनि प्रलय के गाने गाऊँ।
मैंने कब चाहा मधुमय प्याली ढुलका विष पीने जाऊँ॥
किन्तु सह्य अब हो न सकेगा कानों के परदे फटते हैं।
वह देखो मानव के खाने को मानव के सर कटते हैं॥
महलों को रोशन करने को कुटियों को आहुति दी जाती।
वैभव का जी बहलाने को श्रम-शोणित-हाला पी जाती॥
श्रम का स्वेद बहा कर जो धरती को सींच अन्न उपजाता।
वह रोटी के बिना तड़फता तिलतिल जलकर प्राण गवाँता॥
वस्त्र नहीं, जिससे बेचारी अबलाऐं लज्जा ढ़क पावें।
वस्त्र नहीं जिससे रोगी, सर्दी गर्मी से प्राण बचावे॥
दूध नहीं जिसके बिन दीनों के बच्चे दम तोड़ रहे हैं।
दूध नहीं जिसके बिन नन्हे शिशु जग से मुँह मोड़ रहें हैं॥
उसी दूध से मन्दिर और मठों की नाली धोई जाती।
“दूध कहाँ से पाऊँ लालन?” शिशु की दीना माँ चिल्लाती॥
आओ सजनी, चलें हम भू पर, रख दें अपनी स्वर्गीय वीणा।
मुझको भूखे कृषक बुलाते, तुम्हें मजूरिन वस्त्र बिहीना॥
चलो, अतल पाताल धरातल जहाँ कहीं भी हम पा जायें।
रोटी भूखों को, नंगों को कपड़ा, शिशुओं को पय लायें॥
रोटी भूखों को, नंगों को कपड़ा, शिशुओं को पय लायें॥
*समाप्त*