पूजा का आत्मिक रहस्य

April 1946

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(श्री हर भगवान दास ‘खुश्तर’ मुलतान)

ईश्वर पूजा के स्थूल उपकरणों का सूक्ष्म आध्यात्मिक महत्व है। उस सूक्ष्म तथ्य को समझे बिना जो लोग केवल मात्र भौतिक कर्मकाण्डों के बाह्य आडंबरों तक ही अपनी दृष्टि सीमित रखते हैं, वे पूजा के वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाते और न उसके सच्चे लाभ को ही प्राप्त कर पाते हैं।

सच्चा भगवद्भक्त- प्रभु भक्ति के निमित्त जिस समय आसन पर बैठता है तो वह अनुभव करता है कि वह एक चटाई के टुकड़े पर नहीं कर्तव्य की कठोर प्रतिज्ञा के ऊपर आरुढ़ है। इसी स्थान पर अविचल भाव से बैठकर उसे सत्य की दिव्य-ज्योति प्राप्त करनी है। एक ओर से प्रलोभनों का ताना और दूसरी ओर से कठिनाइयों का बाना डालकर बना हुआ यह साँसारिक घटना क्रम का आसन मेरे पैरों तले रहेगा मैं इसको नीचे दबाये रहूँगा, इसकी छाती पर बैठ कर जीवनोद्देश्य को प्राप्त करूंगा। परमात्मा की इच्छा और आज्ञा के अनुकूल जीवन का संचालन करूंगा।

भक्त- भगवान के आगे धूप जलाता है। मानो वह स्वीकार करता है कि आत्म दान करने से, त्याग की आहुति देने से, ही यशस्विनी गंध उत्पन्न होती है। उस गंध का परमात्मा का मन्दिर संसार सुवासित होता है और प्रभु भी प्रसन्न होते हैं। जहाँ धूप जलती है वहाँ से दुर्गन्ध पूर्ण हानिकारक रोग कीट भाग जाते हैं। जहाँ आत्म त्याग की, परमार्थ के लिए बलिदान की भावना ज्वलित रहेगी वहाँ विषय विकारों के जहरीले कीटाणु ठहर न सकेंगे। मन्दिर सुवासित होगा और प्रभु प्रसन्न होंगे।

चन्दन घिसता हैं। ज्यों-ज्यों घिसता है चन्दन का भार हलका होता जाता है, स्थूल दृष्टि वाले लोग समझते हैं। भगवद्भक्ति के मार्ग में चलते हुए चन्दन को घाटा हुआ वह घट गया। परन्तु भक्त को स्पष्ट दिखाई देता है कि चन्दन को लाभ ही हुआ, वह सूक्ष्म, सुवासित, पूज्य दृव्य बन कर, भक्तों के ही नहीं भगवान के भी मस्तक पर जा विराजता है। बिना घिसे वह इस सौभाग्य से वंचित रह जाता। भक्त सोचता है मुझे भी घिसना होगा, पिसना होगा, लोक सेवा के लिए अपनी भौतिक संपदाओं का त्यागना होगा, ऐसा करके ही मैं सच्ची भक्ति कर सकता हूँ।

प्रभु के सम्मुख वह दीप जलाता है। ज्ञान का दीपक भगवान की अखण्ड-ज्योति का निकटतम प्रतिनिधि है। ज्ञान का प्रकाश ही आत्मा को परमात्मा से मिलाता है। इस प्रकाश को जगाये बिना पूजा का कार्य पूरा हो नहीं सकता। भक्त दीपक जलाता है, मंदिर में भी और हृदय मंदिर में भी। इस ज्ञान दीप के प्रकाश में वह भगवान के सच्चे स्वरूप को देखता है और उन्हें प्राप्त करने का सच्चा प्रयत्न करता है।

नैवेद्य, मधुर शर्करा सा बना हुआ, हृदय के अन्तस्तल से निकला हुआ निवेदन प्रभु के सामने उपस्थित किये बिना पूजा की विधि पूरी कैसे हो सकती है? हृदय मन्दिर में विराजमान परमात्मा के सामने अपने गुण दोषों का निवेदन करना अपनी भूलों को स्वीकार करना आवश्यक है। “प्रभो, मुझे बल दीजिए, सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दीजिए, अन्धकार में से प्रकाश की ओर ले चलिए, असत् से सत् की ओर ले चलिए, मृत्यु से अमृत की ओर ले चलिए।” ऐसे मधुर भक्ति रस की मधुर शर्करा से बने हुए नैवेद्य निवेदन प्रभु के सामने वह उपस्थित करता है। ऐसी आध्यात्मिक पूजा से ही भगवान प्रसन्न होते हैं।


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